मानव सभ्यता के विकास के क्रम में सामाजिक आंदोलन हमेशा परिवर्तन का महत्वपूर्ण माध्यम रहे हैं। परंतु 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सामाजिक आंदोलनों की प्रकृति में व्यापक बदलाव आया है, जिसे ‘नए सामाजिक आंदोलन’ कहा जाता है। ये आंदोलन पारंपरिक वर्ग-आधारित संघर्षों से आगे बढ़कर पहचान, संस्कृति, पर्यावरण, मानवाधिकार, लैंगिक समानता, लोकतांत्रिक अधिकार और न्याय जैसे मुद्दों पर केंद्रित हैं। आज के समय में विश्व राजनीति, समाजशास्त्र, लोकतंत्र और विकास को समझने के लिए नए सामाजिक आंदोलनों को समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
पारंपरिक सामाजिक आंदोलन मुख्यतः आर्थिक असमानता, वर्ग-संघर्ष, मजदूर अधिकारों और राजनीतिक सत्ता के पुनर्वितरण पर केंद्रित थे। मार्क्सवादी ढांचे के भीतर ये आंदोलन राज्य और पूँजीवादी ढांचे को चुनौती देते थे। इसके विपरीत नए सामाजिक आंदोलन आर्थिक हितों से कम और सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों से अधिक प्रेरित हैं। इनकी मूल चिंता मनुष्य की पहचान, गरिमा, पर्यावरण संरक्षण, सामुदायिक अधिकार और लोकतांत्रिक सहभागिता से जुड़ी होती है। इसीलिए कहा जाता है कि नए सामाजिक आंदोलन ने संघर्ष के भाषा और रूप दोनों को बदल दिया है।
नए सामाजिक आंदोलनों की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि इनका जनाधार विविध होता है। महिलाएँ, युवा, मध्यवर्ग, छात्र, पर्यावरण कार्यकर्ता, आदिवासी समुदाय, LGBTQ+ समुदाय, नागरिक समाज संगठन और मानवाधिकार कार्यकर्ता—सभी इसमें सक्रिय भूमिका निभाते हैं। यह विविधता इन आंदोलनों को व्यापक सामाजिक समर्थन देती है और इन्हें सांस्कृतिक परिवर्तन का साधन बनाती है। पारंपरिक आंदोलनों के विपरीत इनके नेता केंद्रीकृत न होकर विकेन्द्रीकृत ढंग से उभरते हैं। सोशल मीडिया और संचार तकनीक ने नए सामाजिक आंदोलनों को और अधिक प्रभावी बना दिया है।
नए सामाजिक आंदोलनों की विषय-वस्तु अत्यंत व्यापक है। नारीवाद ने महिलाओं के अधिकार, समान वेतन, घरेलू हिंसा, दहेज और प्रजनन अधिकार जैसे मुद्दों को केंद्र में रखा। पर्यावरण आंदोलन—जैसे चिपको, अप्पिको, नर्मदा बचाओ—ने विकास मॉडल की पर्यावरणीय कीमत पर प्रश्न उठाया। आदिवासी और दलित आंदोलनों ने पहचान, सम्मान और सामाजिक न्याय की लड़ाई को नए आयाम दिए। LGBTQ+ आंदोलन ने लैंगिक विविधता को सामाजिक और कानूनी मान्यता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वैश्वीकरण विरोधी आंदोलन, मानवाधिकार आंदोलन, उपभोक्ता अधिकार आंदोलन और साइबर अधिकार आंदोलन भी इसी श्रेणी में आते हैं।
भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण समाज में नए सामाजिक आंदोलनों ने बदलाव की एक नई भाषा गढ़ी है। स्वतंत्रता के बाद विकास योजनाओं ने कई बार आदिवासी और ग्रामीण समुदायों को विस्थापन का शिकार बनाया। इसके विरुद्ध नर्मदा बचाओ आंदोलन और जंगल अधिकार आंदोलन ने ‘विकास किसके लिए’ का सवाल उठाया। 1970 के दशक का चिपको आंदोलन केवल पेड़ों को बचाने का संघर्ष नहीं था, बल्कि यह ग्रामीण महिलाओं के पर्यावरणीय ज्ञान, संसाधन अधिकार और सामुदायिक भागीदारी का प्रतीक था। 2011 का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन आधुनिक नागरिक समाज की शक्ति का उदाहरण है, जिसने पारदर्शिता और उत्तरदायित्व की मांग को राष्ट्रीय विमर्श में बदल दिया। Right to Information आंदोलन ने शासन व्यवस्था में ऐतिहासिक सुधार किया। किसान आंदोलन (2020–21) ने आधुनिक कृषि नीतियों की चुनौतियों को लोकतांत्रिक ढंग से प्रस्तुत किया।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नए सामाजिक आंदोलन ने अधिकार-आधारित राजनीति को प्रमुखता दी है। अमेरिका का सिविल राइट्स मूवमेंट, यूरोप का ग्रीन मूवमेंट, वैश्विक पर्यावरण आंदोलन, नारीवादी आंदोलन और LGBTQ+ आंदोलन ने यह सिद्ध किया है कि सामाजिक पहचान और मानवाधिकार आधुनिक समाज में सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दे बन चुके हैं।
सैद्धांतिक दृष्टिकोण से भी नए सामाजिक आंदोलनों की व्याख्या महत्वपूर्ण है। जर्मन दार्शनिक हेबरमास का मानना है कि ये आंदोलन ‘लाइफ़वर्ल्ड’ की रक्षा के लिए उभरते हैं—यानी आधुनिकता और औद्योगिक तर्कसंगति से उत्पन्न सामाजिक संकटों के विरुद्ध सामाजिक जीवन मूल्यों की सुरक्षा के लिए। समाजशास्त्री अलैन टूरैन के अनुसार, नए सामाजिक आंदोलन सांस्कृतिक पहचान की राजनीति पर आधारित हैं, जो उपभोक्तावाद और बाज़ारवाद के प्रभाव को चुनौती देते हैं। क्लाउस ओफे के अनुसार, ये आंदोलन वेलफेयर स्टेट की सीमाओं और आधुनिक समाज की जटिलताओं का परिणाम हैं।
नए सामाजिक आंदोलनों का सबसे सकारात्मक पक्ष यह है कि इन्होंने लोकतंत्र को और अधिक सहभागी और उत्तरदायी बनाया है। इन आंदोलनों ने नागरिकों को केवल वोटर नहीं बल्कि सक्रिय नागरिक के रूप में स्थापित किया। मानवाधिकार, पर्यावरणीय न्याय, लैंगिक समानता, सूचना का अधिकार और उपभोक्ता अधिकार जैसे मुद्दे आज वैश्विक राजनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुके हैं।
हालाँकि, नए सामाजिक आंदोलनों की कुछ आलोचनाएँ भी हैं। कुछ विद्वान इन्हें बिखरे हुए और दिशा-रहित मानते हैं। इनका नेतृत्व स्पष्ट नहीं होता और न ही इनके पास हमेशा ठोस नीति-स्तरीय समाधान होते हैं। सोशल मीडिया आधारित आंदोलनों की स्थायित्व और गहराई पर भी प्रश्नचिह्न लगाया जाता है। कई बार ये आंदोलन प्रतीकात्मक रह जाते हैं और ठोस परिवर्तन का रूप नहीं ले पाते। कुछ आलोचक यह भी मानते हैं कि मध्यवर्ग का प्रभाव अधिक होने से गरीब तबकों की आवाज दब सकती है।
फिर भी, इन आलोचनाओं के बावजूद नए सामाजिक आंदोलन आधुनिक लोकतंत्र का एक अनिवार्य तत्व बन चुके हैं। वे समाज में यह चेतना स्थापित करते हैं कि विकास का अर्थ केवल आर्थिक वृद्धि नहीं बल्कि मानव गरिमा, पर्यावरणीय संतुलन, सांस्कृतिक विविधता, सामाजिक न्याय और समावेशी शासन है। ये आंदोलन उस नागरिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं जो राज्य और बाज़ार दोनों की सीमाओं को चुनौती देती है।
आज के समय में जब समाज तकनीकी बदलाव, वैश्वीकरण, जलवायु संकट, पहचान की राजनीति और असमानताओं से जूझ रहा है, नए सामाजिक आंदोलनों की प्रासंगिकता पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। वे हमें यह याद दिलाते हैं कि एक बेहतर समाज केवल नीतियों से नहीं बनता, बल्कि नागरिकों की सामाजिक चेतना, भागीदारी और संघर्ष से निर्मित होता है।
यही कारण है कि नए सामाजिक आंदोलन आधुनिक विश्व में ‘लोकतांत्रिक पुनर्जागरण’ का प्रतीक बनकर उभर रहे हैं—एक ऐसी प्रक्रिया जो मनुष्य की गरिमा, अधिकारों और समानता को सामाजिक जीवन के केंद्र में स्थापित करने का प्रयास करती है
1. पारंपरिक आंदोलन से अलग
- फोकस: पहचान, संस्कृति, पर्यावरण, मानवाधिकार
- पारंपरिक आंदोलनों से अलग, जिनका फोकस वर्ग-संघर्ष व आर्थिक मुद्दे थे।
2. पहचान आधारित आंदोलन (Identity-based)
- महिलाएँ
- दलित/आदिवासी
- LGBTQ+
- पर्यावरण
- मानवाधिकार
- उपभोक्ता अधिकार
3. प्रमुख विशेषताएँ
- विकेन्द्रीकृत नेतृत्व
- राजनीतिक दलों से दूरी
- सांस्कृतिक परिवर्तन पर जोर
- Social media और नागरिक समाज की भूमिका महत्वपूर्ण
- Participatory democracy को प्रोत्साहन
4. भारत के उदाहरण
- चिपको आंदोलन
- नर्मदा बचाओ आंदोलन
- महिला आंदोलन
- दलित आंदोलन
- RTI आंदोलन
- अन्ना आंदोलन (Anti-corruption)
- किसान आंदोलन (2020–21)
5. वैश्विक उदाहरण
- Feminist movement
- LGBTQ+ Rights Movement
- Environmental / Green movement
- Civil Rights movement
- Anti-globalization movement
6. प्रमुख सिद्धांत / Thinkers
- हेबरमास → “Lifeworld की रक्षा”
- अलैन टूरैन → “सांस्कृतिक पहचान की राजनीति”
- क्लाउस ओफे → “वेलफेयर स्टेट की सीमाओं का परिणाम”
7. महत्व
- लोकतंत्र को मजबूत करता है
- मानवाधिकार व पर्यावरणीय न्याय को आगे बढ़ाता है
- सामाजिक न्याय और समावेशिता बढ़ती है
- नागरिक भागीदारी में वृद्धि
8. आलोचनाएँ
- बहुत बिखरे हुए
- स्पष्ट नेतृत्व की कमी
- सोशल मीडिया आधारित आंदोलन स्थायी नहीं
- मध्यवर्ग का अधिक प्रभाव
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