भारत में जातिगत जनगणना 2025 को लेकर हाल ही में कई बहसें सामने आई हैं। यह जनगणना आज़ाद के बाद पहली बार इतने व्यापक स्तर पर जाति आधारित आंकड़ों को एकत्र करने की कोशिश है, जिसमें पिछड़ी जातियों (OBC), मुस्लिम जातियों और अन्य समुदायों की पहचान और हिस्सेदारी का विस्तृत विवरण लिया जाएगा। यह पहल कई सामाजिक, राजनीतिक और नीतिगत बदलावों का आधार बन सकती है।
जनगणना क्या है?
जनगणना एक दशकीय जनसंख्या-आधारित सर्वेक्षण है जो 2011 तक 15 बार आयोजित किया गया था। यह 1872 में वायसराय लॉर्ड मेयो के अधीन हर 10 साल में किया गया था, और पहली पूर्ण जनगणना 1872 में हुई थी। 1949 के बाद, जनगणना गृह मंत्रालय ( एमएचए) के तहत भारत के रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त द्वारा आयोजित की गई थी।
- 1951 के बाद से सभी जनगणनाएँ 1948 के भारतीय जनगणना अधिनियम के तहत आयोजित की गईं, जो भारत के संविधान से पहले की है।
- पिछली जनगणना 2011 में हुई थी, जबकि अगली जनगणना 2021 में होनी थी, लेकिन भारत में कोविड-19 महामारी के कारण इसे स्थगित कर दिया गया। इके बाद कि अगली जनगणना की तारीख अभी तक निश्चित नहीं हुई है।
जाति जनगणना से क्या अभिप्राय है?
जाति जनगणना का मतलब है जनगणना के दौरान जाति-आधारित डेटा एकत्र करना। डेटा जाति समूहों के वितरण, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति, शैक्षिक स्थिति और अन्य संबंधित कारकों पर विवरण प्रदान करता है। जाति जनगणना के पीछे का विचार सामान्य जनगणना प्रक्रिया के दौरान जाति से संबंधित प्रश्नों को शामिल करना है।
- 1881 से 1931 तक ब्रिटिश शासन के दौरान जाति गणना जनगणना की एक नियमित विशेषता थी। हालाँकि, 1951 में स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना के साथ, सरकार ने इस प्रथा को बंद कर दिया।
- भारत को स्वतंत्रता में सरकार ने सामाजिक और शैक्षिक मानदंडों के आधार पर नागरिकों को चार व्यापक समूहों में वर्गीकृत किया- अनुसूचित जनजाति (एसटी), अनुसूचित जाति (एससी), अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), और सामान्य श्रेणी।
- लेकिन भारत में 1951 से जनगणना के में भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अलावा अन्य जाति समूहों के सदस्यों की गणना नहीं की गई।
- जाति के बारे में उपलब्ध अंतिम डेटा 1931 की जनगणना से है, जो स्वतंत्रता से पहले ली गई थी। 1941 की जनगणना, भी जाति के आधार पर हुई थी, लेकिन इसे कभी जारी नहीं किया गया।
अब तक जाति जनगणना किस–किस राज्य में हुई है?
अब तक बिहार, तेलंगाना और कर्नाटक में जाति सर्वेक्षण हुए है।
- बिहार ने 2023 में सर्वेक्षण किया और डेटा प्रकाशित किया, जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस सरकार के मुखिया थे। तेलंगाना और कर्नाटक दोनों कांग्रेस शासित राज्य हैं।
- तेलंगाना की कांग्रेस सरकार ने पिछले साल फरवरी में अपनी सामाजिक-आर्थिक, शैक्षिक, रोजगार, राजनीतिक और जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी की थी।
- कर्नाटक जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट या सामाजिक-आर्थिक और शिक्षा सर्वेक्षण, 2015 में सीएम सिद्धारमैया के पहले कार्यकाल के दौरान शुरू किया गया था। हालांकि, यह रिपोर्ट उन्हें इस साल 29 फरवरी को ही सौंपी गई।
भारत में जाति क्यों महत्त्वपूर्ण है?
जाति (Caste) भारतीय समाज की सबसे पुरानी और प्रभावशाली सामाजिक संस्था रही है। आधुनिक भारत में भले ही यह एक विवादास्पद विषय हो, लेकिन इसकी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। जाति आज भी भारत के सामाजिक ताने-बाने और लोकतांत्रिक राजनीति में गहरे रूप से अंतर्निहित है।
“जाति व्यवस्था भारत का सबसे स्थायी सामाजिक ढाँचा रही है।” – G.S. Ghurye, “Caste and Class in India”
राजनीति में जाति की निर्णायक भूमिका
- जाति अब राजनीतिक लामबंदी का उपकरण बन चुकी है।
- चुनावों में उम्मीदवारों का चयन, मतदान पैटर्न और गठबंधन – सब जातिगत समीकरणों पर आधारित होते हैं।
- आरक्षण और प्रतिनिधित्व की माँग जाति आधारित आंदोलनों से जुड़ी रहती है।
“Caste has become a channel for political articulation.” – Rajni Kothari
जाति केवल सत्ता का सवाल नहीं है; यह पहचान, स्वाभिमान और सांस्कृतिक स्वीकृति से भी जुड़ी है।
- दलित साहित्य, बहुजन आंदोलन, जाति सम्मेलन आदि, समुदायों की सांस्कृतिक पुनर्रचना के प्रयास हैं।
“Caste is not only a form of discrimination, but also a form of belonging.” – Anand Teltumbde
जाति का राजनीतिकरण: रजनी कोठारी
जातीय संरचना भारतीय राजनीति का आधार बन चुकी है।- डॉ. लोहिया
भारत में जाति का राजनीतिकरण (Politicization of Caste) हुआ है, जो स्वतंत्रता के बाद से अब तक भारतीय लोकतंत्र और समाज के ढाँचे को प्रभावित करती आ रही है। यह प्रक्रिया जातियों की पारंपरिक सामाजिक स्थिति को राजनीतिक शक्ति में बदलने का माध्यम बन गई है।
जातीय समूह अब केवल सामाजिक संगठन नहीं रह गए हैं अब वह राजनीतिक मंच पर शक्ति, प्रतिनिधित्व और संसाधनों की माँग के साथ राजनीति में दखल देना शुरू कर दिया है।
यह परिवर्तन तीन मुख्य चरणों में देखा जा सकता है
- शक्ति–संसाधन की प्रतिस्पर्धा: पहले जिन जातियों को शिक्षा और सामाजिक उन्नयन प्राप्त हुआ, उन्होंने राजनीतिक संगठन बनाए और अपने समुदाय के लिए प्रतिनिधित्व की माँग की। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र और तमिलनाडु में मराठा और नायकर जातियाँ, उत्तर प्रदेश में यादव और बिहार में कुर्मी-पासवान जातियाँ सामने आईं।
- जातियों के भीतर भी संघर्ष: एक ही जाति में ऊपरी और निचली उप-जातियों के बीच राजनीतिक प्रभाव को लेकर टकराव देखने को मिला, जिससे कई बार राजनीतिक ध्रुवीकरण और नई पार्टियों का उदय हुआ।
- जाति गठबंधनों और अवसरवादिता: अनेक बार विभिन्न जातियाँ एक-दूसरे के विरोध में या समर्थन में गठबंधन बनाकर चुनावी लाभ प्राप्त करने के लिए राजनीतिक सौदेबाज़ी करती हैं।
जाति के आधार पर उभरे प्रमुख दल
- उत्तर भारत: यादव (सपा), कुर्मी (जनता दल, एनडीए), जाटव (बसपा), पासवान (एलजेपी)
- दक्षिण भारत: वीसी (तमिलनाडु में), रेड्डी और काम्मा (आंध्र प्रदेश), नायर और एझावा (केरल)
- महाराष्ट्र: मराठा और ओबीसी राजनीति, जैसे कि एनसीपी और शिवसेना में जाति का बड़ा योगदान
जाति के राजनीतिकरण के कारण
- शिक्षा का प्रसार और शहरीकरण: निचली जातियों को सामाजिक-आर्थिक उन्नति का अवसर मिला, जिससे वे राजनीति में सक्रिय हुए।
- आरक्षण और संवैधानिक संरक्षण: अनुसूचित जातियों और जनजातियों को प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण व्यवस्था ने इन्हें राजनीतिक रूप से जागरूक और संगठित किया।
- चुनावी राजनीति में लाभ: जाति आधारित वोट बैंक की राजनीति ने राजनीतिक दलों को जातियों को संगठित करने और उनका समर्थन लेने के लिए मजबूर किया।
जातियों का राजनीतिकरण भारतीय लोकतंत्र का अभिन्न अंग बन गया है। हालाँकि यह सामाजिक न्याय और प्रतिनिधित्व की दिशा में आवश्यक था, परंतु इससे सामाजिक ध्रुवीकरण और वर्गीय संघर्ष की स्थिति भी उत्पन्न हुई है।
रजनी कोठारी का दृष्टिकोण
प्रसिद्ध राजनीति शास्त्री प्रोफेसर रजनी कोठारी (Rajni Kothari) ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ “Caste in Indian Politics” (1970) में भारतीय लोकतंत्र में जाति और राजनीति के जटिल रिश्ते की विश्लेषणात्मक व्याख्या प्रस्तुत की है। उनका मानना था कि भारत में जाति और राजनीति के बीच न तो कोई स्थायी विभाजन है और न ही यह संबंध एकतरफा है। उन्होंने जाति के राजनीतिकरण (Politicization of Caste) और राजनीति के जातीयकरण (Casteization of Politics) दोनों प्रक्रियाओं की चर्चा की है।
- जाति और राजनीति का द्विदिशी संबंध: रजनी कोठारी ने तर्क दिया कि भारतीय राजनीति ने जाति को पूरी तरह खत्म नहीं किया, बल्कि जाति को राजनीति में ढालकर उसे पुनः परिभाषित कर दिया है। उन्होंने लिखा:
“Caste provides the basic institutional network for political articulation.”
(जाति राजनीतिक अभिव्यक्ति के लिए मूल संस्थागत ढाँचा प्रदान करती है।)
- जाति अब केवल सामाजिक नहीं, राजनीतिक संस्था भी है: कोठारी के अनुसार, आधुनिक लोकतंत्र में जातियों ने स्वयं को राजनीतिक हितों की प्राप्ति हेतु पुनः गठित किया। उन्होंने कहा कि जातियाँ अब केवल धर्म या कर्म आधारित नहीं रहीं, बल्कि प्रतिनिधित्व, आरक्षण, सत्ता और नीति निर्माण में भागीदारी के लिए सक्रिय हो गई हैं।
- जाति का राजनीतिकरण बनाम राजनीति का जातीयकरण: जाति का राजनीतिकरण का अर्थ है जब पारंपरिक जातियाँ सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीति में प्रवेश करती हैं। राजनीति का जातीयकरण तब होता है जब राजनीतिक दल वोट पाने के लिए जातिगत ध्रुवीकरण को बढ़ावा देते हैं।
“In India, politics does not drive out caste; it makes it modern.”
(राजनीति जाति को खत्म नहीं करती, वह उसे आधुनिक बना देती है।)
कोठारी ने जातीय राजनीतिकरण को तीन चरणों में बाँटा
- समायोजन का चरण (Accommodative Phase): जातियाँ राजनीतिक व्यवस्था में अपनी पारंपरिक संरचना के भीतर समायोजित होती हैं। उदाहरण: ऊँची जातियों द्वारा सत्ता में अपना प्रभुत्व बनाए रखना।
- प्रतिस्पर्धी चरण (Competitive Phase): मध्य और निम्न जातियाँ राजनीतिक दावेदारी में शामिल होती हैं। वे खुद को संगठित करती हैं, नेता उभरते हैं, और चुनावों में भाग लेने लगती हैं।
- निर्णायक चरण (Decisive Phase): जब जातियाँ चुनाव परिणामों को प्रभावित करने लगती हैं, गठबंधन और पार्टी निर्माण का आधार बन जाती हैं।
जातिगत जनगणना का आरक्षण पर प्रभाव
- जातिगत जनगणना का सीधा और दूरगामी प्रभाव भारत के आरक्षण तंत्र पर देखने को मिल सकता है। वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण पर 50% की सीमा निर्धारित की गई है (इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार केस, 1992)।
- परंतु जातिगत आंकड़े सामने आने के बाद यह सीमा व्यावहारिक रूप से चुनौतीपूर्ण बन सकती है। बिहार, कर्नाटक और तेलंगाना जैसे राज्यों ने पहले ही जातिगत सर्वेक्षण के आधार पर आरक्षण की सीमा बढ़ाई है, जिससे यह संकेत मिलता है कि जातीय आंकड़े नीति निर्माण को नई दिशा दे सकते हैं।
- ओबीसी आधारित दल जैसे सपा, आरजेडी, जेडीयू, बसपा आदि को इससे नया मौका मिलेगा। बड़ी आबादी वाली जातियाँ राजनीतिक दलों पर प्रतिनिधित्व बढ़ाने का दबाव बना सकती हैं।
- जातिगत जनगणना के आधार पर आरक्षण सीमा बढ़ी तो इसका असर स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालयों में नामांकन और सरकारी नौकरियों में नियुक्तियों पर दिखाई देगा।
- जनगणना से पता चलेगा कि किस निर्वाचन क्षेत्र में कौन सी जाति प्रमुख है।
- जातिगत आंकड़े सामाजिक विभाजन को भी गहरा कर सकते हैं। मंडल कमीशन लागू होने के समय जैसी हिंसा और टकराव की घटनाएँ फिर से उत्पन्न हो सकती हैं। इससे सामाजिक शांति बाधित हो सकती है। राजनीतिक दल इन आंकड़ों का प्रयोग वोटबैंक को मजबूत करने में कर सकते हैं, जिससे समाज में ध्रुवीकरण की स्थिति बन सकती है।
निष्कर्ष
जातिगत जनगणना 2025 भारतीय समाज और राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हो सकती है। यह न केवल पिछड़े और वंचित वर्गों की जनसंख्या की यथार्थ स्थिति का उद्घाटन करेगी, बल्कि नीति-निर्माण, संसाधन वितरण और आरक्षण व्यवस्था जैसे मुद्दों पर भी गहरा प्रभाव डालेगी।
जाति अब केवल सामाजिक पहचान नहीं, बल्कि राजनीतिक शक्ति का भी स्रोत बन चुकी है। प्रो. रजनी कोठारी जैसे विद्वानों ने इस द्वंद्वात्मक संबंध को गहराई से विश्लेषित किया है, जहाँ जाति का राजनीतिकरण और राजनीति का जातीयकरण साथ-साथ चलते हैं। जनगणना के ज़रिए सामने आए आंकड़े इस संबंध को और अधिक ठोस बना सकते हैं।