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नागरिकता: Jus Soli और Jus Sanguinis का सिद्धांत

नागरिकता किसी व्यक्ति और राज्य के बीच स्थापित एक कानूनी संबंध है। यह संबंध व्यक्ति को संवैधानिक अधिकार और कर्तव्यों का लाभ देता है। नागरिकता प्राप्त होने पर व्यक्ति को उस देश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संरचना में भाग लेने का अधिकार मिल जाता है।

नागरिकता के दो प्रमुख सिद्धांत:

1. जन्मभूमि सिद्धांत (Jus Soli)

2. वंशानुक्रम सिद्धांत (Jus Sanguinis)

Jus Soli (जन्मभूमि सिद्धांत)

यह शब्द लैटिन भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है – भूमि का अधिकार या जन्म स्थान के आधार पर नागरिकता। इस सिद्धांत के अनुसार, कोई भी बच्चा जिस देश की भूमि पर जन्म लेता है, उसे उस देश की नागरिकता प्राप्त हो जाती है। इसे मिट्टी का अधिकार या स्थल जन्म सिद्धांतभी कहा जाता है।

उदाहरण:

अमेरिका और कनाडा जैसे देश Jus Soli का पालन करते हैं। वहाँ यदि कोई बच्चा जन्म लेता है, तो उसे स्वतः उस देश की नागरिकता प्राप्त हो जाती है — भले ही उसके माता-पिता किसी अन्य देश के नागरिक हों।

Jus Sanguinis (वंशानुक्रम सिद्धांत)

यह भी लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है – रक्त का अधिकार। इस सिद्धांत के अनुसार, किसी व्यक्ति को उस देश की नागरिकता प्राप्त होती है, जिस देश के उसके माता या पिता नागरिक होते हैं, चाहे वह बच्चा किसी भी देश में जन्मा हो। इसे रक्त-संबंध आधारित नागरिकता भी कहा जाता है।

उदाहरण:

यूरोप के अधिकांश देश Jus Sanguinis सिद्धांत को अपनाते हैं, ताकि प्रवासी परिवारों के बच्चों को केवल जन्म के आधार पर नागरिकता स्वतः न मिल जाए।
भारत ने स्वतंत्रता के बाद पहले Jus Soli को अपनाया था, लेकिन1987 के बाद से Jus Sanguinis आधारित नीति को प्राथमिकता दी गई।
हालांकि, भारत की संविधान सभा ने मूल रूप से Jus Sanguinis सिद्धांत का विरोध किया था, क्योंकि यह नस्लीय भावना को बढ़ावा देता है, जो भारत की विविधतापूर्ण संस्कृति के विरुद्ध है।
मोतीलाल नेहरू समिति (1928) ने भी Jus Soli को ही अधिक उपयुक्त मानते हुए इसकी सिफारिश की थी।
जापान, चीन, दक्षिण कोरिया जैसे एशियाई देश केवल वंशानुक्रम आधारित नागरिकता प्रदान करते हैं।
इटली और हंगरी जैसे देश Jus Sanguinis सिद्धांत के आधार पर विदेशों में बसे लोगों को भी नागरिकता प्रदान करते हैं — यदि उनके पूर्वज उस देश के नागरिक थे।

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