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भारत की न्यायिक व्यवस्था पर बढ़ता बोझ

न्याय में देरी के कारण

justice statue

वर्तमान में भारतीय न्यायपालिका के तीनों स्तरों ,सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, जिला एवं अधीनस्थ अदालतों में कुल मिलाकर 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। इनमें से लगभग 85–90% मामले निचली अदालतों में हैं, जबकि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भी लाखों मामले वर्षों से लंबित पड़े हैं। जो न्याय वितरण प्रणाली, सुशासन की प्रभावशीलता और कानूनी प्रणाली में नागरिकों के विश्वास को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है।

वर्तमान न्यायिक व्यवस्था की कार्यक्षमता स्थिति   

भारत की न्यायिक व्यवस्था लोकतंत्र के स्तंभों में से एक है, लेकिन इसकी कार्यक्षमता पर कई गंभीर चुनौतियां हैं, जैसे लंबित मामलों का भारी बोझ, न्यायिक प्रक्रियाओं में देरी, तकनीकी ढांचे की कमी और न्याय तक समान पहुंच का अभाव। इन चुनौतियों के समाधान के लिए व्यापक सुधारों की आवश्यकता है।

इतने बड़े पैमाने पर मामलों का अटक जाना न्याय प्रणाली की स्पीड और एफिशिएंसी दोनों को कमजोर करता है। जब न्यायिक प्रणाली समय पर फैसले नहीं दे पाती, तो प्रशासनिक और कानूनी सुधारों की प्रक्रिया धीमी हो जाती है।

  • सरकार और उसके विभागों पर भी मुकदमों का बोझ बढ़ता है, क्योंकि कई मामलों में litigation by government (सरकारी अपीलें) लंबित मामलों की संख्या का बड़ा हिस्सा होती हैं। नीतियों और कानूनों के क्रियान्वयन में देरी होती है।
  • जब लोग देखते हैं कि न्याय पाने में वर्षों लगते हैं, तो कानूनी प्रणाली पर उनका भरोसा कम होता है।
  • कई बार लोग अदालत जाने से ही बचते हैं और वैकल्पिक या अनौपचारिक तरीकों से विवाद सुलझाने का प्रयास करते हैं, जो कई बार न्यायसंगत नहीं होते। इससे “Rule of Law” यानी विधि के शासन की नींव कमजोर होती है।

मुख्य कारण

  • न्यायाधीशों की कमी और उच्च judge-to-population ratio gap.
  • जटिल और लंबी कानूनी प्रक्रियाएं।
  • पर्याप्त तकनीकी अवसंरचना का अभाव।
  • बार-बार तारीख बदलना और केस मैनेजमेंट का अभाव।
  • सरकारी विभागों द्वारा अत्यधिक अपीलें और पुनर्विचार याचिकाएं।

वर्तमान चुनौतियां

  • मामलों का लंबित होना: भारत की न्यायिक व्यवस्था के समक्ष सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है—मामलों का भारी लंबित बोझ। वर्तमान में देशभर की अदालतों में करोड़ों मामले विचाराधीन हैं, जिनमें से लगभग 80% से अधिक निचली अदालतों में अटके हुए हैं। इन मामलों का समय पर निपटारा न हो पाने का मुख्य कारण न्यायाधीशों की अपर्याप्त संख्या, जटिल प्रक्रियात्मक नियम, बार-बार की तारीखें, वकीलों की अनुपस्थिति और प्रशासनिक विलंब हैं। इसके अतिरिक्त, सरकारी विभागों द्वारा अपील और पुनर्विचार याचिकाओं का अंधाधुंध प्रयोग भी इस समस्या को और बढ़ाता है। नतीजतन, न्याय मिलने में वर्षों लग जाते हैं, जिससे ‘न्याय में देरी, न्याय से वंचित करने’ (Justice delayed is justice denied) की स्थिति उत्पन्न होती है।
  • न्यायिक पदों की कमी: भारत में न्यायाधीशों का अनुपात जनसंख्या के हिसाब से अत्यंत कम है। Law Commission की अनुशंसा के अनुसार, प्रति 10 लाख आबादी पर कम से कम 50 न्यायाधीश होने चाहिए, जबकि भारत में यह संख्या लगभग 21–22 है, जो कई विकसित देशों जैसे अमेरिका और ब्रिटेन की तुलना में आधी से भी कम है। न्यायिक पदों की यह कमी सीधा असर मामलों के निपटारे की गति पर डालती है। पर्याप्त संख्या में न्यायाधीश न होने के कारण एक ही न्यायालय में हजारों मामले लंबित रहते हैं, जिससे अदालती प्रणाली पर दबाव बढ़ता है और मुकदमों की सुनवाई में लंबा समय लगता है।
  • तकनीकी पिछड़ापन: हाल के वर्षों में ई-कोर्ट, वर्चुअल हियरिंग और ऑनलाइन केस मैनेजमेंट जैसी परियोजनाएं शुरू तो की गई हैं, लेकिन उनका क्रियान्वयन पूरे देश में समान रूप से नहीं हो पाया है। कई अदालतें अब भी पारंपरिक कागज़ी रिकॉर्ड पर निर्भर हैं, जिससे सूचना तक समय पर पहुंच पाना कठिन हो जाता है। निचली अदालतों में डिजिटल अवसंरचना का अभाव, इंटरनेट कनेक्टिविटी की कमी और न्यायिक कर्मचारियों में तकनीकी प्रशिक्षण की कमी इस समस्या को और गहरा करती है। परिणामस्वरूप, महामारी जैसे आपातकालीन हालात में न्यायिक कार्य ठप हो जाते हैं या बेहद धीमी गति से चलते हैं।
  • न्याय तक असमान पहुंच: भारत में न्यायिक प्रक्रिया तक पहुंच सभी वर्गों के लिए समान रूप से उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण, आर्थिक रूप से कमजोर और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लोग उच्च वकीलों की फीस, लंबी यात्रा लागत और कानूनी जानकारी की कमी के कारण न्याय पाने में पीछे रह जाते हैं। दूरदराज़ के इलाकों में अदालतें अक्सर कई किलोमीटर दूर स्थित होती हैं, जिससे वहां तक पहुंचना समय और संसाधन दोनों के लिहाज से चुनौतीपूर्ण हो जाता है। साथ ही, कानूनी सहायता तंत्र (Legal Aid System) होने के बावजूद इसकी गुणवत्ता और उपलब्धता पर्याप्त नहीं है, जिसके कारण कमजोर वर्ग न्याय से वंचित रह जाता है।

सुधार के लिए प्रमुख सुझाव

  • न्यायिक बुनियादी ढांचे को मजबूत करना: भारत की न्यायिक प्रणाली के सुचारू संचालन के लिए केवल न्यायाधीशों की नियुक्ति पर्याप्त नहीं है, बल्कि अदालतों की भौतिक और तकनीकी अवसंरचना को भी सुदृढ़ करना आवश्यक है। इसके अंतर्गत कोर्टरूम की संख्या बढ़ाना, आवश्यक सहायक स्टाफ की नियुक्ति करना, फाइल प्रबंधन के लिए आधुनिक उपकरण उपलब्ध कराना और सुनवाई कक्षों को ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग सुविधाओं से लैस करना शामिल है।
  • National Judicial Infrastructure Corporation जैसी संस्थाओं को वित्तीय और प्रशासनिक रूप से सशक्त बनाया जाए ताकि वे देशभर में न्यायालय भवनों, वर्चुअल कोर्ट सुविधाओं और रिकॉर्ड डिजिटलीकरण जैसी परियोजनाओं को गति दे सकें।
  • तकनीकी सुधार:21वीं सदी में न्यायिक प्रक्रिया को आधुनिक बनाने के लिए तकनीकी हस्तक्षेप आवश्यक है। कोर्ट परियोजना को देश के सभी जिलों और तहसीलों में तेजी से लागू किया जाना चाहिए, ताकि केस फाइलिंग, सुनवाई की तारीख, आदेश और फैसले ऑनलाइन उपलब्ध हो सकें।
  • वर्चुअल सुनवाई को केवल आपातकालीन स्थिति तक सीमित न रखकर इसे नियमित रूप से अपनाया जाना चाहिए, विशेषकर दूरस्थ क्षेत्रों, छोटे द्वीपों और जनजातीय इलाकों में, जहां शारीरिक रूप से अदालत में पहुंचना कठिन है।
  • मानव संसाधन में वृद्धि: मामलों की समयबद्ध सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए न्यायाधीशों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि करना आवश्यक है। साथ ही, न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को पूरी तरह पारदर्शी और योग्यता-आधारित बनाना चाहिए, जिससे न्यायपालिका पर जनता का विश्वास और मजबूत हो। इसके अतिरिक्त, न्यायिक प्रशिक्षण संस्थानों को अधिक संसाधन और आधुनिक पाठ्यक्रम प्रदान किए जाएं, ताकि नए न्यायाधीश तकनीकी, संवैधानिक और प्रशासनिक सभी प्रकार की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हों।
  • प्रक्रियाओं का सरलीकरण:न्यायिक प्रक्रियाओं की जटिलता को कम करने के लिए पुराने और अप्रासंगिक कानूनों की समीक्षा कर उन्हें समाप्त किया जाए। मुकदमों के समाधान के लिए वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्र; जैसे मध्यस्थता, सुलह और लोक अदालतों को बढ़ावा दिया जाए, जिससे छोटे और सिविल विवाद अदालतों तक न पहुंचकर शीघ्र निपट जाएं और अदालतों का बोझ कम हो।
  • जवाबदेही और पारदर्शिता: न्यायपालिका में जवाबदेही बनाए रखने के लिए न्यायिक आचरण संहिता का कड़ाई से पालन होना चाहिए। मामलों के निपटान के लिए समयसीमा तय की जाए और एक निगरानी तंत्र विकसित किया जाए जो लंबित मामलों की प्रगति पर नियमित रूप से नजर रख सके। इसके साथ ही, फैसलों और आदेशों को सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध कराना चाहिए, ताकि पारदर्शिता बनी रहे और न्यायिक व्यवस्था पर जनता का भरोसा कायम हो।

सरकार के द्वारा उठाये कदम

  • कोर्ट परियोजना का तीसरा चरण: भारत सरकार ने कोर्ट परियोजना के तीसरे चरण की शुरुआत की है, जिसका उद्देश्य न्यायिक प्रणाली का पूर्ण डिजिटलीकरण करना है। इस चरण में केस मैनेजमेंट सिस्टम को और उन्नत बनाना, सभी अदालतों में डिजिटल फाइलिंग की सुविधा देना, ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग लागू करना, और वर्चुअल सुनवाई को नियमित रूप से उपलब्ध कराना शामिल है। इसका मकसद न्यायिक प्रक्रियाओं को तेज, पारदर्शी और नागरिकों के लिए अधिक सुलभ बनाना है।
  • फास्टट्रैक कोर्ट की स्थापना: लंबित मामलों की संख्या कम करने और विशेष श्रेणी के मामलों (जैसे महिला एवं बाल अपराध, यौन शोषण, वरिष्ठ नागरिकों के मामलों) के त्वरित निपटान के लिए केंद्र और राज्यों के सहयोग से फास्टट्रैक कोर्ट स्थापित किए गए हैं। इन अदालतों में मामलों की सुनवाई प्राथमिकता के आधार पर की जाती है, जिससे पीड़ितों को समय पर न्याय मिल सके।
  • नेशनल लॉ पॉलिसी के मसौदे पर चर्चा: सरकार एक राष्ट्रीय विधि नीति (National Law Policy) के मसौदे पर विचार कर रही है, जिसमें कानूनों के सरलीकरण, पुराने और अप्रासंगिक कानूनों को निरस्त करने, कानूनी शिक्षा में सुधार, और न्याय तक समान पहुंच सुनिश्चित करने के उपाय शामिल हैं। इस नीति का उद्देश्य न्यायिक प्रणाली को अधिक कुशल, समावेशी और नागरिक-केन्द्रित बनाना है।

भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के कुछ मुख्य तथ्य

  • स्थापना: 26 जनवरी 1950 को अस्तित्व में आया, 28 जनवरी 1950 को “भारत की संघीय अदालत” के स्थान पर उद्घाटन हुआ।
  • संवैधानिक आधार: संविधान के भाग V, अध्याय 4, अनुच्छेद 124-147 में परिभाषित।
  • संरचना: 30 न्यायाधीश और 1 मुख्य न्यायाधीश; सेवानिवृत्ति आयु 65 वर्ष।
  • भवन: इंडो-ब्रिटिश शैली में 17 एकड़ भूमि पर निर्मित, न्याय के तराजू का प्रतीक। वास्तुकार गणेश भीकाजी देवलकर।
  • शुरुआती दिनों में साल में केवल 28 दिन ही कार्यवाही होती थी, अब 190 दिन।
  • पहली महिला न्यायाधीश: फातिमा बीवी (1989 में नियुक्त)।
  • न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा, वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सिफारिश पर होती है।
  • सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीश किसी अदालत में कार्य नहीं कर सकते, पर आयोगों में नियुक्त हो सकते हैं।

निष्कर्ष

भारत में न्यायिक सुधार केवल तकनीकी बदलाव का विषय नहीं, बल्कि यह न्याय तक समान, सुलभ और त्वरित पहुंच सुनिश्चित करने की दिशा में एक व्यापक पहल होनी चाहिए। न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका को मिलकर एक ऐसे न्यायिक पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करना होगा जो पारदर्शी, कुशल और आम जनता के लिए भरोसेमंद हो।

 

 

 

 


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