मुद्दा क्या है?
कर्नाटक सरकार द्वारा “फेक न्यूज” और Misinformation को रोकने के नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का प्रयास किया गया है। कर्नाटक सरकार ने “फेक न्यूज प्रतिबंध विधेयक 2025” प्रस्तावित किया है।
विशेष प्रावधान
- इसके तहत सोशल मीडिया पर निम्नलिखित कंटेंट को प्रतिबंधित किया जाएगा-
- जो “एंटी-फेमिनिज्म” हो
- जो “सनातन विश्वासों” का “अपमान” करता हो
- सरकार एक ऐसा प्राधिकरण (authority) बनाएगी, जो क्या “फेक न्यूज” है और क्या नहीं यह तय करेगा।
- इस प्राधिकरण में कोई स्वतंत्र पत्रकार या विशेषज्ञ नहीं होगा।
- यह प्राधिकरण पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में होगा।
- सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही ऐसे कानूनों को असंवैधानिक बताया है — जैसे धारा 66A को 2015 में रद्द करना।
यह कानून विवादास्पद क्यों है?
- यह सरकार को आलोचना रोकने का हथियार दे सकता है।
- यह स्वतंत्र पत्रकारिता और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला है।
- यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन करता है।
- इस विधेयक की तुलना 1975 के इंदिरा गांधी आपातकाल से की जा रही है, जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर व्यापक प्रतिबंध लगाए गए थे।
- इस बिल को राजनीतिक आलोचना, प्रेस स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों पर हमला माना जा रहा है।
- यह विधेयक सरकारी शक्तियों के राजनीतिक दुरुपयोग का खतरा पैदा करता है।
- यह एक डिजिटल इमरजेंसी लाने की कोशिश है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है।
Shreya Singhal v. Union of India (2015) केस के तहत सुप्रीम कोर्ट पहले ही इस तरह के प्रयासों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाला मान चुका है।
Shreya Singhal v. Union of India (2015)
- यह केस आईटी एक्ट की धारा 66A को चुनौती देने के लिए दायर किया गया था।
- इस धारा के तहत सोशल मीडिया पर “आपत्तिजनक” सामग्री पोस्ट करने पर 3 साल तक की जेल का प्रावधान था।
- कई युवाओं को उनके सोशल मीडिया पोस्ट के लिए गिरफ्तार किया गया था (उदाहरण: बाल ठाकरे की मृत्यु पर टिप्पणी करने पर दो लड़कियों की गिरफ्तारी)।
- यह धारा अत्यंत अस्पष्ट, मनमानी और सेंसरशिप को बढ़ावा देने वाली मानी गई।
याचिका के तर्क
- धारा 66A संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) का उल्लंघन करती है।
- धारा बहुत व्यापक और अस्पष्ट है: “आपत्तिजनक”, “उकसाने वाली”, “अपमानजनक” जैसी शब्दावली का कोई स्पष्ट मापदंड नहीं।
- इससे राजनीतिक आलोचना, व्यंग्य और विरोध को दबाने का रास्ता खुलता है।
अंत: धारा 66A को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया। कोर्ट ने कहा कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर “सीधा हमला” है। यह वैध प्रतिबंधों (जैसे कि राष्ट्रीय सुरक्षा, अश्लीलता आदि) के दायरे से बाहर है।
अनुच्छेद 19(1)(a) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Speech and Expression)
- भारत का संविधान सभी नागरिकों को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। यह अनुच्छेद 19(1)(a) में निहित है।
- अनुच्छेद 19(1)(ए) के अनुसार: सभी नागरिकों कोवाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होगा।
- इसका तात्पर्य यह है कि सभी नागरिकों को अपने विचार और राय स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने का अधिकार है।
- इसमें न केवल मौखिक शब्द शामिल हैं, बल्कि लेख, चित्र, चलचित्र, बैनर आदि के माध्यम से भाषण भी शामिल है।
- बोलने के अधिकार में न बोलने का अधिकार भी शामिल है।
- भारत के सर्वोच्च न्यायालयने माना है कि खेलों में भागीदारी व्यक्ति की स्वयं की अभिव्यक्ति है और इसलिए यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक रूप है।
- 2004 में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राष्ट्रीय ध्वज फहराना भी इसी स्वतंत्रता का एक रूप है।
- प्रेस की स्वतंत्रता इस अनुच्छेद के अंतर्गत अनुमानित स्वतंत्रता है।
- इस अधिकार में सूचना तक पहुँच का अधिकार भी शामिल है क्योंकि यह अधिकार तब निरर्थक हो जाता है जब दूसरों को जानने/सुनने से रोका जाता है। इस व्याख्या के अनुसारसूचना का अधिकार (आरटीआई) एक मौलिक अधिकार है।
- सुप्रीम कोर्ट ने यह भी फैसला दिया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) का अभिन्न अंग है। ये दोनों अधिकार अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि आपस में जुड़े हुए हैं।
- किसी भी नागरिक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध राज्य की कार्रवाई से भी लगाया जा सकता है और उसकी निष्क्रियता से भी। इसका मतलब यह है कि नागरिकों के सभी वर्गों को यह स्वतंत्रता सुनिश्चित करने में राज्य की विफलता उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगी।
- वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में सूचना का संचार, मुद्रण एवं विज्ञापन करने का अधिकार भी शामिल है।
- इस अधिकार में वाणिज्यिक के साथ-साथ कलात्मक भाषण और अभिव्यक्ति भी शामिल है।
इस स्वतंत्रता के अंतर्गत कौन–कौन से अधिकार आते हैं?
- वक्तव्य की स्वतंत्रता – अपनी बात कहने या विचार साझा करने का अधिकार।
- लेखन की स्वतंत्रता – लेख, कविता, कहानी, ब्लॉग आदि के माध्यम से भाव प्रकट करना।
- प्रेस एवं मीडिया की स्वतंत्रता – समाचार और सूचनाओं का स्वतंत्र प्रसारण।
- शांतिपूर्ण प्रदर्शन का अधिकार – शांतिपूर्ण ढंग से विरोध दर्ज करना।
- कलात्मक अभिव्यक्ति – कला, सिनेमा, संगीत, रंगमंच आदि के माध्यम से विचारों की प्रस्तुति।
- डिजिटल माध्यमों से अभिव्यक्ति – सोशल मीडिया, वेबसाइट या अन्य ऑनलाइन मंचों पर विचार व्यक्त करना।
वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व
एक कार्यात्मक लोकतंत्र का एक बुनियादी तत्व सभी नागरिकों को देश की राजनीतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं में भाग लेने की अनुमति देना है। एक स्वस्थ लोकतंत्र में सभी रूपों (मौखिक, लिखित, प्रसारण, आदि) में भाषण, विचार और अभिव्यक्ति की पर्याप्त स्वतंत्रता होती है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी न केवल भारतीय संविधान द्वारा दी गई है, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कानूनों जैसे मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (10 दिसंबर 1948 को घोषित) , नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा, मानव अधिकारों और मौलिक स्वतंत्रताओं पर यूरोपीय सम्मेलन आदि द्वारा भी दी गई है।
- यह महत्वपूर्ण है क्योंकि लोकतंत्र तभी अच्छी तरह काम करता है जब लोगों को सरकार के बारे में अपनी राय व्यक्त करने और आवश्यकता पड़ने पर उसकी आलोचना करने का अधिकार हो।
- लोगों की आवाज सुनी जानी चाहिए और उनकी शिकायतों का समाधान किया जाना चाहिए।
- न केवल राजनीतिक क्षेत्र में, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जैसे अन्य क्षेत्रों में भी, एक सच्चे लोकतंत्र में लोगों की आवाज सुनी जानी चाहिए।
- उपरोक्त स्वतंत्रताओं के अभाव में लोकतंत्र ख़तरे में पड़ जाएगा। सरकार बहुत ज़्यादा शक्तिशाली हो जाएगी और आम जनता के बजाय कुछ लोगों के हितों की सेवा करने लगेगी।
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता के अधिकार पर कठोर प्रतिबंध लगाने से लोगों में भय का माहौल पैदा होगा, जिसके कारण वे चुपचाप अत्याचार सहते रहेंगे। ऐसे में लोग घुटन महसूस करेंगे और अपनी राय व्यक्त करने के बजाय पीड़ा सहना पसंद करेंगे।
- प्रेस की स्वतंत्रता भी भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में एक महत्वपूर्ण कारक है।
- भारत के दूसरे मुख्य न्यायाधीश एम. पतंजलि शास्त्री ने कहा है कि, “भाषण और प्रेस की स्वतंत्रता सभी लोकतांत्रिक संगठनों की नींव में निहित है, क्योंकि स्वतंत्र राजनीतिक चर्चा के बिना कोई भी सार्वजनिक शिक्षा, जो सरकार की प्रक्रिया के समुचित संचालन के लिए आवश्यक है, संभव नहीं है।”
- भारतीय संदर्भ में इस स्वतंत्रता का महत्व इस तथ्य से समझा जा सकता है कि प्रस्तावना स्वयं सभी नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा की स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है।
- उदार लोकतंत्रों में, खास तौर पर पश्चिमी देशों में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बहुत व्यापक व्याख्या की जाती है। लोगों को अपनी असहमति को खुलकर व्यक्त करने के लिए बहुत छूट है।
- हालाँकि, अधिकांश देशों (उदार लोकतंत्रों सहित) में किसी न किसी प्रकार की सेंसरशिप लागू है, जिनमें से अधिकांश मानहानि, घृणास्पद भाषण आदि से संबंधित हैं।
- सेंसरशिप के पीछे आम तौर पर विचार देश में कानून और व्यवस्था की समस्याओं को रोकना है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चार औचित्य हैं:
- खुली चर्चा द्वारा सत्य की खोज के लिए।
- यह आत्म-पूर्ति और विकास का एक पहलू है।
- विश्वासों और राजनीतिक दृष्टिकोण को व्यक्त करना।
- लोकतंत्र में सक्रिय रूप से भाग लेना।
भारत का संविधान नागरिकों को प्रतिशोध के भय के बिना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, लेकिन इसका जिम्मेदारीपूर्ण उपयोग अनिवार्य है।
सोशल मीडिया पर अधिकार
- त्रिपुरा उच्च न्यायालय ने माना कि सोशल मीडिया पर पोस्ट करना मौलिक अधिकार के समकक्ष है।
- त्रिपुरा उच्च न्यायालय ने माना है कि सोशल मीडिया पर पोस्ट करना वस्तुतः एक मौलिक अधिकार के समान है जो सरकारी कर्मचारियों सहित सभी नागरिकों पर लागू होता है।
- इसने यह भी कहा कि सरकारी कर्मचारी त्रिपुरा सिविल सेवा (आचरण) नियम, 1988 के तहत लगाए गए प्रतिबंधों के अधीन अपनी राजनीतिक मान्यताओं को रखने और व्यक्त करने के हकदार हैं।
- एक अन्य महत्वपूर्ण फैसले में, त्रिपुरा उच्च न्यायालय ने पुलिस को उस कार्यकर्ता पर मुकदमा चलाने से परहेज करने का आदेश दिया, जिसे सोशल मीडिया पोस्ट पर गिरफ्तार किया गया था, जिसमें उसने नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), 2019 के समर्थन में एक ऑनलाइन अभियान की आलोचना की थी और लोगों को इसके खिलाफ चेतावनी दी थी। उच्च न्यायालय ने माना कि ये आदेश भारतीय संविधान के मूल तत्व के अनुरूप हैं।
द्वेषपूर्ण भाषण (Hate Speech)
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ऐसे भाषणों पर प्रतिबंध लगाने से पहले संदर्भ, वक्ता की स्थिति, पीड़ित की स्थिति और प्रभाव का मूल्यांकन जरूरी है।
- विधि आयोग ने इस पर संसद को दिशा-निर्देश देने को कहा।
सूचना का अधिकार
- सूचना का अधिकार अनुच्छेद 19(1) के तहत एक मौलिक अधिकार है। सूचना प्राप्त करने के अधिकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से निकाला गया है। हालाँकि, आरटीआई को आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम तक विस्तारित नहीं किया गया है।
निष्कर्ष
- भारत का संविधान नागरिकों को बिना डर के अपनी बात कहने की स्वतंत्रता देता है, जो किसी भी लोकतंत्र की आत्मा होती है। हालांकि, अनुच्छेद 19(2) के तहत इस स्वतंत्रता पर कुछ युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं, लेकिन ऐसे प्रतिबंध लोकतांत्रिक मर्यादाओं के भीतर होने चाहिए।
- कर्नाटक मिसइन्फॉर्मेशन एंड फेक न्यूज (निषेध) विधेयक, 2025 आलोचनाओं को दबाने और सरकारी नियंत्रण बढ़ाने का प्रयास प्रतीत होता है। यह विधेयक संवैधानिक मूल्यों, प्रेस की स्वतंत्रता, और राजनीतिक असहमति के अधिकार पर चोट करता है।
- Shreya Singhal बनाम भारत सरकार (2015) के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही यह स्पष्ट किया है कि सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सीधा हमला है।
- ऐसे में, यह विधेयक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कमजोर करता है, और इसे एक प्रकार की डिजिटल इमरजेंसी के रूप में देखा जा रहा है। यदि इसे लागू किया जाता है, तो यह न केवल संविधान की आत्मा के विरुद्ध होगा, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक ताने-बाने को भी नुकसान पहुँचा सकता है।
- इसलिए, किसी भी “फेक न्यूज” विरोधी पहल को स्वतंत्र, निष्पक्ष और विशेषज्ञ आधारित तंत्र के माध्यम से संचालित किया जाना चाहिए, न कि सरकारी नियंत्रण वाले प्राधिकरण के माध्यम से।