भारत में नए परिसीमन (Delimitation) पर चर्चा तेज़ हो रही है। कुछ सुझाव सामने आए हैं, जिनमें संसद में सीटों की संख्या स्थिर रखने और केवल विधानसभा सीटों की संख्या बढ़ाने की बात की गई है। यह अधिक लोकतांत्रिक विकल्प माना जा रहा है, क्योंकि विधानसभाओं के सदस्य अपने क्षेत्र के लोगों से सीधे जुड़े होते हैं। जबकि, यह भी समझना ज़रूरी है कि परिसीमन से दक्षिणी राज्यों के राजनीतिक संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। दक्षिणी राज्यों की यह आशंका है कि जनसंख्या के आधार पर नए परिसीमन से उनकी संसदीय शक्ति कम हो सकती है, जबकि उत्तरी राज्यों को अधिक लाभ मिल सकता है।
परिसीमन (Delimitation) क्या है?
परिसीमन का अर्थ किसी राष्ट्र या राज्य की विधान सभा तथा लोकसभा के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं का निर्धारण करना है। यह कार्य एक स्वतंत्र और शक्तिशाली संगठन, जिसे परिसीमन आयोग या सीमा आयोग कहा जाता है, को सौंपा जाता है।
- भारत में परिसीमन आयोग को व्यापक अधिकार प्राप्त हैं, और इसके निर्णय कानून के समान प्रभाव रखते हैं, जिन्हें किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। भारत के राष्ट्रपति इन आदेशों की प्रभावी तिथि निर्धारित करते हैं। हालांकि, इन आदेशों की प्रतियां लोकसभा और संबंधित राज्य विधानसभाओं के समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं, लेकिन ये निकाय उनमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकते।
- भारत में परिसीमन (Delimitation) की प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 82 और अनुच्छेद 170 के तहत संचालित होती है। प्रत्येक जनगणना के बाद भारतीय संसद परिसीमन अधिनियम लागू करती है, जिसके अनुसार संसदीय और राज्य विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण किया जाता है।
- परिसीमन आयोग भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक उच्च-शक्ति निकाय है।
- इसके आदेश न्यायिक समीक्षा से परे हैं।
- इसके आदेशों की प्रतियां लोक सभा और संबंधित राज्य विधान सभा के समक्ष रखी जाती हैं, लेकिन उनके द्वारा इसमें किसी भी प्रकार के संशोधन की अनुमति नहीं है।
- यह “एक वोट एक मूल्य” के सिद्धांत पर कार्य करता है
भारत में अब तक चार बार परिसीमन किया गया है;
- 1952 (1952 अधिनियम के तहत)
- 1963 (1962 अधिनियम के तहत)
- 1973 (1972 अधिनियम के तहत)
- 2002 (2002 अधिनियम के तहत)
- 1981 और 1991 की जनगणना के बाद परिसीमन नहीं किया गया था।
- 84वें संविधान संशोधन (2002) के तहत परिसीमन को 2026 तक स्थगित किया गया, जिससे लोकसभा और विधानसभा सीटों की संख्या यथावत बनी रही।
संरचना
- परिसीमन आयोग भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है तथा भारत निर्वाचन आयोग के सहयोग से कार्य करता है।
सदस्य
- सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश
- मुख्य निर्वाचन आयुक्त
- संबंधित राज्य के निर्वाचन आयुक्त
क्या है दक्षिणी राज्यों की चिंता
भारत में 2026 में प्रस्तावित परिसीमन (Delimitation) को लेकर दक्षिणी राज्यों में गहरी चिंता है। यह आशंका है कि यदि जनसंख्या के आधार पर संसदीय सीटों का पुनर्वितरण हुआ, तो उत्तर भारत को अधिक सीटें मिलेंगी और दक्षिण भारत की राजनीतिक शक्ति घट जाएगी।
- 1951 से अब तक दक्षिणी राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण पर बेहतरीन कार्य किया है।
- केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में जन्म दर काफी कम हुई है। जबकि, उत्तर भारत के राज्यों (बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान) में जनसंख्या वृद्धि तेज़ बनी हुई है।
- यदि परिसीमन सिर्फ जनसंख्या पर आधारित होगा, तो दक्षिणी राज्य, जिन्होंने जनसंख्या नियंत्रण को सफल बनाया, वे ही सबसे अधिक नुकसान उठाएंगे।
- जैसे, 1962 में तमिलनाडु की 41 लोकसभा सीटें थीं, लेकिन जनसंख्या कम होने से अब 39 रह गईं है।
- यदि 2026 में जनसंख्या के अनुपात में पुनर्वितरण हुआ, तो उत्तर प्रदेश की सीटें बढ़ेंगी, लेकिन तमिलनाडु की सीटें स्थिर रहेंगी या घट सकती हैं।
संसाधनों और आर्थिक योगदान के बावजूद इन राज्यों की राजनीतिक शक्ति कम है। दक्षिण भारत भारत की कुल जीडीपी (GDP) का लगभग 30-35% योगदान देता है। और औद्योगिकीकरण, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक विकास में भी दक्षिण भारत आगे है। फिर भी, यदि संसदीय सीटें सिर्फ जनसंख्या के आधार पर बढ़ाई गईं, तो राजनीतिक फैसलों में दक्षिणी राज्यों की भूमिका घट जाएगी। जैसे; कर्नाटक और तमिलनाडु भारत के सबसे बड़े निर्यातक राज्य हैं। वहीँ केरल और आंध्र प्रदेश सामाजिक विकास सूचकांकों में आगे हैं।
परिसीमन – राजनीतिक असंतुलन का कारण बन सकता है?
- 2026 के परिसीमन के बाद उत्तर भारत के हिंदी भाषी राज्यों को अधिक सीटें मिलेंगी।
- इससे राजनीतिक शक्ति संतुलन पूरी तरह उत्तर भारत की ओर झुक सकता है।
- यदि संसद में उत्तर भारत का वर्चस्व बढ़ गया, तो नीतियाँ भी उन्हीं राज्यों को ध्यान में रखकर बनाई जाएंगी।
- इससे राज्यों के बीच मतभेद और क्षेत्रीय असंतोष बढ़ सकता है।
संघीय व्यवस्था पर ख़तरा
भारत की संघीय व्यवस्था (Federal Structure) राज्यों को समान अधिकार देती है, लेकिन परिसीमन के कारण यदि कुछ राज्यों की शक्ति घट गई, तो इससे राज्यों की स्वायत्तता पर असर पड़ेगा।
- दक्षिण भारत में “राजनीतिक स्वायत्तता” की माँग बढ़ सकती है।
- कुछ क्षेत्रीय दल परिसीमन के खिलाफ आंदोलन कर सकते हैं।
- “वन नेशन, वन पॉलिसी” लागू करना और कठिन हो सकता है।
जम्मू–कश्मीर और असम परिसीमन से सीख
भारत में हाल ही में दो बड़े परिसीमन हुए, 2022 में जम्मू-कश्मीर में और 2023 में असम में। इनसे मिली सीख को 2026 में प्रस्तावित परिसीमन में लागू किया जा सकता है।
2022 में जम्मू–कश्मीर का परिसीमन
- जम्मू-कश्मीर में परिसीमन केंद्रीय सरकार द्वारा गठित परिसीमन आयोग द्वारा किया गया था। इस प्रक्रिया की विपक्षी दलों और कई राजनीतिक विश्लेषकों ने आलोचना की।
- नए परिसीमन में जम्मू को 6 नई सीटें और कश्मीर को केवल 1 सीट मिली।
- इससे जम्मू का राजनीतिक प्रतिनिधित्व बढ़ गया और कश्मीर का अपेक्षाकृत कम हो गया।
- कोई नया लोकसभा क्षेत्र नहीं बना। और राजौरी और पूंछ को अनंतनाग लोकसभा क्षेत्र में जोड़ा गया। इससे प्रशासनिक और भौगोलिक जटिलताएँ बढ़ गईं, क्योंकि ये क्षेत्र पीर पंजाल रेंज के कारण कश्मीर से भौगोलिक रूप से अलग हैं।
- धार्मिक आधार पर भी सीटों का पुनर्गठन हुआ।
2023 में असम का परिसीमन
- असम में परिसीमन ने कई जनजातीय और मुस्लिम बहुल जिलों की सीटों को पुनर्गठित किया, जिससे विवाद पैदा हुआ।
- असम की 4 मुस्लिम बहुल जिलों की सीटें घटकर 35 से 31 रह गईं। कुछ आदिवासी बहुल क्षेत्रों को भी विभाजित किया गया।
- संख्या के आधार पर बरपेटा (2 सीटें), दर्रांग, नागांव, बिश्वनाथ, शिबसागर आदि की सीटों को समाप्त कर दिया गया। और नए परिसीमन में हिंदू बहुल सीटों को प्राथमिकता दी गई।
संभावित समाधान
- एक उपाय यह हो सकता है कि राज्यसभा की सीटों का पुनर्वितरण किया जाए, ताकि सभी राज्यों को समान रूप से प्रतिनिधित्व मिल सके। वर्तमान में राज्यसभा की सीटें राज्यों की जनसंख्या के आधार पर तय होती हैं। इसे क्षेत्रीय आधार पर विभाजित किया जा सकता है, जिससे उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और मध्य भारत को समान प्रतिनिधित्व मिले।
- क्षेत्रीय परिषदों (Zonal Councils) को मजबूत करना भी एक समाधान हो सकता है। इन परिषदों का गठन राज्यों के आपसी विवाद सुलझाने के लिए हुआ था, लेकिन हाल के वर्षों में इनकी बैठकें कम हुई हैं। इन्हें अधिक अधिकार देकर परिसीमन के प्रभाव को संतुलित किया जा सकता है।
- जनसंख्या के साथ-साथ आर्थिक योगदान, साक्षरता दर, औद्योगिक विकास और बुनियादी ढांचे को भी परिसीमन का आधार बनाया जाए।
- परिसीमन को किसी भी धर्म, जाति या भाषा के आधार पर न किया जाए।
- 15वें वित्त आयोग की तरह, संसाधनों के वितरण में केवल जनसंख्या नहीं, बल्कि राज्यों के विकास और योगदान को भी आधार बनाया जाए।
परिसीमन आयोग का महत्व
- स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करना है। यह जनसंख्या में हुए परिवर्तनों के अनुसार निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को पुनः निर्धारित करता है, जिससे सभी मतों का मूल्य समान हो जाता है। इस प्रक्रिया के माध्यम से लोकतंत्र सशक्त होता है, क्योंकि प्रत्येक नागरिक को समान मतदान अधिकार प्राप्त होता है।
- भारतीय परिसीमन आयोग को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होती है, और इसके निर्णय अंतिम माने जाते हैं, जिन्हें किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि आयोग के निर्देश केवल भारत के राष्ट्रपति द्वारा निर्दिष्ट तिथि से ही प्रभावी होते हैं।
- परिसीमन आयोग एक विधायी रूप से समर्थित स्वतंत्र निकाय है, जो राजनीतिक दलों और कार्यपालिका से पूर्णतः अलग होता है। इसका प्रमुख उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि निर्वाचन क्षेत्रों का निर्धारण जनसंख्या के समान वितरण के आधार पर किया जाए।
- इसके अतिरिक्त, परिसीमन आयोग निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या और सीमाओं का निर्धारण करता है तथा उन क्षेत्रों में, जहां महत्वपूर्ण संख्या में अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) समुदायों की आबादी है, उनके लिए सीटों का आरक्षण भी सुनिश्चित करता है।
निष्कर्ष
2026 का प्रस्तावित परिसीमन भारत की राजनीति और संघीय ढांचे के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकता है। यदि परिसीमन केवल जनसंख्या के आधार पर किया गया, तो दक्षिणी राज्यों की संसदीय शक्ति में कमी आएगी, जबकि उत्तर भारतीय राज्यों को अधिक सीटें मिलेंगी। इससे राजनीतिक संतुलन उत्तर भारत की ओर झुक सकता है, जिससे नीति-निर्माण में असंतुलन और क्षेत्रीय असंतोष उत्पन्न होने की संभावना है।
दक्षिणी राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण, औद्योगिक विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है, लेकिन यदि राजनीतिक प्रतिनिधित्व में उनकी भूमिका कम हो गई, तो इससे राज्यों के बीच आर्थिक और राजनीतिक असमानता बढ़ सकती है। जम्मू-कश्मीर और असम में हुए हालिया परिसीमन से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि यदि परिसीमन केवल राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग किया जाता है, तो यह संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए गंभीर खतरा बन सकता है।
इसलिए, यह आवश्यक है कि परिसीमन का आधार केवल जनसंख्या न होकर आर्थिक योगदान, विकास स्तर, सामाजिक सूचकांक और बुनियादी ढांचे को भी बनाया जाए। राज्यसभा में संतुलन, क्षेत्रीय परिषदों को सशक्त बनाना और संसाधनों के वितरण में न्यायसंगत दृष्टिकोण अपनाना परिसीमन से उत्पन्न असंतुलन को कम करने के प्रभावी समाधान हो सकते हैं। यदि परिसीमन प्रक्रिया को निष्पक्ष, वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित नहीं किया गया, तो यह भारत के लोकतंत्र और संघीय ढांचे के लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकता है। इस चुनौती का समाधान वास्तविक सहमति और संतुलित नीति-निर्माण के माध्यम से ही संभव है।
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