in

अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में जातीय संघर्ष: अवधारणाएँ, संकेतक और सैद्धांतिक दृष्टिकोण/International Dimensions of Ethnic Conflict: Concepts, Indicators, and Theory

-By David A. Lake and Donald Rothchild

इस लेख में International Dimensions of Ethnic Conflict: Concepts, Indicators, and Theory लेख की समीक्षा की गयी है जो डेविड . लेक (David A. Lake) और डोनाल्ड रोथचाइल्ड (Donald Rothchild) द्वारा प्रकाशित की गयी है

आधुनिक विश्व राजनीति में जातीय संघर्ष (Ethnic Conflict) एक अत्यंत जटिल और बहुआयामी समस्या बन चुका है। यह केवल आंतरिक राजनीति तक सीमित नहीं रहता, बल्कि सीमाओं से परे जाकर अंतर्राष्ट्रीय संबंधों, शांति और सुरक्षा को भी प्रभावित करता है। जिस प्रकार एक देश के भीतर उठने वाला जातीय विवाद पड़ोसी देशों में अस्थिरता पैदा कर सकता है, उसी तरह यह वैश्विक संस्थाओं और महाशक्तियों की रणनीति का हिस्सा भी बन जाता है।
लेख ‘International Dimensions of Ethnic Conflict: Concepts, Indicators, and Theory’ में जातीय संघर्ष के तीन प्रमुख पहलुओं; अवधारणाएँ, संकेतक और सिद्धांत का गहन विश्लेषण किया गया है।

जातीय संघर्ष की अवधारणा

जातीय संघर्ष की जड़ें पहचान (identity), संस्कृति, भाषा और राजनीतिक असमानता में निहित होती हैं। जब किसी समुदाय को लगता है कि उसके साथ भेदभाव हो रहा है, उसके राजनीतिक अधिकार छीने जा रहे हैं या उसकी सांस्कृतिक पहचान को मिटाने की कोशिश हो रही है, तो संघर्ष जन्म लेता है।
आज जातीय संघर्ष केवल ‘आंतरिक गृहयुद्ध’ या ‘सांस्कृतिक विवाद’ नहीं हैं। इनमें अंतर्राष्ट्रीय आयाम जुड़े होते है जैसे पड़ोसी देशों की दखलअंदाजी, बाहरी समर्थन, शरणार्थियों का विस्थापन, और वैश्विक संस्थाओं की प्रतिक्रिया। इस कारण यह विषय अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय संकेतक (Indicators)

लेखक में कई संकेतक बताए हैं जिनसे यह समझा जा सकता है कि जातीय संघर्ष का अंतर्राष्ट्रीयकरण कैसे होता है:

  1. सीमापार समर्थन (Cross-Border Support):
    जब किसी देश का पड़ोसी देश वहां के किसी जातीय समूह को राजनीतिक, आर्थिक या सैन्य सहयोग देता है। उदाहरणस्वरूप, अफ्रीका और मध्य-पूर्व में कई संघर्षों को बाहरी देशों ने समर्थन दिया।
  2. शरणार्थियों का प्रवाह (Refugee Flow):
    जातीय संघर्ष के दौरान हजारों-लाखों लोग अपने देश से पलायन करते हैं, जिससे पड़ोसी देशों पर भारी बोझ पड़ता है। यह न केवल मानवीय संकट पैदा करता है बल्कि सुरक्षा और संसाधनों पर दबाव भी डालता है।
  3. विदेश नीति और कूटनीति पर प्रभाव (Impact on Foreign Policy):
    जातीय संघर्ष किसी देश की विदेश नीति को प्रभावित करता है। सरकारें अपनी नीतियों को बदलकर ऐसे संघर्षों से निपटने की रणनीति तैयार करती हैं।
  4. अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की भूमिका (Role of International Organizations):
    संयुक्त राष्ट्र, क्षेत्रीय संगठन और एनजीओ शांति स्थापना, मध्यस्थता और मानवीय सहायता में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।

सैद्धांतिक दृष्टिकोण (Theoretical Approaches)

लेख में जातीय संघर्ष को समझाने के लिए विभिन्न सिद्धांतों पर चर्चा की गई है:

  • यथार्थवादी दृष्टिकोण (Realist Approach):
    इस दृष्टिकोण के अनुसार, जातीय संघर्ष शक्ति संतुलन और सुरक्षा दुविधा का परिणाम है। राज्य अपने हित और प्रभुत्व की रक्षा के लिए हस्तक्षेप करते हैं।
  • उदारवादी दृष्टिकोण (Liberal Approach):
    यह दृष्टिकोण मानता है कि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ, सहयोग और कूटनीति जातीय संघर्ष को कम कर सकती हैं। इसमें शांति-वार्ता और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर जोर दिया गया है।
  • संरचनावादी दृष्टिकोण (Constructivist Approach):
    इसमें पहचान, सामाजिक संरचनाओं और विचारधाराओं को मुख्य कारण माना जाता है। जातीय संघर्ष केवल भौतिक संसाधनों की लड़ाई नहीं है, बल्कि यह ‘हम’ बनाम ‘वे’ की मानसिकता से उपजता है।

आलोचनात्मक विश्लेषण

लेख से यह स्पष्ट होता है कि जातीय संघर्ष केवल घरेलू समस्या नहीं है। जब यह सीमाओं को पार करता है, तो इसका असर क्षेत्रीय स्थिरता, आर्थिक विकास, मानवाधिकार और अंतर्राष्ट्रीय शांति पर पड़ता है।
हालांकि लेख बहुत गहराई से विश्लेषण करता है, लेकिन इसमें समाधान की दिशा में ठोस सुझावों की कमी दिखाई देती है। केवल सिद्धांतों के स्तर पर चर्चा करने से वास्तविक नीतिगत दिशा नहीं मिल पाती। इसके बावजूद यह लेख इस विषय पर शोध और नीति-निर्माण के लिए एक मजबूत आधार प्रस्तुत करता है।

निष्कर्ष

जातीय संघर्ष की अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति हमें यह सिखाती है कि आज के युग में कोई भी समस्या ‘स्थानीय’ नहीं रह जाती। यह संघर्ष पड़ोसी देशों, क्षेत्रीय राजनीति और वैश्विक शांति सभी को प्रभावित करता है। इसलिए इसके समाधान के लिए केवल घरेलू उपाय पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, संस्थाओं की प्रभावी भूमिका और शांतिनिर्माण की दीर्घकालिक रणनीतियाँ आवश्यक हैं।

 

What do you think?

कार्ल मार्क्स, पुस्तक : गुंडरिसे, दास कैपिटल, द जर्मन आइडियोलॉजी

दक्षिण-दक्षिण और त्रिकोणीय सहयोग (SSTC): विकासशील देशों की साझेदारी का मॉडल