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कार्ल मार्क्स, पुस्तक : गुंडरिसे, दास कैपिटल, द जर्मन आइडियोलॉजी

गुंडरिसे (Grundrisse)

1857–58 में लिखी गई नोटबुक्स का संग्रह है। इसे मार्क्स ने अपनी मुख्य पुस्तक दास कैपिटल (Capital) की तैयारी के तौर पर लिखा था। लंबे समय तक यह ग्रंथ छुपा रहा और 20वीं सदी में ही व्यापक रूप से प्रकाशित हुआ। आज इसे मार्क्सवादी अध्ययन का “प्रयोगशाला” कहा जाता है, क्योंकि इसमें मार्क्स अपने विचारों को कच्चे रूप में प्रस्तुत करते हैं।

Grundrisse का मुख्य विचार (Core Idea)

1. पूँजीवाद शोषण पर आधारित है
मजदूर अपनी मेहनत (श्रम) से जितना उत्पादन करता है, उसका पूरा फल उसे नहीं मिलता।
अतिरिक्त हिस्सा (अधिशेष मूल्य) पूँजीपति ले लेता है। यही पूँजीवाद का असली शोषण है।
2. उत्पादन का तरीका समाज को तय करता है
समाज की संरचना और विचारधारा उत्पादन के तरीके से जुड़ी होती है।
यानी जो वर्ग उत्पादन के साधन (machines, factories, जमीन, capital) पर नियंत्रण रखता है, वही समाज पर हावी रहता है।
3. इतिहास का आधार भौतिक जीवन है
मार्क्स का मानना था कि इतिहास का विकास विचारों से नहीं, बल्कि आर्थिक ढाँचे से होता है।
जैसे-जैसे उत्पादन की तकनीक और साधन बदलते हैं, वैसे-वैसे समाज और राजनीति भी बदलती है।
4. पूँजीवाद अपने ही विरोधाभास से टूटेगा
पूँजीवादी व्यवस्था लगातार असमानता और संकट पैदा करती है।
मजदूर वर्ग (प्रोलितारियात) और पूँजीपति वर्ग (बुर्जुआजी) का संघर्ष बढ़ते-बढ़ते अंततः पूँजीवाद को समाप्त कर देगा।
5. भविष्य: वर्गहीन समाज
मार्क्स का अंतिम सपना एक ऐसा समाज था जिसमें उत्पादन सबके लिए हो, किसी एक वर्ग के मुनाफ़े के लिए नहीं।
यही साम्यवाद (Communism) की ओर यात्रा है।

“Das Kapital”

“Das Kapital” कार्ल मार्क्स द्वारा लिखा गया एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमें पूंजीवाद (Capitalism) की गहरी आलोचना की गई है। यह पुस्तक समझाने की कोशिश करती है कि पूंजीवादी व्यवस्था कैसे काम करती है, कैसे यह श्रमिकों (workers) का शोषण करती है, और क्यों यह व्यवस्था टिकाऊ (sustainable) नहीं है।

1. पूंजीवाद एक ऐतिहासिक व्यवस्था है, प्राकृतिक नहीं

मार्क्स कहते हैं कि पूंजीवाद कोई हमेशा से रही व्यवस्था नहीं है। यह मध्यकालीन यूरोप में जमींदारी व्यवस्था (feudalism) के खत्म होने के बाद धीरे-धीरे विकसित हुआ। जैसे समाज बदला है, वैसे ही भविष्य में पूंजीवाद भी बदलेगा और एक नई व्यवस्था आएगी।

2. मूल्य का स्रोत: श्रम (Labor)

मार्क्स के अनुसार किसी भी चीज़ का असली मूल्य उस पर लगाए गए श्रम (मेहनत) से तय होता है। यानी, जो मजदूर मेहनत करता है, वही असल में चीज़ का मूल्य बनाता है।

लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था में मज़दूर को उसकी मेहनत का पूरा फल नहीं मिलता। उसके काम से जो मुनाफा (profit) होता है, वो पूंजीपति (capitalist) रख लेता है।

3. मजदूर का शोषण और अजनबीपन‘ (Alienation)

मज़दूर जो चीज़ बनाता है, उस पर उसका कोई अधिकार नहीं होता।
उसे बस थोड़ा वेतन मिलता है, लेकिन असली फायदा मालिक (capitalist) को होता है।
इस प्रक्रिया में मज़दूर खुद को, अपने काम को और समाज को पराया महसूस करने लगता है – इसे मार्क्स “Alienation” कहते हैं।

4. पूंजीपति का उद्देश्य: सरप्लस वैल्यू‘ (Surplus Value)

पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन (Production) का उद्देश्य लोगों की ज़रूरत पूरी करना नहीं, बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमाना होता है।
यह मुनाफा मजदूर की मेहनत से पैदा होता है, लेकिन उसका मालिक इस पूरे लाभ को हड़प लेता है। इसे “Surplus Value” कहा जाता है।

5. तकनीक का दुरुपयोग

मार्क्स बताते हैं कि तकनीक और मशीनें काम को आसान बना सकती थीं, लेकिन पूंजीवाद में इनका इस्तेमाल मजदूरों से और ज़्यादा काम करवाने के लिए किया गया:

14-14 घंटे की शिफ्ट
खराब और खतरनाक काम करने की स्थिति
बच्चों से काम करवाना
शिक्षा, आराम और सामाजिक जीवन की कमी

6. पूंजीवाद: इंसानी जीवन की बर्बादी

मार्क्स कहते हैं कि पूंजीवाद मानव जीवन की “बेरोकटोक बर्बादी” करता है। मजदूरों को कम वेतन, खराब स्वास्थ्य, बुरा रहन-सहन और कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती। फिर भी, उनका काम पूरे समाज को चलाता है — लेकिन लाभ सिर्फ कुछ अमीरों को मिलता है।

7. उम्मीद की किरण: सामूहिक संगठन

हालांकि पूंजीवाद में मजदूरों का शोषण होता है, लेकिन मार्क्स को उम्मीद है कि:

जैसे-जैसे उद्योग बढ़ते हैं, मजदूर मिलकर काम करने लगते हैं।
इससे उनमें एकजुट होने की भावना आती है।
वे संगठन बना सकते हैं, हक के लिए लड़ सकते हैं।
और एक दिन वे पूरी उत्पादन प्रणाली (means of production) पर खुद नियंत्रण हासिल कर सकते हैं।

8. भविष्य की व्यवस्था: समाजवाद / साम्यवाद

मार्क्स को विश्वास है कि जब मजदूर संगठित होंगे और पूंजीपतियों को चुनौती देंगे, तब एक नई आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था आएगी।
इसमें:

उत्पादन का नियंत्रण मजदूरों के हाथ में होगा।
लाभ सबके लिए होगा, सिर्फ अमीरों के लिए नहीं।
मेहनत और जीवन का सम्मान होगा, न कि सिर्फ मुनाफे का।

The German Ideology

“The German Ideology” एक बुनियादी ग्रंथ है जिसमें मार्क्स और एंगेल्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद (historical materialism) की अवधारणा पेश की है। उन्होंने उस समय के जर्मन विचारकों विशेष रूप से जर्मन आदर्शवादियों और फिलोसोफर लुडविग फेयेरबाख की आलोचना की कि वे इतिहास और समाज को विचारों (ideas), चेतना (consciousness), दर्शन (philosophy) के माध्यम से समझने की कोशिश करते हैं, न कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी और आर्थिक स्थितियों से।

मुख्य बिंदु

1. भौतिक जीवन की स्थिति (Material Conditions) तय करती है समाज की संरचना
समाज की संस्कृति, राजनीति, धर्म, कानून आदि जो “अभिव्यक्तियाँ” हैं (superstructure), उनका आधार वह आर्थिक आधार (base) है जिसमें लोग रहते हैं कैसे उत्पादन करते हैं, ज़रूरतें कैसी हैं, संसाधन कैसे हैं आदि।
2. उत्पादन के साधन और उत्पादन का तरीका (means and modes of production) ज़रूरी हैं
कैसे किसी समाज में लोग अपनी ज़रूरतों को पूरा करते हैं खेती, हस्तशिल्प, उद्योग, मशीनरी, श्रम विभाजन आदि यही उत्पादन के साधन और तरीके होते हैं। ये समय के साथ बदलते हैं, और जब ये बदलते हैं, तो समाज में बड़ी सामाजिक परिवर्तन होती है।
3. वर्ग संरचना (Class Structure) और संघर्ष (Class Struggle)
उत्पादन के तरीके जितने अधिक जटिल होते हैं, उतनी ही ज्यादा विभाजन होते है भूमि मालिक, मेहनतकश मजदूर, व्यापारी, पूंजीपति आदि। उन लोगों का समूह जो उत्पादन के साधन के मालिक नहीं हैं, उन्हें मजदूर कहा जाता है। वहाँ से उत्पन्न होता है संघर्ष — मालिकों और मजदूरों के बीच क्योंकि मालिक उपयुक्त मुनाफा (surplus) चाहते हैं, मजदूर उनका श्रम करते हैं पर लाभ कम या सीमित मिलता है।
4. चेतना (Consciousness) कहलाती है आर्थिक जीवन से प्रभावित
विचार, धर्म, दर्शन आदि “विचारों की दुनिया” (ideology) हैं लेकिन ये स्वतंत्र नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक जीवन की स्थितियों का प्रतिबिंब हैं। जो लोग सामाजिक-सांस्कृतिक शक्तियों (cultural powers) में हैं साधन उत्पादन के मालिक,वे अपनी विचारधाराएँ इस तरह से गढ़ते हैं कि उनकी सामाजिक श्रेष्ठता, उनका आधिपत्य (domination) सामान्य या स्वाभाविक लगे।
5. विचारकों की आलोचना
मार्क्स और एंगेल्स ने विशेष रूप से जर्मन आदर्शवाद (German Idealism) और फेयेरबाख की भाषा में विचारों के महत्व पर जो ज़ोर था, उसकी आलोचना की। उनका कहना था कि विचार-विचारधाराएँ अगर भौतिक परिस्थितियों से अलग हों तो समाज की वास्तविकता को नहीं समझ सकते। वास्तविकता को समझने के लिए यह जरूरी है कि लोग देखें कि लोग कैसे जीविका कमाते हैं, कैसे संसाधन बाँटते हैं, कैसे श्रम विभाजन होता है।
6. परिवर्तन और क्रिया (Praxis) की भूमिका
केवल विचार करना पर्याप्त नहीं है। यह ज़रूरी है कि लोग अपने भौतिक जीवन की स्थितियों को बदलने के लिए क्रियाशील हों आंदोलन करें, सामाजिक परिवर्तन की दिशा में काम करें। विचार को जीवन से जोड़ना (theory + practice) बहुत महत्वपूर्ण है।

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