बीसवीं सदी मानव इतिहास की सबसे हिंसक शताब्दियों में से एक रही है। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध ने न केवल करोड़ों लोगों की जान ली, बल्कि यह भी सिद्ध कर दिया कि जब विज्ञान और तकनीक युद्ध के हाथों में पड़ती है तो वह विनाश का सबसे घातक साधन बन जाती है। द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका द्वारा परमाणु बम गिराए जाने के बाद पूरी दुनिया ने परमाणु हथियारों की असली भयावहता देखी। इसके बाद से ही ‘परमाणु निरस्त्रीकरण’ (Nuclear Disarmament) की आवश्यकता पर वैश्विक विमर्श शुरू हुआ। परमाणु हथियारों की अंधाधुंध दौड़ ने मानव सभ्यता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया।
आज जबकि विश्व में नौ देशों (अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस, भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया और इज़राइल) के पास परमाणु हथियार हैं, परमाणु निरस्त्रीकरण का मुद्दा और भी महत्वपूर्ण हो गया है।
परमाणु निरस्त्रीकरण का अर्थ और महत्व
परमाणु निरस्त्रीकरण का तात्पर्य है – परमाणु हथियारों को कम करना या पूरी तरह से समाप्त करना। इसका लक्ष्य ऐसी दुनिया बनाना है जहाँ किसी भी राष्ट्र के पास परमाणु हथियार न हों और अंतरराष्ट्रीय शांति कायम हो सके।
इसका महत्व तीन कारणों से है:
- मानवता की सुरक्षा – परमाणु युद्ध का असर केवल सैनिकों पर नहीं, बल्कि लाखों निर्दोष नागरिकों पर भी पड़ता है।
- पर्यावरण संरक्षण – परमाणु विस्फोट रेडियोधर्मी प्रदूषण फैलाते हैं, जो पीढ़ियों तक नुकसान पहुँचाते हैं।
- आर्थिक विकास – हथियारों पर भारी खर्च की बजाय यदि संसाधन शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास पर खर्च हों तो मानव कल्याण बढ़ सकता है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
द्वितीय विश्व युद्ध और शुरुआत
1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमलों के बाद पूरी दुनिया में यह डर फैल गया कि यदि ऐसे हथियारों का बड़े पैमाने पर उपयोग हुआ तो मानव सभ्यता खत्म हो सकती है।
शीत युद्ध और हथियारों की दौड़
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ में शीत युद्ध शुरू हुआ। दोनों देशों ने हजारों की संख्या में परमाणु हथियार बना लिए। यह ‘हथियारों की दौड़’ (Arms Race) कहलायी।
अंतरराष्ट्रीय प्रयास
- हेग सम्मेलन (1899 और 1907) ने सबसे पहले शांति और हथियार नियंत्रण की दिशा में चर्चा की थी।
- जिनेवा प्रोटोकॉल (1925) ने रासायनिक और जैविक हथियारों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया।
- 1960 के दशक में ‘आंशिक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि’ (PTBT) और 1968 की परमाणु अप्रसार संधि (NPT) सबसे अहम कदम बने।
प्रमुख अंतरराष्ट्रीय संधियाँ
परमाणु अप्रसार संधि (NPT), 1968
- यह संधि केवल पाँच देशों (अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन) को वैध परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र मानती है।
- अन्य सभी देशों को परमाणु हथियार बनाने से रोकती है।
- भारत, पाकिस्तान और इज़राइल ने इस पर हस्ताक्षर नहीं किए क्योंकि यह संधि ‘भेदभावपूर्ण’ मानी जाती है।
आंशिक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (PTBT), 1963
- इसमें वातावरण, जल और अंतरिक्ष में परमाणु परीक्षण पर प्रतिबंध लगाया गया, हालांकि भूमिगत परीक्षण की अनुमति रही।
व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (CTBT), 1996
- सभी तरह के परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबंध का प्रयास।
- अभी तक यह पूरी तरह लागू नहीं हो सका क्योंकि अमेरिका और चीन सहित कई देशों ने इसे अनुमोदित नहीं किया।
सामरिक शस्त्र सीमा और न्यूनीकरण संधियाँ (SALT और START)
- अमेरिका और सोवियत संघ/रूस के बीच हुए समझौते, जिनमें परमाणु हथियारों की संख्या को सीमित करने और घटाने पर सहमति बनी।
- START-I (1991) ने अमेरिका के हथियारों में 15% और रूस के हथियारों में 25% कमी कराई।
- नई START संधि (2010) के तहत दोनों देशों ने अपने रणनीतिक हथियारों को सीमित करने पर सहमति जताई।
परमाणु हथियारों के निषेध पर संधि (TPNW), 2017
- संयुक्त राष्ट्र द्वारा पारित, इसे 122 देशों ने समर्थन दिया।
- यह परमाणु हथियारों के निर्माण, भंडारण और उपयोग को गैरकानूनी घोषित करती है।
- परंतु अमेरिका, रूस, चीन, भारत और पाकिस्तान जैसे परमाणु संपन्न देश इसके पक्षकार नहीं बने।
परमाणु–मुक्त क्षेत्र और क्षेत्रीय संधियाँ
कई क्षेत्रों ने परमाणु हथियारों से मुक्त रहने की संधियाँ की हैं, जैसे:
- ट्लाटेलोल्को संधि (1968) – लैटिन अमेरिका को परमाणु-मुक्त क्षेत्र बनाया।
- बैंकॉक संधि (1997) – दक्षिण-पूर्व एशिया में परमाणु हथियार निषेध।
- पेलिन्डाबा संधि (1996) – अफ्रीका को परमाणु हथियार-मुक्त क्षेत्र बनाया।
- रारोटोंगा संधि (1985) – दक्षिण प्रशांत को परमाणु-मुक्त क्षेत्र घोषित किया।
भारत का दृष्टिकोण
भारत परमाणु हथियारों को लेकर एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाता है।
- परमाणु परीक्षण – भारत ने 1974 में ‘स्माइलिंग बुद्धा’ नाम से पहला परमाणु परीक्षण किया और 1998 में पोखरण-II में पाँच परीक्षण किए।
- परमाणु सिद्धांत – भारत का परमाणु सिद्धांत तीन स्तंभों पर आधारित है:
- No First Use (पहले उपयोग न करने की नीति)
- Credible Minimum Deterrence (विश्वसनीय न्यूनतम प्रतिरोधक क्षमता)
- Nuclear Command Authority (सर्वोच्च नियंत्रण व्यवस्था)
- भारत और NPT/CTBT – भारत ने इन पर हस्ताक्षर नहीं किए क्योंकि यह भेदभावपूर्ण मानी जाती हैं। भारत का मानना है कि निरस्त्रीकरण ‘गैर-भेदभावपूर्ण’ और ‘समानता के आधार’ पर होना चाहिए।
- TPNW – भारत ने इसमें भाग नहीं लिया और कहा कि यह व्यावहारिक नहीं है क्योंकि परमाणु संपन्न देश खुद प्रतिबद्ध नहीं हैं।
भारत–अमेरिका परमाणु समझौता (2005–2008)
- इसे ‘123 समझौता’ भी कहा जाता है।
- इसने भारत को असैन्य परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के लिए अमेरिका और अन्य देशों से सहयोग प्राप्त करने का मार्ग खोला।
- भारत ने अपनी असैन्य परमाणु स्थापनाओं को अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IAEA) की निगरानी में रखा।
- इसके बाद भारत को ‘न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप’ से छूट मिली और भारत वैश्विक असैन्य परमाणु ऊर्जा बाजार में शामिल हुआ।
चुनौतियाँ
- महाशक्तियों का रवैया – अमेरिका और रूस अभी भी बड़े परमाणु भंडार रखते हैं।
- चीन–पाकिस्तान फैक्टर – भारत के लिए पड़ोसी देशों की परमाणु नीति एक चुनौती है।
- अंतरराष्ट्रीय राजनीति – सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य स्वयं परमाणु संपन्न हैं और निरस्त्रीकरण की दिशा में गंभीर कदम नहीं उठाते।
- आतंकवाद और अनधिकृत उपयोग – यह खतरा बना रहता है कि परमाणु तकनीक गलत हाथों में न चली जाए।
भविष्य की संभावनाएँ
- बहुपक्षीय प्रयास – केवल अमेरिका-रूस नहीं, बल्कि सभी परमाणु संपन्न देशों को साथ लाना होगा।
- विश्वसनीय निरीक्षण प्रणाली – IAEA जैसी संस्थाओं को और सशक्त करना होगा।
- भारत की भूमिका – भारत, जो ‘गैर-भेदभावपूर्ण निरस्त्रीकरण’ की मांग करता है, भविष्य में मध्यस्थ और जिम्मेदार शक्ति की भूमिका निभा सकता है।
- नई तकनीक और शांति आंदोलन – वैश्विक नागरिक समाज और विज्ञान की प्रगति से निरस्त्रीकरण को बढ़ावा मिल सकता है।
निष्कर्ष
परमाणु हथियार मानव सभ्यता के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। इनकी विनाशक क्षमता इतनी अधिक है कि एक छोटा-सा युद्ध भी पूरी मानवता को तबाह कर सकता है। अब समय आ गया है कि दुनिया परमाणु निरस्त्रीकरण की दिशा में वास्तविक और व्यावहारिक कदम उठाए। भारत जैसे देशों का यह दायित्व है कि वे ‘वैश्विक, गैर-भेदभावपूर्ण और चरणबद्ध निरस्त्रीकरण’ की वकालत करें और शांति के प्रयासों को आगे बढ़ाएँ।
अंततः, परमाणु हथियारों से मुक्त दुनिया केवल एक सपना नहीं, बल्कि मानव अस्तित्व के लिए अनिवार्य शर्त है। यदि यह सपना साकार नहीं हुआ तो आने वाली पीढ़ियाँ शायद हमें माफ़ न करें।