
भारत में कॉलेजियम के कार्यप्रणाली में कथित तौर पर दो महत्वपूर्ण परिवर्तनसामने आए है। जो न्यायिक स्वतंत्रता एवं सरकार की भूमिका को पुन: विवादके घेरे में खड़ा कर रहा है। कॉलेजियम उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों कीनियुक्ति और स्थानांतरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ये परिवर्तनपारदर्शिता और विविधता को बढ़ावा देने की क्षमता रखता है परन्तु यह व्यापकचुनौतियों से घिरा हुआ है। कॉलेजियम प्रणाली एक ऐसी प्रक्रिया है जिसकेमाध्यम से भारत में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों कीनियुक्ति की जाती है। इस प्रक्रिया में मुख्य न्यायाधीश (CJI) और वरिष्ठन्यायाधीश शामिल होते हैं, जो नए न्यायाधीशों की सिफारिश करते हैं। यहन्यायपालिका की स्वतंत्र भूमिका को स्पष्ट करते हुए इस प्रक्रिया में सरकारकी कार्यकारी और विधायी शाखाओं का न्यूनतम हस्तक्षेप सुनिश्चित करने कापूर्ण प्रयास करता है।
प्रस्तावित नए बदलाव
1. उम्मीदवारों का साक्षात्कार: सुप्रीम कोर्ट ने तय किया है कि उच्चन्यायालय के न्यायाधीश बनने के लिए सिफारिश किए गए उम्मीदवारोंका साक्षात्कार किया जाएगा।
2. रिश्तेदारों का चयन न करना: यह सुनिश्चित किया जाएगा किउम्मीदवारों के नजदीकी रिश्तेदार जो पहले से जज हैं, उन्हें प्राथमिकतान दी जाए।
परन्तु ऐसा होने से कुछ योग्य उम्मीदवार इससे वंचित हो सकते हैं, लेकिन इसकदम का उद्देश्य न्यायपालिका में विविधता लाना है।
इन परिवर्तनों के बारे में मुख्य चिंता क्या है?
1. अपनी क्षमता के बावजूद, इन सुधारों का प्रभाव सीमित हो सकता है, जब तक कि सरकार मनमाने ढंग से कॉलेजियम की सिफारिशों कोरोकना बंद नहीं कर देती।
2. सरकार द्वारा की जाने वाली देरी या अस्वीकृति, प्रायः बिना बताए, सुधारों की प्रभावशीलता को कमजोर करती है।
न्यायिक नियुक्तियों में कॉलेजियम प्रणाली क्या है?
कॉलेजियम न्यायाधीश द्वारा निर्मित कानून का एक उत्पाद है। जो उच्चन्यायपालिका में न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरण करता है। इस प्रणालीको 1993 के “दूसरे जज केस“ (“सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स–ऑन–रिकॉर्डएसोसिएशन बनाम भारत संघ“) के तहत लागू किया गया था। “दूसरे जजकेस” ने भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को पूरी तरह से बदलदिया। इसने न्यायपालिका को अधिक शक्ति दी और सरकार के प्रत्यक्षहस्तक्षेप को खत्म किया। हालांकि, इसने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को तोसुरक्षित किया, लेकिन इसके पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी नेसमय–समय पर विवाद और आलोचनाएं उत्पन्न कीं है।
कॉलेजियम प्रणाली की पृष्ठभूमि
1. कॉलेजियम युग से पहले (1947-1981): शुरू में, नियुक्तियाँ मुख्य रूप सेभारत के राष्ट्रपति का विशेषाधिकार थीं, जो मंत्रिपरिषद की सिफारिशों परआधारित थीं। न्यायपालिका काफी हद तक कार्यकारी अनुमोदन पर निर्भरथी।
2. कॉलेजियम प्रणाली की स्थापना (1981-1993): तीन न्यायाधीशों केमामलों के रूप में जाने जाने वाले ऐतिहासिक निर्णयों की एक श्रृंखला केमाध्यम से, न्यायपालिका ने कॉलेजियम प्रणाली की स्थापना करके अपनीस्वायत्तता को सुनिश्चित किया
• पहला जज केस (1981): पहले जज केस (S.P. Gupta बनाम भारतसंघ) में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया, कि न्यायाधीशों की नियुक्ति मेंराष्ट्रपति (कार्यपालिका) की भूमिका प्रधान होगी। इसका अर्थ था, किन्यायाधीशों की नियुक्ति और पदोन्नति में कार्यपालिका (सरकार) कोअधिक शक्ति दी गई।
• दूसरा जज केस (1993): इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पहले जज केसके फैसले को पलट दिया। न्यायपालिका ने कहा कि संविधान केअनुच्छेद 124 और 217 के तहत न्यायाधीशों की नियुक्ति में “परामर्श” (Consultation) का अर्थ कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीचसहयोग है, लेकिन इसमें अंतिम निर्णय न्यायपालिका का होगा। सुप्रीमकोर्ट के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश (CJI) की सलाह सर्वोपरि होगी।मुख्य न्यायाधीश को अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों के साथ परामर्शकरना होगा। इस प्रक्रिया ने सरकार की नियुक्तियों पर प्रत्यक्ष नियंत्रणसमाप्त कर दिया। संविधान में भी “परामर्श” शब्द का मतलब“सहमति” के रूप में व्याख्यायित किया गया है। जिसका अर्थ है किन्यायपालिका की सिफारिशों को मानना सरकार के लिए बाध्यकारीहोगा। अंत: इस फैसले का उद्देश्य न्यायपालिका को राजनीतिक दबावोंऔर कार्यपालिका के हस्तक्षेप से मुक्त रखना था।
• तृतीय जज केस (1998): कॉलेजियम प्रणाली की संरचना औरकार्यप्रणाली को स्पष्ट किया।
• चतुर्थ जज केस (2014): कॉलेजियम प्रणाली को बदलने के लिएराष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) की स्थापना का प्रयासकिया गया। NJAC ने पारदर्शिता बढ़ाने और प्रक्रिया में कार्यपालिकाको शामिल करने की मांग की। लेकिन 2015 में, सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिकस्वतंत्रता की आवश्यकता पर बल देते हुए NJAC अधिनियम कोअसंवैधानिक घोषित कर दिया।
न्यायाधीशों की नियुक्ति के सन्दर्भ में संविधान सभा का दृष्टिकोण
संविधान सभा में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सरकार के साथ संतुलनबनाने के लिए “मध्य मार्ग” अपनाने का विचार था। न्यायाधीशों की नियुक्तिके लिए राष्ट्रपति को मुख्य न्यायाधीश और अन्य संबंधित व्यक्तियों सेपरामर्श करने का सुझाव दिया गया।
क्या कॉलेजियम के पास वास्तविक अधिकार हैं?
1. सरकार सिफारिशों को अनिश्चित काल तक लंबित रखकर या राष्ट्रपतिके वारंट जारी करने पर रोक लगाकर विलंबित या अवरुद्ध कर सकतीहै।
2. यद्यपि सैद्धांतिक रूप से कॉलेजियम को प्राथमिकता प्राप्त है, लेकिननिर्णयों को रोकने की सरकार की क्षमता इसके अधिकार को कमजोरकरती है, तथा न्यायपालिका की संवैधानिक रूप से संरक्षित स्वतंत्रताका खंडन करती है।
कोलेजियम प्रणाली की कमिया
• कोलेजियम प्रणाली को अक्सर पारदर्शिता की कमी और जवाबदेही केअभाव के लिए आलोचना झेलनी पड़ती है।
• कार्यपालिका को पूरी तरह से प्रक्रिया से बाहर करना, “न्यायपालिकाद्वारा आत्मनियमन” (Self-Regulation by Judiciary) का मामला बनजाता है। जिसके कारण शक्ति का केंद्रीकरण बढ़ने की आशंका रहतीहै।
• सरकार कई बार सिफारिशों को रोकने या अनदेखा करने के लिएप्रक्रियाओं का दुरुपयोग करती है, जिससे नियुक्तियों में देरी होती है।
• प्रणाली में मूल्यांकन के लिए औपचारिक मानदंडों का अभाव है, जिससेपक्षपात और भाई–भतीजावाद की बढ़ सकता है।
• इसमें न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए लिखित नियम नहीं थे। औरइनके निर्णय सार्वजनिक या संसदीय जांच के लिए खुले नहीं होते।संरचित ढांचे की अनुपस्थिति के कारण निर्णय लेने में असंगतताएँ आईहैं।
कॉलेजियम प्रणाली में सुधार क्यों आवश्यक है?
1. बाध्यकारी नियमों और औपचारिक जवाबदेही का अभाव कॉलेजियमकी अखंडता को कमजोर करता है, जिससे न्यायिक स्वतंत्रता मेंपारदर्शी, नियम–आधारित प्रणाली अनिवार्य हो जाती है।
2. सरकार की निष्क्रियता या मनमाने ढंग से की गई देरी न्यायिक प्रक्रियाको बाधित करती है और कानून के शासन का उल्लंघन करती है।हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने देरी पर सवाल उठाए हैं, लेकिन टकराव कोरोकने के लिए सीधे आदेश जारी करने से परहेज किया जाता रहा है।
सुधार के लिए सार्थक सुझाव
• जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए कॉलेजियम की सिफारिशों कापालन किया जाना चाहिए।
• राज्य की सभी शाखाओं को प्रणाली की अखंडता बनाए रखने के लिएमिलकर काम करना चाहिए।
• पारदर्शिता और स्थिरता बढ़ाने के लिए तदर्थ प्रक्रियाओं के स्थान परस्पष्ट, बाध्यकारी नियमों को अपनाया जाना चाहिए।
• नियुक्तियों के लिए संरचित मानदंड पेश करें और पारदर्शिता बढ़ायाजाये।
• सुचारू कामकाज के लिए न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीचबेहतर संचार को बढ़ावा देना चाहिए।
निष्कर्ष
परिणामस्वरूप यह कहा जा सकता है, की कोलेजियम प्रणाली, भारतीयलोकतंत्र की एक अनूठी विशेषता है, जिस पर अक्सर बहस होती रहती है।हालाँकि न्यायिक स्वतंत्रता को जवाबदेही के साथ संतुलित करना भारत कीन्यायपालिका के लिए एक प्रमुख चुनौती बनी हुई है। कोलेजियम प्रणाली मेंसुधार की आवश्यकता है, लेकिन यह तभी संभव होगा जब सरकार बिनाकिसी मनमानी के प्रक्रिया का पालन करे। इसके बिना, न्यायपालिका कीस्वतंत्रता और संविधान के मूल ढांचे को खतरा हो सकता है। लेकिन यह भीउतना ही सच है कि कॉलेजियम प्रणाली में कोई भी सुधार केवल तभी आगेबढ़ेगा, जब सरकार को भी मनमाने और अज्ञात आधार पर प्रस्तावों को बाधितकरने की अनुमति दी जाए।