1. प्रस्तावना
यूरोप के आधुनिक इतिहास में समाजवाद (Socialism) और लोकतंत्र (Democracy) का रिश्ता बेहद जटिल और रोचक रहा है। 19वीं सदी में जब कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने पूँजीवाद (Capitalism) की गहरी आलोचना की और समाजवाद को भविष्य की दिशा बताया, तब यह विश्वास बहुत प्रबल था कि पूँजीवाद अपनी अंतर्विरोधी प्रवृत्तियों (contradictions) से खुद ही ढह जाएगा।
लेकिन 19वीं सदी के अंतिम चरण और 20वीं सदी की शुरुआत में एक जर्मन विचारक एडवर्ड बर्नस्टीन ने इस धारणा को चुनौती दी। उन्होंने कहा कि पूँजीवाद उतना अस्थिर और विनाशकारी नहीं है जैसा मार्क्स ने बताया था। बल्कि यह अपनी कमजोरियों को सुधारने की क्षमता रखता है।
यहीं से समाजवाद की एक नई धारा जन्मी — सोशल डेमोक्रेसी (Social Democracy)।
2. बर्नस्टीन का जीवन और कृति
• एडवर्ड बर्नस्टीन (1850–1932) जर्मनी के एक प्रमुख समाजवादी और राजनैतिक विचारक थे।
• उन्होंने 1899 में अपनी प्रसिद्ध किताब लिखी –
“Die Voraussetzungen des Sozialismus und die Aufgaben der Sozialdemokratie”
(अर्थात् समाजवाद की शर्तें और सोशल डेमोक्रेसी के कार्य)।
• इसका अंग्रेज़ी अनुवाद Evolutionary Socialism नाम से हुआ।
यही किताब समाजवादी राजनीति में Revisionism (संशोधनवाद) की नींव मानी जाती है।
3. मार्क्सवाद के विरुद्ध बर्नस्टीन की चुनौती
(क) पूँजीवाद का पतन निश्चित नहीं
मार्क्स ने कहा था कि पूँजीवाद लगातार संकट, बेरोज़गारी और अमीर-ग़रीब की खाई बढ़ाने के कारण ज़रूर ढहेगा।
• बर्नस्टीन का तर्क – पूँजीवाद अपनी खामियों को सुधार रहा है।
• बेरोज़गारी घट रही है।
• उत्पादन और बाज़ार में संतुलन बनाया जा रहा है।
• धन और उद्योग का स्वामित्व केवल गिने-चुने पूँजीपतियों तक सीमित नहीं है, बल्कि शेयर और सहकारी संस्थाओं के ज़रिए अधिक लोगों में बँट रहा है।
(ख) क्रांति नहीं, सुधार ज़रूरी
मार्क्स का मानना था कि मजदूर वर्ग की बदहाली एक दिन क्रांति में बदलेगी।
• बर्नस्टीन का मत – मजदूरों की हालत सुधारने के लिए क्रांति का इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं।
• मजदूरों की दुर्दशा बढ़ाना नहीं, बल्कि उसकी पीड़ा घटाना ही असली समाजवाद है।
• शिक्षा, श्रमिक अधिकार, स्वास्थ्य और लोकतांत्रिक सुधार ही सही रास्ता हैं।
(ग) लोकतंत्र और सार्वभौमिक मताधिकार
• बर्नस्टीन ने कहा कि समाजवाद को लोकतांत्रिक चुनावों के ज़रिए आगे बढ़ाया जा सकता है।
• जब मजदूरों को सार्वभौमिक मताधिकार (universal suffrage) मिलेगा, तो वे अपने प्रतिनिधियों को चुनकर संसद में समाजवादी नीतियाँ लागू कर सकते हैं।
4. रूसी क्रांति और विभाजन
1917 की रूसी क्रांति ने मजदूर वर्ग के नाम पर हिंसक क्रांति और तानाशाही की राह अपनाई।
• इससे यूरोप में समाजवादी आंदोलन दो भागों में बँट गया:
1. कम्युनिस्ट पार्टियाँ – जिन्होंने रूस की तरह क्रांति और एक-दलीय तंत्र का समर्थन किया।
2. सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियाँ – जिन्होंने लोकतांत्रिक और सुधारवादी रास्ता चुना।
यह विभाजन स्थायी हो गया।
5. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोशल डेमोक्रेसी का उत्थान
(क) पश्चिमी यूरोप में सत्ता
• द्वितीय विश्व युद्ध (1939–45) के बाद यूरोप में राजनीतिक परिस्थितियाँ बदल गईं।
• पश्चिमी यूरोप के कई देशों में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियाँ सत्ता में आईं।
• पश्चिम जर्मनी
• स्वीडन
• ग्रेट ब्रिटेन (लेबर पार्टी)
(ख) कल्याणकारी राज्य (Welfare State)
इन पार्टियों ने सत्ता में आकर समाजवाद का एक नया मॉडल प्रस्तुत किया:
• राज्य द्वारा मुफ्त या सस्ती शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ।
• बेरोज़गारी भत्ता और पेंशन।
• श्रमिक अधिकारों की गारंटी।
• न्यूनतम वेतन और सामाजिक सुरक्षा।
इन्हीं नीतियों को हम आज Modern Welfare State कहते हैं।
6. सोशल डेमोक्रेसी में परिवर्तन
(क) राष्ट्रीयकरण से दूरी
• 19वीं सदी का समाजवाद पूरे उद्योग-व्यवसाय का राष्ट्रीयकरण चाहता था।
• लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोशल डेमोक्रेसी ने यह रुख नरम कर लिया।
• अब उनका लक्ष्य सिर्फ़ इतना था कि बड़े-बड़े उद्योग और पूँजीवादी ताक़तें राज्य के नियंत्रण में रहें ताकि समाज में असमानता न बढ़े।
(ख) लोकतंत्र पर ज़ोर
• मार्क्सवादी विचार था कि लोकतंत्र सिर्फ़ “बुर्जुआ वर्ग का मुखौटा” है।
• लेकिन सोशल डेमोक्रेसी ने कहा – लोकतंत्र असली समाजवाद के लिए ज़रूरी है।
• स्वतंत्र चुनाव, अभिव्यक्ति की आज़ादी और बहुदलीय व्यवस्था समाजवाद को स्थायी बनाएँगे।
(ग) हिंसा और तानाशाही का विरोध
• सोशल डेमोक्रेसी ने साफ़ कहा कि हिंसक क्रांति और तानाशाही का रास्ता गलत है।
• सोवियत संघ जैसे उदाहरणों ने दिखा दिया था कि तानाशाही मजदूरों के हित में नहीं, बल्कि नए शासक वर्ग के हित में काम करती है।
7. साझा सिद्धांत (Common Principles)
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विभिन्न देशों की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियों में कुछ साझा बिंदु उभरे:
1. लोकतंत्र और समाजवाद का मेल – लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से समाजवाद।
2. हिंसा और क्रांति का त्याग – सुधार और कानून का रास्ता।
3. राज्य का नियमन – उद्योग-व्यवसाय पर राज्य का नियंत्रण, न कि पूरा राष्ट्रीयकरण।
4. समानता और कल्याणकारी राज्य – शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा सबके लिए।
5. तानाशाही का विरोध – चाहे वह पूँजीवादी हो या साम्यवादी।
8. निष्कर्ष
एडवर्ड बर्नस्टीन के विचारों ने समाजवाद की दिशा बदल दी।
• उन्होंने दिखाया कि पूँजीवाद अपने भीतर सुधार ला सकता है और उसे लोकतांत्रिक तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है।
• उनके विचारों से निकली सोशल डेमोक्रेसी ने 20वीं सदी में यूरोप की राजनीति को नया आकार दिया।
• आज यूरोप के लगभग सभी आधुनिक कल्याणकारी राज्यों की जड़ें बर्नस्टीन और उनकी सोशल डेमोक्रेटिक धारा में मिलती हैं।
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