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क्यों जरुरी है न्यायालय और सरकार के बीच संतुलन

न्यायालय V/S सरकार

 

पिछले कुछ दिनों से सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच कोलेजियम प्रणाली को लेकर विवाद चल रहा है। सरकार का मानना है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता और जवाबदेही होनी चाहिए, जबकि सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि कार्यपालिका का हस्तक्षेप न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करेगा। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 370 की समीक्षा और चुनाव आयोग की स्वतंत्रता जुड़े फैसले सुनाए हैं, जिन पर सरकार की असहमति रही है।

लोकतंत्र में न्यायपालिका और कार्यपालिका (सरकार) के बीच शक्ति संतुलन एक महत्वपूर्ण विषय है। यह संतुलन शासन प्रणाली को स्थायित्व प्रदान करता है और नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करता है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता एक ऐसा स्तंभ है, जो संविधान की आत्मा को जीवित रखता है और यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी सत्ता निरंकुश न हो। प्रस्तुत लेख में हम न्यायपालिका और सरकार के बीच शक्ति संतुलन, उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, संवैधानिक उपबंधों और वर्तमान मुद्दों पर विस्तृत चर्चा करेंगे।

न्यायपालिका और कार्यपालिका

भारत के संविधान के तहत सरकार (कार्यपालिका) और न्यायपालिका के अधिकार और कर्तव्य स्पष्ट रूप से परिभाषित किए गए हैं। जहां कार्यपालिका नीतियों का निर्माण और क्रियान्वयन करती है, वहीं न्यायपालिका इन नीतियों की संवैधानिकता की समीक्षा करती है।

संविधानिक अनुच्छेद और शक्ति विभाजन

संविधान के अनुच्छेद 50 के अनुसार, राज्य की नीति के निदेशक तत्वों में स्पष्ट रूप से कार्यपालिका और न्यायपालिका के पृथक्करण की बात कही गई है। इसके अलावा, निम्नलिखित अनुच्छेद न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करते हैं;

  1. अनुच्छेद 124-147: भारतीय सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित प्रावधान।
  2. अनुच्छेद 214-231: उच्च न्यायालयों से संबंधित प्रावधान।
  3. अनुच्छेद 32 और 226: नागरिकों को मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए विशेष शक्तियां प्रदान करता है।
  4. अनुच्छेद 142: न्यायिक आदेशों को लागू करने की शक्ति देता है।

इस प्रकार, संविधान न्यायपालिका को पूरी स्वतंत्रता देता है, जिससे वह सरकार के अनुचित हस्तक्षेप को रोक सके।

न्यायिक स्वतंत्रता पर हस्तक्षेप का ऐतिहास

भारत में कई ऐसे ऐतिहासिक अवसर आए हैं, जब सरकार ने न्यायपालिका के अधिकारों को चुनौती दी है। कुछ प्रमुख घटनाएं निम्नलिखित हैं;

आपातकाल (1975-77) और न्यायपालिका पर प्रभाव

1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित हुई थी। कई जजों पर दबाव बनाया गया, और “ADM जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला” मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि आपातकाल के दौरान नागरिक मौलिक अधिकारों का दावा नहीं कर सकते। यह निर्णय न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए एक काला अध्याय माना जाता है।

कोलेजियम प्रणाली और NJAC विवाद

न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए 1993 में कोलेजियम प्रणाली लागू की गई, जिसके तहत न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण का अधिकार केवल न्यायपालिका के पास रहा। हालांकि, सरकार ने 2014 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) अधिनियम लाकर इसमें हस्तक्षेप करने का प्रयास किया, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर दिया।

न्यायिक सक्रियता बनाम न्यायिक संयम

न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए “न्यायिक सक्रियता” (Judicial Activism) और “न्यायिक संयम” (Judicial Restraint) की अवधारणाएं महत्वपूर्ण हैं।

न्यायिक सक्रियता के उदाहरण

  1. विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) – इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ दिशा-निर्देश जारी किए।
  2. केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) – इस मामले में “मूल संरचना सिद्धांत” प्रतिपादित किया गया, जिससे संविधान के बुनियादी ढांचे की रक्षा हुई।
  3. मनोज नारूला बनाम भारत संघ (2014) – सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त रुख अपनाया और साफ-सुथरी राजनीति की वकालत की।

न्यायिक संयम के महत्व

हालांकि न्यायिक सक्रियता आवश्यक है, परंतु कई बार न्यायपालिका को सरकार के क्षेत्राधिकार में अनावश्यक हस्तक्षेप से बचना चाहिए। इससे संविधान का शक्ति संतुलन बना रहता है और शासन की प्रक्रिया सुचारू रूप से चलती रहती है।

वर्तमान विवाद और सुधार

न्यायपालिका और सरकार के बीच टकराव

  1. न्यायिक नियुक्तियों को लेकर विवाद – 2023 में सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर मतभेद सामने आए, जहां सरकार कोलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता की मांग कर रही थी।
  2. लोकपाल और जनहित याचिकाएं – सरकार कई बार लोकपाल अधिनियम को लागू करने में देरी करती रही, जिसे न्यायपालिका ने दखल देकर लागू करवाया।

सुधार की संभावनाएं

  1. कोलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता – न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता लाने की जरूरत है।
  2. न्यायपालिका में जवाबदेही – न्यायाधीशों की कार्यशैली और भ्रष्टाचार की जांच के लिए एक स्वतंत्र आयोग बनाया जा सकता है।
  3. सरकार और न्यायपालिका के बीच संवाद बढ़ाना – दोनों संस्थानों को संवैधानिक दायरे में रहते हुए आपसी समन्वय से निर्णय लेने चाहिए।

न्यायपालिका के बारे में विचारको के कथन  

न्यायपालिका के बारे में प्रसिद्ध कथन

  1. न्याय में देरी न्याय से इनकार के समान है।-विलियम ग्लैडस्टोन (William E. Gladstone)
  2. न्याय न केवल होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए।-लॉर्ड हेविट (Lord Hewart)
  3. कानून अंधा हो सकता है, लेकिन न्याय अंधा नहीं होना चाहिए।-एडमंड बर्क (Edmund Burke)
  4. न्यायपालिका लोकतंत्र की अंतिम रक्षक है।-डॉ. भीमराव अंबेडकर
  5. न्याय वही होता है जो कानून और नैतिकता दोनों को संतुलित रखे।-अरस्तू (Aristotle)
  6. न्यायपालिका की स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र की आत्मा है।-अलेक्जेंडर हैमिल्टन (Alexander Hamilton)
  7. कानून की अदालत को केवल कानून की रक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि न्याय की भावना को भी बनाए रखना चाहिए।-सोक्रेटीस (Socrates)
  8. एक राष्ट्र की महानता इस बात से आंकी जाती है कि वहां के न्यायालय कितने स्वतंत्र और निष्पक्ष हैं।-महात्मा गांधी
  9. अगर न्यायपालिका निष्पक्ष और स्वतंत्र नहीं होगी, तो लोकतंत्र का पतन निश्चित है।-जस्टिस वी.आर. कृष्णा अय्यर
  10. न्याय का सबसे बड़ा उद्देश्य समाज में विश्वास बनाए रखना है।-बेंजामिन डिजरायली (Benjamin Disraeli)

ये सभी कथन न्यायपालिका की महत्ता, उसकी स्वतंत्रता और न्याय की निष्पक्षता को उजागर करते हैं।

निष्कर्ष

न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति संतुलन लोकतंत्र की आधारशिला है। यदि सरकार न्यायपालिका के अधिकारों का सम्मान करे और न्यायपालिका अपनी सीमाओं में रहते हुए न्यायिक समीक्षा करे, तो यह संतुलन लंबे समय तक बना रह सकता है। भारत में यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि न्यायपालिका स्वतंत्र रहे और सरकार किसी भी प्रकार के न्यायिक हस्तक्षेप से बचे, ताकि देश में सच्चा और निष्पक्ष न्याय कायम रह सके। सरकार और न्यायपालिका के बीच यह शक्ति संघर्ष सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि कई लोकतांत्रिक देशों में देखा जाता है। सवाल यह है कि क्या सरकार न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सीमित करना चाहती है, या फिर न्यायपालिका को और अधिक पारदर्शी बनाया जाना चाहिए?

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