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अंबेडकर : प्राग्मेटिज़्म से नव-बौद्ध धर्म तक

Ambedkar: From Pragmatism to Neo-Buddhism

डॉ. भीमराव भारत के संविधान के निर्माता और दलितों के अधिकारों के सबसे बड़े संघर्षकर्ता थे। वे एक महान समाज सुधारक, शिक्षाविद, विधिवेत्ता (लॉयर) और राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने भारत में जाति प्रथा को समाप्त करने और समानता लाने के लिए जीवनभर संघर्ष किया। लेकिन डॉ. भीमराव अंबेडकर को केवल एक राजनीतिज्ञ या संविधान निर्माता तक सीमित रखना उनके योगदान के साथ अन्याय होगा। वे एक समाज सुधारक, दार्शनिक, शिक्षाविद, और क्रांतिकारी विचारक थे। उन्होंने भारतीय समाज में समानता, न्याय और स्वतंत्रता स्थापित करने के लिए अपने विचारों को व्यवहारिक रूप से लागू किया।

अंबेडकर को तीन प्रमुख दृष्टिकोणों से समझा जा सकता है:

  1. प्रयोगवादी बौद्ध धर्म (Pragmatic Buddhism) – बौद्ध धर्म को तर्कसंगत और आधुनिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करना।
  2. नैतिकता (Reflexive Morality) – समाज में नैतिकता के आधार पर परिवर्तन लाना।
  3. पुनर्निर्माणवादी वक्तृत्व (Reconstructive Rhetoric) – अपने भाषणों और लेखों के माध्यम से बदलाव लाना।

आइये हम इन तीनो दृष्टिकोणों को एक-एक करके समझते है ताकि अंबेडकर के सिद्धांतो एवं कार्यों को गहरीई से समझा सके ।

 

प्रगमेटिज़्म  क्या है – आंबेडकर और जॉन ड्यूई

प्रगमेटिज़्म एक दार्शनिक दृष्टिकोण है जो विचारों और अवधारणाओं के व्यावहारिक अनुप्रयोग पर जोर देता है। जॉन ड्यूई के अनुसार, प्रगमेटिज़्म मानव व्यवहार की आवश्यकता और किसी उद्देश्य की पूर्ति पर जोर देता है ताकि विचारों को स्पष्ट किया जा सके। इसका मतलब है कि अवधारणाओं को समझना उनके दैनिक जीवन में कैसे लागू किया जाता है, इस पर निर्भर करता है।

  • अंबेडकर ने भी अपने सामाजिक सुधारों और बौद्धिक दृष्टिकोण को विकसित करने में John Dewey के प्राग्मेटिज़्म (व्यवहारवाद) से गहरी प्रेरणा ली। उनके विचारों में तर्क, व्यावहारिकता और सामाजिक परिवर्तन का गहरा संबंध था। उन्होंने धर्म, राजनीति और समाज को केवल सैद्धांतिक रूप से नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक दृष्टिकोण (Pragmatic Approach) से देखा।
  • अंबेडकर ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान Dewey के विचारों का गहराई से अध्ययन किया। Dewey के सिद्धांतों ने अंबेडकर को सामाजिक न्याय, लोकतंत्र और जाति उन्मूलन के लिए एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा दी। जिसे अंबेडकर ने भारत की जाति समस्या के समाधान में लागू करने की कोशिश की। John Dewey के अनुसार, केवल विचारों से बदलाव नहीं आता, बल्कि उन्हें क्रियान्वित करना आवश्यक है। अंबेडकर ने इस सिद्धांत को अपनाते हुए सामाजिक और धार्मिक सुधारों को अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से लागू किया।

अंबेडकर के विचारों में नवयान बौद्ध धर्म का समावेश- एक प्रगमेटिक कदम

अंबेडकर ने महसूस किया कि हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था को सुधारना संभव नहीं है, क्योंकि यह जन्म-आधारित भेदभाव को धार्मिक रूप से सही ठहराता है। इसलिए, उन्होंने एक ऐसा धर्म अपनाने का फैसला किया जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व को बढ़ावा दे। वह था नवयान बौद्ध धर्म।

नवयान बौद्ध धर्म क्या है?

  • अंबेडकर ने पारंपरिक बौद्ध धर्म की व्याख्या को प्राग्मेटिक (व्यावहारिक) तरीके से अपनाया।
  • उन्होंने इसे सामाजिक न्याय का एक साधन बनाया, जिससे जाति प्रथा को खत्म किया जा सके।
  • अंबेडकर का बौद्ध धर्म समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने का एक तरीका बना।
  • यह शोषित वर्गों के लिए एक नई पहचान और समानता का आधार बन गया।
  • नवयान बौद्ध धर्म के माध्यम से, अंबेडकर ने एक नए सामाजिक ढांचे की नींव रखी, जिसमें जाति आधारित भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं था।
  • उन्होंने 1956 में बौद्ध धर्म ग्रहण किया और लाखों अनुयायियों को जाति से मुक्ति दिलाने के लिए प्रेरित किया।

प्राग्मेटिज़्म और नवयान बौद्ध धर्म का संबंध

John Dewey के प्राग्मेटिज़्म की तरह, अंबेडकर ने धर्म को सिर्फ आध्यात्मिक विचारधारा के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन के एक उपकरण के रूप में देखा।

  • उन्होंने धार्मिक सिद्धांतों को तर्क और व्यावहारिकता के आधार पर अपनाया।
  • उनके लिए बौद्ध धर्म केवल पूजा-पद्धति नहीं था, बल्कि सामाजिक समानता लाने का एक माध्यम था।
  • उन्होंने पारंपरिक बौद्ध धर्म के अंधविश्वासों को हटाकर इसे अधिक तार्किक और वैज्ञानिक रूप दिया।

अन्य कार्य

  • अंबेडकर ने शिक्षा को सबसे बड़ा हथियार माना। उन्होंने कहा, “शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो।
  • भारतीय संविधान को उन्होंने यथार्थवादी दृष्टिकोण से तैयार किया, जिसमें सामाजिक न्याय, स्वतंत्रता और समानता सुनिश्चित की गई
  • उन्होंने केवल लेखन या भाषणों तक सीमित न रहकर व्यवहारिक आंदोलन (Practical Movements) भी चलाए, जैसे महाड़ सत्याग्रह (1927) और कालाराम मंदिर आंदोलन (1930)।

अंत: अंबेडकर का प्राग्मेटिज़्म यह दर्शाता है कि सामाजिक परिवर्तन केवल विचारों से नहीं, बल्कि व्यावहारिक कदमों से संभव होता है।

अम्बेडकर – नैतिकता (Reflexive Morality)

  • डॉ. अंबेडकर ने नैतिकता को व्यक्तिगत और सामाजिक सुधार का महत्वपूर्ण स्तंभ माना। उनके अनुसार, नैतिकता का आधार परंपरा या धर्म नहीं, बल्कि तर्क और समानता होनी चाहिए।
  • उन्होंने कहा कि जाति प्रथा एक नैतिक पाप (Moral Sin) है, क्योंकि यह मानव समानता के खिलाफ है।
  • उन्होंने बौद्ध धर्म को नैतिकता पर आधारित धर्म माना और 1956 में लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया।
  • भारतीय संविधान के मूल अधिकार (Fundamental Rights) समानता, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय के नैतिक सिद्धांतों पर आधारित हैं।
  • उन्होंने Annihilation of Caste में तर्क दिया कि जाति प्रथा व्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करती है।
  • भीमा कोरेगांव की लड़ाई और उनकी प्रसिद्ध Ranade, Gandhi, and Jinnah नामक व्याख्यान जातिगत अन्याय के खिलाफ उनके संघर्ष को दर्शाते हैं।

अंत: अंबेडकर की नैतिकता का उद्देश्य समाज को आत्मनिरीक्षण (Self-Reflection) के लिए प्रेरित करना और समानता व न्याय की दिशा में आगे बढ़ाना था।

 

अंबेडकर- पुनर्निर्माणवादी वक्तृत्व (Reconstructive Rhetoric)

  • डॉ. अंबेडकर केवल एक विचारक नहीं थे, बल्कि एक महान वक्ता भी थे। उन्होंने अपने विचारों को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करने के लिए पुनर्निर्माणवादी वक्तृत्व (Reconstructive Rhetoric) का उपयोग किया।
  • जाति का विनाश (Annihilation of Caste) पुस्तक में उन्होंने हिंदू समाज की जाति प्रथा की कटु आलोचना की और ब्राह्मणवादी व्यवस्था को तोड़ने की बात कही।
  • अंबेडकर ने संविधान सभा में अपने भाषणों में लोकतंत्र, समानता और सामाजिक न्याय पर जोर दिया।
  • उन्होंने बुद्ध के विचारों को नए सिरे से परिभाषित किया और नवयान बौद्ध धर्म की स्थापना की।
  • अंबेडकर का वक्तृत्व केवल आलोचना तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने नए समाधान भी प्रस्तुत किए, जिससे वे एक महान समाज सुधारक बने।

 

शक्ति (Force) और ऊर्जा (Energy) के सिद्धांत

डॉ. अंबेडकर के संघर्ष में शक्ति (Force) और ऊर्जा (Energy) के सिद्धांत स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं।

शक्ति (Force):

  • अंबेडकर का संघर्ष केवल अहिंसक याचिकाओं तक सीमित नहीं था।
  • उन्होंने कानूनी, राजनीतिक और सामाजिक मोर्चों पर संघर्ष किया और अपने विचारों को दृढ़ता से लागू किया।

ऊर्जा (Energy):

  • उन्होंने शोषित वर्गों को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित किया और उन्हें शिक्षा व संगठन का महत्व समझाया।
  • उन्होंने अपने आंदोलन में निरंतर ऊर्जा बनाए रखी, जिससे उनके अनुयायियों में भी बदलाव की ललक पैदा हुई।

 

डॉ. भीमराव अंबेडकर की महत्वपूर्ण पुस्तके:

पुस्तक का नाम प्रकाशन वर्ष विषय
जाति का विनाश (Annihilation of Caste) 1936 जाति व्यवस्था की आलोचना और समानता की वकालत
बुद्ध और उनका धम्म (The Buddha and His Dhamma) 1957 (मरणोपरांत) नवयान बौद्ध धर्म और सामाजिक न्याय
शूद्र कौन थे? (Who Were the Shudras?) 1946 शूद्रों के उत्पत्ति और उत्पीड़न का विश्लेषण
अछूत: वे कौन थे और अछूत कैसे बने? (The Untouchables: Who Were They and Why They Became Untouchables?) 1948 अछूतों के ऐतिहासिक और सामाजिक उत्पीड़न की व्याख्या
रानाडे, गांधी और जिन्ना (Ranade, Gandhi and Jinnah) 1943 इन तीन नेताओं की विचारधारा का तुलनात्मक अध्ययन
पाकिस्तान या भारत का विभाजन (Pakistan or the Partition of India) 1940 भारत विभाजन के कारण और प्रभाव पर चर्चा
प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिकार (Revolution and Counter-Revolution in Ancient India) 1957 (अपूर्ण) भारत के ऐतिहासिक सामाजिक परिवर्तन और ब्राह्मणवादी प्रतिरोध का विश्लेषण
हिंदू धर्म की पहेलियाँ (The Riddles in Hinduism) 1954 हिंदू धर्म में विरोधाभासों और सामाजिक समस्याओं की व्याख्या
असमानता की जड़ें (The Roots of the Problem of Untouchability) 1945 जाति और अछूत प्रथा की ऐतिहासिक जड़ें
संविधान का निर्माण (The Constitution of India: Its Genesis and Development) 1950 भारतीय संविधान के निर्माण की प्रक्रिया और विचारधारा

 

निष्कर्ष

अंबेडकर का दर्शन केवल राजनीति तक सीमित नहीं था, बल्कि यह एक बहुआयामी दृष्टिकोण था जिसमें न्याय, नैतिकता, तर्क, और व्यवहारिकता सभी शामिल थे। उनका प्राग्मेटिज़्म सिर्फ एक विचार नहीं था, बल्कि सामाजिक बदलाव का एक व्यावहारिक माध्यम था।

 

Source: The Hindu

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