इस लेख में दो प्रकार की राजनीतिक प्रणालियों “डिमांड पॉलिटी” और “कमांड पॉलिटी”/Demand Polity and Command Polity का विश्लेषण किया गया है।
डिमांड पॉलिटी और कमांड पॉलिटी ये दोनों अवधारणाएँ भारतीय राजनीति के विश्लेषण में विशेष महत्व रखती हैं, और इन्हें राजनीति विज्ञानी लॉयड और सुसान रूडोल्फ (Lloyd I. Rudolph & Susanne Hoeber Rudolph) ने 1980 और 1990 के दशक में भारत की राजनीति की व्याख्या करते हुए विकसित किया था।
डिमांड पॉलिटी और कमांड पॉलिटी क्या होती है?
अवधारणा | विवरण |
डिमांड पॉलिटी (Demand Polity) | यह वह प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था है जिसमें समाज के विभिन्न वर्ग सरकार से विभिन्न प्रकार की मांगें करते हैं, जैसे कि सामाजिक न्याय, आरक्षण, शिक्षा, रोज़गार आदि। यह बहुलतावादी (pluralist) प्रणाली होती है जिसमें नीतियाँ जन दबाव के आधार पर बनती हैं। |
कमांड पॉलिटी (Command Polity) | यह ऐसी राजनीतिक व्यवस्था होती है जिसमें सत्ता का केंद्रीकरण होता है और निर्णय ऊपर से थोपे जाते हैं। इसमें जनभागीदारी सीमित होती है और शासन प्रशासन का स्वरूप अधिक निर्देशात्मक होता है। |
भारत में लागू संदर्भ | भारत में डिमांड पॉलिटी और कमांड पॉलिटी दोनों की विशेषताएं मिलती हैं। कई क्षेत्रों में जनता की मांगें नीति निर्धारण में असर डालती हैं, वहीं कई बार केंद्र सरकार का रवैया आदेशात्मक होता है। |
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में द्वंद्व | लोकतंत्र में नागरिकों की मांगों और शासकीय आदेशों के बीच संघर्ष उत्पन्न होता है, जिससे नीति निर्माण जटिल बन जाता है। |
- भारत में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करना डिमांड पॉलिटी का उदाहरण है, जहां सामाजिक न्याय की मांग ने नीति को प्रभावित किया।
- दूसरी ओर, आपातकालीन अवधि (1975-77) कमांड पॉलिटी का प्रतीक थी, जब निर्णय पूरी तरह केंद्र सरकार द्वारा थोपे गए।
लॉयड और सुसान रूडोल्फके बारे में
- ये अमेरिकी राजनीति वैज्ञानिक थे, जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र पर व्यापक शोध किया।
- इन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “In Pursuit of Lakshmi: The Political Economy of the Indian State” (1987) में इस विचार को गहराई से प्रस्तुत किया।
- यह विचार विशेष रूप से 1980 के दशक में सामने आया जब भारत की राजनीतिक और आर्थिक संरचना में गहरा परिवर्तन देखा गया। जब जनता द्वारा लगातार मांगें (education, employment, caste-based reservations) बढ़ रही थी, लेकिन उसी समय प्रशासनिक प्रणाली का केंद्रीकरण और “टॉप-डाउन” आदेशों का बोलबाला था।
निष्कर्ष
अंत: लोकतंत्र में केवल जन-इच्छाओं का ही नहीं, बल्कि राज्य की निर्णयात्मक शक्ति का भी स्थान होता है। एक संतुलित राजनीतिक प्रणाली वही है जो दोनों तत्वों जन मांग और प्रशासनिक आदेश के बीच संतुलन बनाए रख सके।