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जनप्रतिनिधित्व अधिनियम: लोकतंत्र की मजबूती का अधिनियम

लोकतंत्र का मूल आधार स्वतःस्फूर्त और निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया है। भारत में चुनावों को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाने हेतु जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और 1951 की विशेष भूमिका रही है। संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 के अंतर्गत संसद को चुनाव प्रक्रिया को विनियमित करने का अधिकार दिया गया, जिसके आधार पर जनप्रतिनिधित्व अधिनियम अस्तित्व में आया। इन अधिनियमों ने निर्वाचन प्रक्रिया को विधिक रूप दिया, जिसमें निर्वाचन क्षेत्रों का सीमांकन, मतदाता सूची की तैयारी, उम्मीदवारों की योग्यता-अयोग्यता और चुनावी अपराधों सहित समस्त चुनावी आयामों को समाहित किया गया है।

1950 का अधिनियम मुख्यतः निर्वाचन क्षेत्रों के सीमांकन, मतदाता सूची की तैयारी और सीटों के आवंटन से संबंधित है। इसमें यह प्रावधान है कि किसी भी वयस्क नागरिक को मतदाता सूची में शामिल होने से जाति, धर्म, लिंग या नस्ल के आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता। यह प्रावधान सार्वभौमिक मताधिकार की साक्ष्य है, जिसने भारतीय लोकतंत्र को समावेशी स्वरूप प्रदान किया। निर्वाचन क्षेत्रों का सीमांकन और सीटों का आवंटन जनसंख्या के आधार पर होता है, जिससे प्रत्येक वोट का महत्व बराबर रहता है। हालांकि 1976 के बाद जनसंख्या के आधार पर सीमांकन को स्थगित कर दिया गया है, जिसके चलते वर्तमान निर्वाचन क्षेत्र 2001 की जनसंख्या के आंकड़ों पर आधारित हैं और आगामी सीमांकन 2026 के बाद ही संभव है।

1951 का अधिनियम चुनाव प्रक्रिया की रीढ़ है। इसमें संसद और विधानमंडलों के चुनाव का तंत्र, उम्मीदवारों की योग्यता, अयोग्यता, चुनावी अपराध, दलों का पंजीकरण, चुनावी खर्च सीमा और चुनावी वादों के निपटान की विस्तारपूर्वक व्यवस्था है। उम्मीदवार की योग्यता-अयोग्यता का निर्धारण न केवल शैक्षिक स्तर या आयु से, बल्कि अप्रत्याशित कार्यों, अपराध की सज़ा, भ्रष्टाचार व काला धन जैसे गंभीर अपराधों से भी होता है। धारा 8 के तहत दोष सिद्ध उम्मीदवार, धारा 9A के तहत लाभ के पद पर कार्यरत, धारा 123 के तहत भ्रष्ट निर्वाचन कार्यों में लिप्त उम्मीदवारों को निरस्त किया जा सकता है। हालांकि इनके बावजूद राजनीति में अपराधीकरण चिंता का विषय रहा है। अनेक प्रत्याशी या विधायकों के विरुद्ध गंभीर अपराध के मामले चल रहे हैं, जिससे प्रकृति में अधिनियम की सख्ती और प्रवर्तन की कमी झलकती है।

चुनाव आयोग देश की स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है जो चुनावों की निष्पक्षता की गारंटी देता है। अधिनियम के तहत आयोग के पास नामांकन प्रक्रिया, चुनावी खर्च की निगरानी, आचार संहिता का अनुपालन, प्रवर्तन व विवाद समाधान की शक्तियाँ निहित हैं। आयोग चुनावी पारदर्शिता के लिए ईवीएम और वीवीपैट, डाक मतपत्रों, व प्रतिरूपी मतदान जैसी व्यवस्था लागू करता है। हालांकि प्रौद्योगिकी के लाभ के साथ-साथ ईवीएम की सुरक्षा व पारदर्शिता पर बहस भी लगातार बनी हुई है।

अधिनियम के क्रियान्वयन में कई चुनौतियाँ सामने आई हैं। प्रमुख रूप से, पैसे का प्रभाव, चुनावी खर्च सीमा का उल्लंघन, कालाधन का इस्तेमाल, वोट खरीदना, जाति-धर्म आधारित ध्रुवीकरण जैसी समस्याएँ इसकी प्रभावशीलता पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। सरकार ने चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा निर्धारित की है, किंतु उम्मीदवार खर्च को अक्सर गलत दर्शाते हैं और अकाउंटिंग में पारदर्शिता की कमी बनी रहती है। चुनावी खर्च की निगरानी, अभियुक्त उम्मीदवारों की मान्यता, विज्ञापन के दुरुपयोग, लोकसभा तथा विधानसभाओं में सीटों की असमानता भी चिन्हित समस्याएं हैं।

चुनावी अपराधों और भ्रष्ट प्रथाओं की स्पष्ट सूची अधिनियम में है, जिसमें रिश्वतखोरी, गलत जानकारी देना, मतदाताओं को प्रभावित करना, बूथ कैप्चरिंग, धर्म या जाति के नाम पर वोट मांगना आदि शामिल हैं। इन अपराधों के लिए दंडात्मक प्रावधान हैं किंतु प्रवर्तन निष्पादन अक्सर कमजोर साबित होता है। अनुच्छेद 82 में हर जनगणना के बाद निर्वाचन क्षेत्रों के पुनः सीमांकन की व्यवस्था है, जिसे 2002 के संविधान संशोधन के तहत 2026 तक टाल दिया गया। इसके कारण कई क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या असमान बनी हुई है।

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के पक्ष में यह कहा जा सकता है कि इसने चुनावी प्रक्रिया को विधिक संरक्षण दिया, चुनाव आयोग को शक्तिशाली और स्वतंत्रता दी, भ्रष्टाचार और अपराध नियंत्रण के लिए ठोस तंत्र विकसित किया तथा राजनीतिक दलों की पंजीकरण और उम्मीदवारों की योग्यता का सख्त निरीक्षण किया। भारत के लोकतंत्र को मजबूत बनाने में अधिनियम ने राष्ट्रीय व राज्यों के स्तर पर निष्पक्ष चुनाव, समावेशी सहभागिता और संवैधानिक हितों की रक्षा की भूमिका निभाई।

विपक्ष में यह आलोचना है कि अधिनियम में प्रवर्तन की कमी, धनबल व मांसपेशी बल का वर्चस्व, अपराधीकरण, चुनावी खर्च की पारदर्शिता का अभाव, राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की कमी, अधीनस्थ न्यायालयों में मुकदमों की देरी और दलबदल विरोधी कानूनों के दूरदर्शी दुरुपयोग जैसी समस्याएं उभरती हैं। यद्यपि अधिनियम में स्वतःस्फूर्त सुधार की संभावना निहित है, किंतु इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, निगरानी और न्यायिक सक्रियता की आवश्यकता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने अधिनियम की व्याख्या और चुनावी सुधारों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ADR v. Union of India (2002) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उम्मीदवारों को अपने आपराधिक पृष्ठभूमि, आय और शैक्षणिक योग्यता की जानकारी सार्वजनिक करना अनिवार्य किया। PUCL v. Union of India (2013) में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में NOTA विकल्प का समर्थन किया गया, ताकि मतदाता असंतोष का भी सार्वजनिक प्रदर्शन कर सकें। Lily Thomas v. Union of India (2013) में धारा 8(4) को असंवैधानिक ठहराने के बाद दोष सिद्ध मामलों में तत्काल अयोग्यता लागू हुई। Mohinder Singh Gill v. Chief Election Commissioner (1977) में चुनाव आयोग को पुनः मतदान व सुधारात्मक कार्रवाई की व्यापक शक्तियाँ दी गईं, जिससे आयोग की संवैधानिक स्वतंत्रता को बल मिला।

अन्य प्रमुख निर्णयों में ‘लोक प्रहरी’ की याचिका पर चुनावी बांड की पारदर्शिता, ‘सुप्रीम कोर्ट के निर्देश’ के द्वारा अयोग्य विधायकों के मामलों में त्वरित न्यायिक हस्तक्षेप और चुनाव आयोग के अधिकारों की पुनर्पुष्टि देखी गई है। इन मामलों में न्यायालय ने संविधान की मूल आत्मा – निष्पक्ष चुनाव और लोकतांत्रिक प्रक्रिया – को मुख्यता दी है, जो जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की मूल भावना से मेल खाते हैं।

व्यापक ऐतिहासिक विश्लेषण में यह देखा गया है कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम ने भारत के चुनावी ढांचे को ना केवल संरचित किया बल्कि इसमें समय-समय पर सुधार की ऊर्जा भी प्रवाहित की है। चुनाव आयोग, निर्वाचन क्षेत्रों का सत्यापन, मतदाताओं के अधिकार, प्रवर्तन की निष्पक्षता, उम्मीदवारों की योग्यता-अयोग्यता जैसी व्यवस्थाओं ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूती दी है। परंतु इसकी कमजोरियाँ जैसे चुनावी अपराध, धनबल, अपराधीकरण, राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की कमी, न्यायिक मुकदमों की देरी आदि को दूर करने के लिए समुचित राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता है।

लोकतंत्र के संरक्षण, अभिव्यक्ति और विस्तार में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की केंद्रीय भूमिका निर्विवाद है। वे चुनावी प्रक्रिया का विधिक तंत्र स्थापित करने में सफल हुए हैं, उससे जुड़े प्रावधानों की प्रवर्तन में सक्षम हैं, किंतु चुनौतियाँ अप्रत्यक्ष रूप से आज भी बनी हुई हैं। सुधारात्मक सुझावों में चुनावी अपराधों के लिए सख्त दंड, अपराधी उम्मीदवारों की सख्त स्क्रीनिंग, चुनावी खर्च की निगरानी, चुनावी डिजिटल प्रचार के लिए विनियम, तेजी से चुनावी विवादों का समाधान, राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की मजबूती प्रमुख हैं।

आखिरकार, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम भारतीय लोकतंत्र को न सिर्फ़ संरचना देता है, बल्कि इसकी आत्मा को भी पुष्ट करता है। इसके द्वारा नागरिकों को मताधिकार, उम्मीदवारों को योग्यता-अयोग्यता की कसौटी, आयोग को प्रवर्तन की शक्ति, और संविधान को लोकतंत्र की मजबूती के आधार मिलते हैं। इसकी आलोचना और सुधार आज की आवश्यकता हैं, ताकि भारतीय लोकतंत्र न केवल संविधान की सीमाओं के भीतर बल्कि उसके आदर्शों को लेकर निरंतर विकास करे और नागरिकों की आकांक्षाओं को पूर्ण कर सके।

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