लोकसभा के उपाध्यक्ष का पद 17वीं लोकसभा की पूरी अवधि के दौरान यह पद रिक्त रहा और 18वीं लोकसभा में भी अब तक भरा नहीं गया है। जो कि गंभीर संवैधानिक विसंगति को दर्शाता है। और संसदीय लोकतंत्र की भावना को कमजोर करता है। हालाँकि उपसभापति का पद लोकसभा की कार्यवाही में निष्पक्षता और निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए संविधान द्वारा कल्पित एक महत्वपूर्ण पद है। प्रश्न यह है की इतना महत्वपूर्ण पद क्यो खाली है। इस लेख में उपसभापति से सम्बंधित वुभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।
विवाद क्या है?
- लोकसभा के उपाध्यक्ष का पद 17वीं लोकसभा की पूरी अवधि के दौरान यह पद रिक्त रहा और 18वीं लोकसभा में भी अब तक भरा नहीं गया है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 93 और 178 में यह उल्लेख किया गया है कि लोकसभा तथा विधानसभाओं को अपने-अपने उपसभापतियों की नियुक्ति “करेगा” और “जितनी जल्दी हो सके” जैसे शब्दों का उपयोग किया गया है। ये शब्द यह स्पष्ट करते हैं कि यह नियुक्ति केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि एक संवैधानिक अनिवार्यता है, जिसे शीघ्रता से पूरा किया जाना चाहिए।
- लेकिन ऐतिहासिक निरंतरता के बावजूद, यह पद लंबे समय से रिक्त है, जो एक गंभीर संवैधानिक शून्यता को उजागर करता है। यह स्थिति देश के संसदीय इतिहास में बड़ी घटना है।
- इस नियुक्ति में हो रहे विलंब ने न केवल संवैधानिक आदेशों की अवहेलना को जन्म दिया है, बल्कि इससे संसदीय मानदंडों और लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति उदासीनता भी स्पष्ट होती है।
- संविधान विशेषज्ञ एस.सी. कश्यप का मानना है कि अध्यक्ष हमेशा सदन की कार्यवाही की अध्यक्षता नहीं कर सकते, इसलिए उपसभापति का दायित्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। वह संसदीय संचालन में निरंतरता और संतुलन बनाए रखने वाले एक केंद्रीय संवैधानिक स्तंभ के रूप में कार्य करता है।
अनुच्छेद 93-95: संवैधानिक प्रावधान
- अनुच्छेद 93: लोकसभा में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के पद का प्रावधान है।
- अनुच्छेद 94: अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के पदों के लिए अवकाश, त्यागपत्र और हटाने के प्रावधान दिया गया है।
- अनुच्छेद 95: उपाध्यक्ष या अन्य व्यक्ति की अध्यक्ष के पद के कर्तव्यों का पालन करने या अध्यक्ष के रूप में कार्य करने की शक्ति है।
की भूमिका वैकल्पिक नहीं है । संविधान संसदीय ढांचे के लिए इसकी आवश्यकता के संदर्भ में इस पद को अध्यक्ष के बराबर दर्जा देता है।
लोकसभा के उपाध्यक्ष की शक्तियाँ और विशेषाधिकार
- लोकसभा के अध्यक्ष के कर्तव्यों का पालन करते हुए या उसके रूप में कार्य करते हुए (अर्थात् लोकसभा की बैठक या दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की अध्यक्षता करते हुए), वहलोकसभा के अध्यक्ष की सभी शक्तियाँ ग्रहण करता है। इस प्रकार, ऐसे समय में, उपाध्यक्ष पहले तो मतदान नहीं कर सकता है, लेकिन वह बराबरी की स्थिति में ही निर्णायक मत का प्रयोग कर सकता है।
- जब अध्यक्ष सदन की अध्यक्षता करता है, तो उपाध्यक्ष सदन के किसी भीअन्य साधारण सदस्य की तरह होता है। इस प्रकार, ऐसे समय में, उपाध्यक्ष सदन में बोल सकते हैं, इसकी कार्यवाही में भाग ले सकते हैं, तथा सदन के समक्ष किसी भी प्रश्न पर प्रथम दृष्टया मतदान कर सकते हैं।
- उन्हें एक विशेष विशेषाधिकार प्राप्त है – जब भी लोकसभा के उपाध्यक्ष को संसदीय समिति के सदस्य के रूप में नियुक्त किया जाता है, तो वहस्वतः ही उसका अध्यक्ष बन जाता है।
- उपाध्यक्ष, अध्यक्ष के अधीनस्थ नहींहोता है, बल्कि वह सीधे लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होता है।
लोकसभा के उपाध्यक्ष का चुनाव
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 93 के अनुसार, लोकसभा को दो पदाधिकारी चुनने होते हैं एक अध्यक्ष (Speaker) और एक उपाध्यक्ष (Deputy Speaker)। यद्यपि संविधान उपसभापति के चुनाव की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन नहीं करता, यह शक्ति संसद को सौंपी गई है कि वह नियम बनाकर इसे संचालित करे।
Constitution of India, Article 93 – “The House of the People shall, as soon as may be, choose two members of the House to be respectively Speaker and Deputy Speaker…”
- सामान्य बहुमत का प्रावधान है, उपसभापति का निर्वाचन सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत से होता है। इसका तात्पर्य है कि उम्मीदवार को जितने सदस्य उपस्थित हैं, उनमें से केवल आधे से अधिक का समर्थन प्राप्त होना चाहिए।
- उपसभापति का चयन लोकसभा के अपने सदस्यों में से ही किया जाता है। यह संसद के आत्म-नियमन की परंपरा का प्रतीक है। उपसभापति बनने के लिए कोई अतिरिक्त शैक्षणिक या विधिक योग्यता आवश्यक नहीं होती है। केवल लोकसभा का निर्वाचित सदस्य होना ही पर्याप्त है।
- उपसभापति के निर्वाचन की तिथि अध्यक्ष द्वारा निर्धारित की जाती है, जो कार्यवाही की सुविधा एवं राजनीतिक सहमति के आधार पर निर्भर करती है।
- Lok Sabha Rules of Procedure and Conduct of Business – Rule 8: “The election of a Deputy Speaker shall be held on such date as the Speaker may fix.”
- जब उपसभापति निर्वाचित होता है, तो वह कोई अलग या विशिष्ट शपथ नहीं लेता। इसका कारण यह है कि वह पहले ही लोकसभा सदस्य के रूप में शपथ ले चुका होता है, और उपसभापति का पद एक अतिरिक्त भूमिका है।
- Article 99 of the Constitution, Members of Parliament take oath only once, upon becoming a member.
- अध्यक्ष सत्तारूढ़ दल से और उपसभापति विपक्षी दल से चुना जाता है, जिससे सदन में राजनीतिक संतुलन और निष्पक्षता बनी रहती है। यद्यपि यह संवैधानिक बाध्यता नहीं है, किंतु लोकतांत्रिक लोकाचार की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
10वीं लोकसभा तक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष दोनों ही आमतौर पर सत्तारूढ़ दल से होते थे।
11वीं लोकसभा के बाद से यह आम सहमति रही है कि अध्यक्ष सत्तारूढ़ दल से होगा और उपाध्यक्ष मुख्य विपक्षी दल से होगा।
लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद 17वीं और अब 18वीं संसद में रिक्त क्यों है?
17वीं और अब प्रारंभिक 18वीं लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद रिक्त रहना एक राजनीतिक रणनीति और संवैधानिक अस्पष्टता का परिणाम है। इससे भारतीय संसद की निष्पक्षता, पारदर्शिता और संस्थागत परंपराएं कमजोर हो रही हैं।
लोकसभा में उपाध्यक्ष(Deputy Speaker) का पद 17वीं लोकसभा (2019–2024) में पूरे कार्यकाल के दौरान रिक्त रहा और अब 18वीं लोकसभा के प्रारंभिक चरण में भी यह पद रिक्त है। यह स्थिति भारतीय लोकतंत्र और संसदीय परंपराओं की दृष्टि से एक गंभीर प्रश्न है।
रिक्तता के प्रमुख कारण
- संविधान के अनुच्छेद 93 के अनुसार: लोकसभा एक सभापति (Speaker) और एक उपसभापति चुनेगी। लेकिन इसमें कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है, जिससे सरकारें इसे टालने में सक्षम रहती हैं।
- परंपरा रही है कि यदि स्पीकर सत्तारूढ़ दल से हो तो उपसभापति विपक्ष से लिया जाए। लेकिन 17वीं लोकसभा में सरकार (NDA) ने शायद यह पद विपक्ष को देने से बचने के लिए चुनाव नहीं कराया।
- विपक्ष के साथ सहमति या संवाद का अभाव। सरकार की प्राथमिकता राजनीतिक नियंत्रण बनाए रखना रही, न कि संवैधानिक परंपराओं का पालन।
- स्पीकर की अनुपस्थिति में कार्यवाही संचालन के लिए अन्य वरिष्ठ सदस्यों को अस्थायी अध्यक्ष बनाया जा सकता है। इस विकल्प के कारण सरकार को उपसभापति पद की तत्कालिक आवश्यकता महसूस नहीं हुई।
लोकसभा के उपाध्यक्ष के पद का इतिहास
- 1947 तक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के रूप में जाना जाता था।
- 1921 में, भारत सरकार अधिनियम 1919 (मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार) के तहत भारत में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के पदों की स्थापना की गई ।
- 1921 से पहले, केंद्रीय विधान परिषद की अध्यक्षता भारत के गवर्नर-जनरल द्वारा की जाती थी।
- 1921 में, भारत के गवर्नर-जनरल ने फ्रेडरिक व्हाइट और सचिदानंद सिन्हा को केंद्रीय विधान सभा का पहला अध्यक्ष और पहला उपाध्यक्ष नियुक्त किया।
- प्रथम भारतीय एवं केन्द्रीय विधान सभा के प्रथम निर्वाचित अध्यक्ष – विट्ठलभाई जे. पटेल (1925 में)।
- 1935 के भारत सरकार अधिनियम ने केन्द्रीय विधान सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के नाम बदलकर अध्यक्ष और उपाध्यक्ष कर दिए। लेकिन, 1947 तक पुराना नाम ही जारी रहा क्योंकि 1935 के अधिनियम के संघीय भाग को लागू नहीं किया गया था।
- लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष – जीवी मावलंकर
- लोकसभा के प्रथम उपाध्यक्ष – अनंतशयनम अयंगर
- जी.वी. मावलंकर ने संविधान सभा (विधानसभा) के साथ-साथ अनंतिम संसद में भी अध्यक्ष का पद संभाला (1946 से 1956 तक लगातार अध्यक्ष के पद पर रहे)।
आलोचना
- यह स्थिति लोकतांत्रिक परंपराओं की उपेक्षा दर्शाती है।
- संसद के दोनों पीठासीन पदों (स्पीकर और डिप्टी स्पीकर) पर सत्तारूढ़ दल का वर्चस्व बना रहता है।
- विपक्ष, संसदीय विशेषज्ञ और संविधानविदों ने इसे “संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन” कहा है।
स्रोत: The Hindu