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न्यायिक सर्वोच्चता  बनाम संसदीय सर्वोच्चता : एक बहस

परिचय

न्यायिक सर्वोचिता और संसदीय सर्वोचिता का टकराव भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के मूल में है। यह लेख संविधानिक प्रावधानों, सर्वोच्च न्यायालय के हाल के मामलों और विभिन्न नेताओं के बयानों के माध्यम से इस मुद्दे का राजनीतिक विज्ञान दृष्टिकोण से विश्लेषण करता है। हाल के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले और नेताओं के बयान इस टकराव को और स्पष्ट करते हैं।

संविधानिक ढांचा

भारतीय संविधान संसदीय सर्वोचिता और न्यायिक सर्वोचिता के बीच संतुलन स्थापित करता है। प्रमुख अनुच्छेद निम्नलिखित हैं:

  1. अनुच्छेद 13: कानून जो मौलिक अधिकारों के विरुद्ध हों, शून्य होंगे। यह न्यायिक समीक्षा का आधार है।

  2. अनुच्छेद 368: संसद को संविधान संशोधन की शक्ति देता है, लेकिन केसवनंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में मूल संरचना सिद्धांत ने इस शक्ति को सीमित किया।

  3. अनुच्छेद 245 और 246: संसद को विधायी शक्ति प्रदान करते हैं, जो संसदीय सर्वोचिता का आधार है।

  4. अनुच्छेद 124 और 214: सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करते हैं, जो न्यायिक सर्वोचिता का आधार है।

संसदीय सर्वोच्चता : आधार और सीमाएँ

संसदीय सर्वोचिता का सिद्धांत संसद को विधायी सर्वोच्चता प्रदान करता है, लेकिन यह संविधान की सीमाओं के अधीन है। शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1951) में संसद की व्यापक शक्ति को मान्यता दी गई, लेकिन गोलकनाथ (1967) और केसवनंद भारती (1973) ने इसे सीमित किया। हाल के संदर्भ में, उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 8 अप्रैल 2025 को सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले पर टिप्पणी की, जिसमें तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा बिलों में देरी को अवैध ठहराया गया। धनखड़ ने कहा, “संसद सर्वोच्च है और उसके ऊपर कुछ भी नहीं हो सकता।” यह बयान संसदीय सर्वोचिता के प्रति उनके दृष्टिकोण को दर्शाता है।

न्यायिक सर्वोचिता: भूमिका और हाल के मामले

न्यायिक सर्वोचिता सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक समीक्षा की शक्ति पर आधारित है। हाल के कुछ महत्वपूर्ण मामले इसकी भूमिका को रेखांकित करते हैं:

  1. वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025: सर्वोच्च न्यायालय यह तय करेगा कि क्या यह अधिनियम धार्मिक समुदायों के प्रबंधन की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है। यह मामला केंद्र सरकार के वक्फ संपत्तियों पर नियंत्रण की डिग्री को प्रभावित करेगा।

  2. राज्यपालों द्वारा बिलों पर देरी (8 अप्रैल 2025): सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर राज्यपालों द्वारा भेजे गए लंबित विधेयकों पर निर्णय लेना चाहिए। इस फैसले को उप-राष्ट्रपति धनखड़ ने न्यायिक हस्तक्षेप करार दिया, यह कहते हुए कि “भारत ने ऐसे लोकतंत्र की कल्पना नहीं की थी।”

  3. न्यायिक रिक्तियों की निगरानी: सर्वोच्च न्यायालय जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में रिक्तियों को भरने के लिए उच्च न्यायालयों और राज्य सरकारों द्वारा उठाए गए कदमों की निगरानी कर रहा है।

  4. त्रिभाषा नीति (2025): सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से पूछा कि क्या त्रिभाषा नीति लागू करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के बीच कोई समन्वय है। यह मामला शिक्षा नीति में संसद और न्यायपालिका की भूमिका को दर्शाता है।

नेताओं के हाल के बयान

  1. उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़: धनखड़ ने सर्वोच्च न्यायालय के 8 अप्रैल 2025 के फैसले की आलोचना की, जिसमें राज्यपालों द्वारा बिलों में देरी को अवैध ठहराया गया। उन्होंने कहा कि यह फैसला संसदीय सर्वोचिता पर अतिक्रमण है।

  2. न्यायमूर्ति सूर्य कांत: उन्होंने कहा, “राष्ट्र की न्याय का मापदंड सबसे गरीब और हाशिए पर रहने वाले लोगों की सुरक्षा की भावना में निहित है।” यह बयान न्यायिक सर्वोचिता की सामाजिक न्याय की भूमिका को रेखांकित करता है।

  3. न्यायमूर्ति बी.आर. गवई: उन्होंने कहा, “नागरिकों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करना आवश्यक है, अन्यथा वे उनका प्रवर्तन नहीं करेंगे।” यह न्यायपालिका की जागरूकता बढ़ाने की भूमिका को दर्शाता है।

राजनीतिक विज्ञान दृष्टिकोण

  1. शक्ति संतुलन: विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन भारतीय लोकतंत्र का आधार है। हाल के मामलों, जैसे वक्फ संशोधन और बिलों पर देरी, में न्यायपालिका ने संवैधानिकता को प्राथमिकता दी, जिससे संसद के साथ तनाव बढ़ा।

  2. लोकतांत्रिक जवाबदेही: संसद जनता द्वारा चुनी जाती है, लेकिन न्यायपालिका मौलिक अधिकारों और संविधान की रक्षा करती है। धनखड़ के बयान संसदीय सर्वोचिता को लोकतांत्रिक जवाबदेही से जोड़ते हैं, जबकि न्यायमूर्ति सूर्य कांत और गवई के बयान न्यायिक सर्वोचिता को सामाजिक न्याय से जोड़ते हैं।

  3. संवैधानिकता बनाम लोकप्रियता: केसवनंद भारती और मिनर्वा मिल्स जैसे मामलों ने संवैधानिकता को प्राथमिकता दी। हाल के फैसले, जैसे बिलों पर समयसीमा, इस दृष्टिकोण को जारी रखते हैं।

भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति और कॉलेजियम प्रणाली

कॉलेजियम प्रणाली, जो पहले से कार्यरत न्यायाधीशों को संवैधानिक न्यायालयों के लिए नए न्यायाधीशों का चयन करने की अनुमति देती है, न्यायपालिका और प्रशासनिक शाखा के बीच तनाव का एक प्रमुख स्रोत है। भारत के मुख्य न्यायाधीश और उनके चार सबसे वरिष्ठ सहयोगी कॉलेजियम प्रणाली के तहत भारत के राष्ट्रपति को सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के लिए उम्मीदवारों की सिफारिश करते हैं।

कॉलेजियम प्रणाली के पीछे तर्क यह है कि जब राजनीतिक नेता न्यायिक चयन करने के लिए जिम्मेदार होते हैं तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता किया जा सकता है। कॉलेजियम प्रणाली न्यायिक शाखा को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाती है।

वैश्विक तस्वीर: तुलनात्मक विश्लेषण

यूनाइटेड किंगडम, भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका पर ध्यान केंद्रित करते हुए इन अवधारणाओं का तुलनात्मक विश्लेषण नीचे दी गई तालिका में दिया गया है:

पहलूयूनाइटेड किंगडमसंयुक्त राज्य अमेरिकाभारत
संविधान की लिखित प्रकृतियूनाइटेड किंगडम का संविधान अलिखित है। संविधान कई क़ानूनों, संधियों और न्यायिक निर्णयों से बना है।संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान एक ही दस्तावेज़ के रूप में व्यक्तियों के एक समूह द्वारा बनाया गया था। 1787 में इसका मसौदा तैयार होने के बाद से, संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में कई संशोधन हुए हैं।भारत का संविधान दुनिया के सबसे बड़े लिखित संविधानों में से एक है। 1950 में जब यह संविधान पहली बार लागू हुआ था, तब से लेकर अब तक भारत के संविधान में कई बार संशोधन किया जा चुका है।
कानून बनाने की शक्ति की सीमाएंसंसदीय संप्रभुता ब्रिटिश संवैधानिक प्रणाली का मूल है। संसद के पास यूनाइटेड किंगडम में किसी भी कानून को पारित करने या निरस्त करने का निर्विवाद अधिकार है।संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान न्यायालयों को दस्तावेज़ की व्याख्या करने तथा उसका उल्लंघन करने वाले कानूनों को अमान्य घोषित करने का अधिकार प्रदान करता है।भारतीय न्यायपालिका को कानूनों की वैधता की जांच करने और संविधान का उल्लंघन करने पर उन्हें अमान्य घोषित करने का अधिकार है।
न्यायिक समीक्षायूनाइटेड किंगडम में न्यायिक समीक्षा की कोई औपचारिक प्रणाली नहीं है, क्योंकि उसके पास ऐसा संविधान नहीं है जिसके आधार पर कानूनों की समीक्षा की जा सके।मार्बरी बनाम मैडिसन (1803) मामले ने न्यायिक समीक्षा की अवधारणा को स्थापित किया।भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13, 32, 131-136, 143, 226 और 246 द्वारा न्यायिक समीक्षा की स्पष्ट गारंटी दी गई है।
मौलिक अधिकारों का उपचारयूनाइटेड किंगडम में अधिकारों का कोई व्यापक चार्टर नहीं है। 1998 का ​​मानवाधिकार अधिनियम यूनाइटेड किंगडम के सभी नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता की गारंटी देता है।अमेरिकी संविधान में अधिकारों का विधेयक यह सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिकों की बुनियादी स्वतंत्रता सुरक्षित रहे। अमेरिकी न्यायपालिका के पास ऐसे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कानूनों को रद्द करने का अधिकार है।भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12-35 मौलिक अधिकारों को परिभाषित करते हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि संसद संविधान के मूल ढांचे को खतरे में डालकर उसमें संशोधन नहीं कर सकती।

भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति और कॉलेजियम प्रणाली

कॉलेजियम प्रणाली, जो पहले से कार्यरत न्यायाधीशों को संवैधानिक न्यायालयों के लिए नए न्यायाधीशों का चयन करने की अनुमति देती है, न्यायपालिका और प्रशासनिक शाखा के बीच तनाव का एक प्रमुख स्रोत है। भारत के मुख्य न्यायाधीश और उनके चार सबसे वरिष्ठ सहयोगी कॉलेजियम प्रणाली के तहत भारत के राष्ट्रपति को सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के लिए उम्मीदवारों की सिफारिश करते हैं।

कॉलेजियम प्रणाली के पीछे तर्क यह है कि जब राजनीतिक नेता न्यायिक चयन करने के लिए जिम्मेदार होते हैं तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता किया जा सकता है। कॉलेजियम प्रणाली न्यायिक शाखा को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाती है।

समालोचना

न्यायिक सर्वोचिता और संसदीय सर्वोचिता का टकराव भारतीय लोकतंत्र की गतिशीलता को दर्शाता है। हाल के मामले, जैसे वक्फ संशोधन और बिलों पर देरी, इस टकराव को और स्पष्ट करते हैं। उप-राष्ट्रपति धनखड़ के बयान संसदीय सर्वोचिता पर जोर देते हैं, जबकि न्यायमूर्ति सूर्य कांत और गवई के बयान न्यायिक सर्वोचिता की सामाजिक और संवैधानिक भूमिका को रेखांकित करते हैं। यह संतुलन भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करता है, जिसमें संसद और न्यायपालिका के बीच सतत संवाद बना रहता है।

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