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न्यूक्लियर डिटरेंस : समसामयिक वैश्विक परिप्रेक्ष्य

आज के अंतरराष्ट्रीय वातावरण में सुरक्षा संबंधी चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं, जिनमें अमेरिका और रूस के बीच परमाणु शक्ति के प्रदर्शन ने इस विषय को वैश्विक सुर्खियों में ला दिया है। जब अमेरिका के राष्ट्रपति ने पूर्व रूसी राष्ट्रपति मेदवेदेव के एक बयान के जवाब में दो अमेरिकी परमाणु पनडुब्बियों को तैनात करने का आदेश दिया तो एक नए तनाव का सूत्रपात हुआ। इसमें रूस के शीत युद्ध काल की ‘डेड हैंड’ प्रणाली का उल्लेख किया गया, जो आधुनिक कूटनीति और परमाणु राजनीति में प्रतिरोध, सिग्नलिंग और संकट प्रबंधन के जटिल संबंधों को उजागर करता है।

परमाणु राजनीति को समझना आज के वैश्विक तनावों और सुरक्षा के दृष्टिकोण से आवश्यक है। वर्तमान परिस्थितियों में परमाणु रणनीति की भूमिका कूटनीति में पहले से अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। रणनीतिक सिग्नलिंग वह प्रक्रिया है जिसमें देश अपने सैन्य कार्यों और वक्तव्यों के जरिए विरोधी देशों को प्रभावित करने और युद्ध की दहलीज से दूर रखने का प्रयास करते हैं। अमेरिकी परमाणु पनडुब्बियों की तैनाती इसी रणनीति का उदाहरण है, जिसमें अमेरिका ने शक्ति और संकल्प का स्पष्ट संकेत दिया।

रूस की ‘डेड हैंड’ प्रणाली की चर्चा एक दृढ़ प्रस्थानक संकेत है, जो स्वचालित परमाणु प्रतिशोध क्षमता को रेखांकित करता है। यह शक्ति प्रदर्शन की परम उग्रता का परिचायक है। वहीं अमेरिकी निर्णय को ‘महंगे संकेत’ के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि इसमें सैन्य संसाधनों की तैनाती, जोखिम और कूटनीतिक परिणाम जुड़े हैं। यह सिर्फ बयानबाज़ी नहीं, बल्कि वास्तविक संयम और शक्ति का प्रमाण है। रूस द्वारा अमेरिकी कार्रवाई को दरकिनार करना और अपनी नौसैनिक क्षमता को प्रमुख बताना एक काउंटर-सिग्नल है, जिससे अपनी मजबूती का संदेश विरोधी तक जाता है।

परमाणु प्रतिरोध का सिद्धांत यही बताता है कि किसी भी देश पर हमला करने के पहले दुस्साहस को परमाणु प्रतिशोध की आशंका रोकती है। इसका आधार यह है कि परमाणु हथियारों की विनाशकारी शक्ति किसी भी आक्रमणकर्ता के लिए स्थिति को घातक बना देती है, जिससे लाभ के अपेक्षित परिणाम पीछे रह जाते हैं।

शीत युद्ध के दौरान ‘आपसी सुनिश्चित विनाश’ की नीति ने वैश्विक राजनीति की दिशा तय की थी। इस सिद्धांत के अनुसार यदि दोनों बड़े देश एक-दूसरे को पूरी तरह नष्ट कर सकते हैं, तो कोई पक्ष पहले हमला नहीं करेगा। यही वजह थी कि अमेरिका और सोवियत संघ के बीच प्रत्यक्ष सैन्य संघर्ष नहीं हुआ, चाहे हथियारों की दौड़ लगातार बढ़ती रही। क्यूबा मिसाइल संकट इस प्रतिरोध की परीक्षा थी, जिसने 1963 में वॉशिंगटन-मॉस्को हॉटलाइन की शुरुआत की, जिससे संकट प्रबंधन के लिए प्रत्यक्ष संवाद संभव हुआ।

अमेरिकी राष्ट्रपति केनेडी के काल में परमाणु नीति में एक बदलाव आया, जिससे सिर्फ भारी रिटेलिएशन की बजाय “तार्किक प्रतिक्रिया” सिद्धांत अपनाया गया। इसमें परमाणु और पारंपरिक सैन्य क्षमताएं दोनों विकसित की गईं, ताकि आक्रमण के अलग-अलग स्तरों पर विभिन्न विकल्प उपलब्ध रहें और परमाणु हथियारों की जुर्रत को कम किया जा सके।

आज का परमाणु परिदृश्य और चुनौती:

आधुनिक समय में परमाणु परिदृश्य अत्यंत जटिल हो चुका है। परमाणु हथियारों के प्रसार, अद्यतन कार्यक्रमों और ‘कम शक्ति’ वाले हथियारों के विकास ने रणनीतिक समीकरण बदल दिए हैं। अब नौ देश परमाणु हथियार संपन्न हैं—अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, भारत, पाकिस्तान, इज़रायल और उत्तर कोरिया। इन सभी देशों ने अपने परमाणु शस्त्रागार के आधुनिकीकरण पर जोर दिया है। उदाहरण के रूप में, अमेरिका अगले दशक में अपने परमाणु बलों पर लगभग 946 अरब डॉलर खर्च करेगा, वहीं चीन की योजना 2030 तक 1000 से ज्यादा हथियार प्राप्त करने की है।

विश्व में कुल परमाणु हथियारों की संख्या 12,241 है, जिसमें 90% से अधिक अमेरिका और रूस के पास हैं। जबकि अन्य देश भी अपने शस्त्रागार को नियंत्रित तरीकों से बढ़ा रहे हैं। इन सबके बीच, परमाणु अप्रसार संधि अब नई चुनौतियों से जूझ रही है—चाहे वह निरस्त्रीकरण में धीमी प्रगति हो, संधि का उल्लंघन या दोहरे मानकों की समस्या। पूर्ण परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि का लागू न होना और फिसाइल सामग्री कटऑफ संधि पर रुकावट भी इन प्रयासों को कठिन बना रही है। यूक्रेन संकट और ईरान की परमाणु गतिविधियों से वैश्विक व्यवस्था की विश्वसनीयता भी प्रभावित हुई है।

परमाणु संकटों से टकराने के लिए कूटनीतिक संवाद अति आवश्यक है। इसका उद्देश्य संकट के दौरान शांति और सुरक्षा को बनाए रखना है। संकट के क्षणों में त्वरित संवाद के लिए ‘हॉटलाइन’ की स्थापना जैसे उपायों ने गलती से युद्ध की आशंका को कम किया। भरोसा निर्माण के उपाय, जैसे सैन्य पर्यवेक्षण, सूचना साझा करना, और संयुक्त अभ्यास, भी तनावों को घटाते हैं।

भारत के परमाणु कार्यक्रम के सन्दर्भ में, 1944 में होमी भाभा द्वारा टाटा विज्ञान संस्थान स्थापना से परमाणु ऊर्जा यात्रा शुरू हुई। भारत ने हमेशा शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु ऊर्जा को प्राथमिकता दी, लेकिन साथ ही सुरक्षा के लिए परमाणु हथियारों का विकास भी कायम रखा। भारत की परमाणु नीति दो सिद्धांतों पर आधारित है—पहले प्रयोग न करने की नीति और विश्वसनीय न्यूनतम प्रतिरोध। पहले प्रयोग न करने की नीति 2003 में स्थापित हुई, जिसमें भारत ने वचन दिया कि वह परमाणु हथियारों का इस्तेमाल किसी शत्रु पर पहले नहीं करेगा, अपवादस्वरूप जैविक या रासायनिक हमले की स्थिति में प्रतिशोध किया जा सकता है।

विश्वसनीय न्यूनतम प्रतिरोध का अर्थ है कि भारत अपनी सुरक्षा के लिए उतनी ही परमाणु क्षमता रखता है, जिससे संभावित शत्रु को होश रहे, मगर हथियारों की अनावश्यक होड़ न हो। भारत के परमाणु बलों का ढांचा इस दृष्टि से तैयार किया गया है कि थल, जल और वायु तीनों माध्यमों में परमाणु हमला करने की सामर्थ्य हो। इसका संचालन ‘रणनीतिक परमाणु कमांड’ के जिम्मे है।

परमाणु प्रतिरोध ने 1971 के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखी है, परंतु दोनों देशों की बदलती क्षमताओं तथा तकनीकी विकास से यह संतुलन चुनौतीपूर्ण भी बन गया है। क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा की जटिलताओं को देखते हुए परमाणु प्रतिरोध के सिद्धांतों का संपूर्ण परीक्षण होता है।

आज जब परमाणु शक्ति विश्व राजनीति की दिशा तय करती है, ऐसे में पुराने सीखों को समसामयिक चुनौतियों से जोड़ते हुए यह स्पष्ट है कि परमाणु हथियार प्रतिरोध तो देते हैं, पर साथ ही गंभीर जोखिम भी पैदा करते हैं। अंतरराष्ट्रीय समाज को संवाद, नियंत्रण, और अच्छे प्रबंधन के उपायों को प्राथमिकता देनी चाहिए, ताकि परमाणु इस्तेमाल की आशंका घटे और संपूर्ण विश्व शांति ओर बढ़ सके। मानवता के भविष्य के लिए निरंतर सतर्कता, सहयोग, और अप्रसार के सकारात्मक प्रयास अहम हैं।


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