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चुनाव आयोग : संविधान,कानून बनाम राजनीतिक हित

भारतीय लोकतंत्र का आधार स्तंभ चुनाव है। यही वह साधन है जिसके माध्यम से जनता स्वयं को शासित करने वालों का चयन करती है। आज़ादी के तुरंत बाद ही संविधान निर्माताओं ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि देश में आयोजित होने वाले चुनाव स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी हों। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारतीय चुनाव आयोग को एक उच्च संवैधानिक संस्था के रूप में स्थापित किया गया। अनुच्छेद 324 के अंतर्गत आयोग को व्यापक अधिकार तो दिए गए, पर उनसे भी बड़ी अपेक्षा उसकी निष्पक्षता और तटस्थता की रही है। लेकिन हाल के घटनाक्रमों ने आयोग की भूमिका और सीमाओं को लेकर गंभीर बहस को जन्म दे दिया है। यह बहस केवल किसी एक राजनीतिक व्यक्ति या दल के इर्द-गिर्द नहीं घूमती, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की जड़ों से जुड़ी है।  

हाल ही में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक प्रेस वार्ता में बंगलुरु की महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र से संबंधित मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर गड़बड़ियों का आरोप लगाया। प्रस्तुत उदाहरणों में एक ही पते पर अनेक मतदाताओं के पंजीकरण, मतदाता सूचियों में “xyz” जैसे काल्पनिक नामों का उल्लेख और घर नंबर शून्य जैसी प्रविष्टियाँ शामिल थीं। इन आरोपों के पीछे महीनों की जांच और चुनाव आयोग के आधिकारिक दस्तावेजों की समीक्षा का दावा किया गया था। यदि ये आरोप सही साबित होते हैं तो यह केवल तकनीकी त्रुटि नहीं, बल्कि लोकतंत्र की मूल आत्मा पर आघात है। क्योंकि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव केवल एक आदर्श स्थिति नहीं, बल्कि संविधान के मूल संरचना का अनिवार्य हिस्सा है।  

ऐसी स्थिति में अपेक्षा थी कि चुनाव आयोग इन आपत्तियों को गंभीरता से लेता, तथ्यों की गहराई से जांच करता और जनता को एक विश्वासपूर्ण संदेश देता। इसके विपरीत, 17 अगस्त 2025 को आयोजित प्रेस वार्ता में मुख्य चुनाव आयुक्त द्वारा राहुल गांधी से शपथ पत्र देने या सार्वजनिक माफी माँगने की मांग ने स्थिति को और पेचीदा बना दिया। इस जवाब ने न केवल आरोपों की मूल गंभीरता को दबा दिया, बल्कि आयोग की तटस्थता पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया। एक ओर जहां आयोग का संवैधानिक दायित्व राजनीतिक दलों के ऊपर खड़े एक निष्पक्ष निर्णायक का है, वहीं यह प्रतिक्रिया उसे प्रत्यक्षतः एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के स्वरूप में प्रस्तुत करती है।  

यह परिस्थिति असल में संवैधानिक दायित्व के उल्लंघन की ओर संकेत करती है। अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग को चुनावों की शुचिता बनाए रखने के लिए व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार ‘लोकतंत्र के प्रहरी’ की संज्ञा दी है। किंतु शक्तियों का प्रयोग विवेकपूर्ण और पारदर्शी ढंग से होना चाहिए। जब आयोग किसी राजनीतिक आलोचना पर कानूनी दांव-पेंच या अल्टीमेटम के माध्यम से प्रतिक्रिया देता है, तो वह न केवल अपने अधिकार क्षेत्र से परे जाता है, बल्कि अपनी विश्वसनीयता और वैधानिक आधार भी कमजोर करता है। लोकतांत्रिक संस्थाओं का भरोसा केवल उनके आदेशों की वैधता से नहीं, बल्कि उनके आचरण की निष्पक्षता से बनता है।  

इस संदर्भ में प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की कानूनी रूपरेखा अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह अधिनियम मतदाता सूची के निर्माण और संशोधन की स्पष्ट प्रक्रियाएँ प्रदान करता है—वार्षिक संशोधन, सार्वजनिक सत्यापन और आपत्तियों के समाधान की व्यवस्था इसी का हिस्सा हैं। किंतु हाल की घटनाएँ दिखाती हैं कि इन प्रक्रियाओं को व्यवहार में दरकिनार करना कितना आसान हो सकता है। प्रश्न केवल यह नहीं कि सूची में त्रुटि है, बल्कि यह कि जब व्यवस्था की जड़ ही कमजोर हो, तो लोकतांत्रिक नींव कितनी स्थिर रह पाएगी।  

इस संदर्भ में बिहार में चल रही विशेष मतदाता सूची संशोधन प्रक्रिया और भी चिंता का विषय है। चुनाव आयोग ने ‘स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन’ के नाम से एक नई प्रक्रिया आरंभ की, जबकि न तो अधिनियम और न ही नियमावली में ऐसी किसी श्रेणी का उल्लेख है। इसके साथ ही आयोग ने 1 जुलाई को अर्हता तिथि घोषित कर दी, जो कि कानून द्वारा निर्धारित 1 जनवरी की तिथि के विपरीत है। परिणामस्वरूप, लाखों मतदाताओं के नाम सूची से विलोपित कर दिए गए और राज्य में भारी राजनीतिक असमंजस पैदा हुआ। इतनी कम अवधि में घर-घर सत्यापन करना व्यावहारिक रूप से असंभव था, जिसकी पुष्टि अराजक स्थिति और व्यापक शिकायतों से हुई। अंततः सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा और आयोग को हटाए गए नामों तथा उनके कारणों का विवरण सार्वजनिक करने का निर्देश देना पड़ा। इससे एक हद तक पारदर्शिता बहाल हुई, पर लोकतंत्र की संवैधानिक संस्थाओं के बीच टकराव की स्थिति भी उजागर हुई।  

यह स्थिति न्यायमूर्ति एस. मुर्तज़ा फ़ज़ल अली की 1984 के ए.सी. जोस बनाम शिवन पिल्लई मामले में दी गई चेतावनी की याद दिलाती है। उन्होंने आगाह किया था कि यदि चुनाव आयोग राजनीतिक दबावों या प्रलोभनों में आकर अपने शक्तियों का दुरुपयोग करे, तो यह राजनीतिक अराजकता और संवैधानिक संकट उत्पन्न कर सकता है। आज के परिप्रेक्ष्य में उनकी यह चेतावनी और भी प्रासंगिक हो उठी है। चुनाव आयोग को दिए गए व्यापक अधिकार संविधान ने लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए दिए हैं, न कि उसे राजनीतिक अखाड़े का हिस्सा बनाने के लिए।  

लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका केवल विरोध तक सीमित नहीं होती, बल्कि सत्ता को जवाबदेह ठहराने की संवैधानिक जिम्मेदारी भी विपक्ष पर ही है। यदि विपक्ष द्वारा उठाए गए प्रश्नों को आयोग गंभीरता से न ले और उन्हें राजनीतिक आक्षेप मान कर खारिज कर दे, तो इससे जनता में यह संदेश जाता है कि संस्थाएँ जवाबदेही से ऊपर हैं। यहता लोकतंत्र में विश्वास की सबसे बड़ी हानि है।  

इस पूरे परिदृश्य में सबसे बड़ी चुनौती संतुलन की है। एक ओर आयोग को अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए निष्पक्षता की उच्चतम कसौटी पर खरा उतरना चाहिए, वहीं दूसरा दबाव राजनीतिक शक्तियों का है जो अपने हितों के लिए संस्थाओं को विवाद के केंद्र में ला देते हैं। परंतु जब संविधान और राजनीतिक हितों के बीच टकराव हो, तो चुनाव आयोग की ‘लक्ष्मण रेखा’ स्पष्ट है—वह केवल संविधान और कानून की सीमा में रहकर ही कार्य कर सकता है। इस सीमा से बाहर जाने का अर्थ संस्थान की बुनियादी वैधता पर प्रश्न उठना है।  

वर्तमान विवाद केवल एक राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप नहीं, बल्कि लोकतंत्र के ताने-बाने को प्रभावित करने वाला गहरा संकट है। मतदाता सूची की पारदर्शिता पर उठे प्रश्न यह दर्शाते हैं कि चुनाव प्रक्रिया कितनी असुरक्षित हो सकती है। आयोग के उत्तर ने इस संकट को सुलझाने के बजाय और अधिक गहराया। बिहार की संशोधन प्रक्रिया ने यह भी दिखा दिया कि यदि संवैधानिक संस्थाएँ विधिक प्रावधानों से इतर जाकर कार्य करेंगी, तो लोकतंत्र की स्थिरता पर प्रश्नचिह्न लगना अवश्यंभावी है।  

निष्कर्षतः यह समझना होगा कि भारतीय लोकतंत्र की शक्ति केवल जन भागीदारी में नहीं, बल्कि उसको सुनियोजित और निष्पक्ष ढंग से संचालित करने वाली संवैधानिक संस्थाओं की निष्ठा पर टिकी है। चुनाव आयोग के पास संविधान और कानून की शक्ति एक सुरक्षा कवच की तरह है, जिसे वह राजनीतिक खींचतान से ऊपर रहकर ही संभाल सकता है। यदि संस्थान स्वयं राजनीतिक स्वरूप धारण करने लगे, तो लोकतांत्रिक प्रणाली की विश्वसनीयता खो जाएगी। अतः चुनाव आयोग की वास्तविक लक्ष्मण रेखा यह है कि वह केवल और केवल संविधान के अधीन कार्य करे, न कि राजनीतिक हितों के दबाव में। यही भारतीय लोकतंत्र की स्थिरता और उसकी नैतिक शक्ति का आधार है।  


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