स्वतंत्रता दिवस 2025 पर लाल किले की प्राचीर से दिया गया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संबोधन आकांक्षा, आत्मविश्वास और आक्रामक राष्ट्रनीति का एक सम्मिलित बयान था जिसमें आर्थिक गति, सामाजिक समावेशन, ऊर्जा-तकनीक की छलांग, सीमा-पार सुरक्षा प्रतिरक्षा तथा लोकतांत्रिक-शासन-व्यवस्था में “अगली पीढ़ी के सुधारों” की घोषणाएँ एक साथ दिखीं; यह भाषण समकालीन भारत के “विकसित राष्ट्र 2047” के नैरेटिव को आगे बढ़ाता है, पर साथ ही कई स्तरों पर नीति-क्षमता, संघीय समन्वय, संसाधन-वित्तपोषण, अधिकार-सम्बंधी सुरक्षा और कार्यान्वयन की जटिलताओं को भी सामने लाता है जिन पर आलोचनात्मक विमर्श आवश्यक है। प्रधानमंत्री ने आर्थिक परिदृश्य को लेकर कहा कि भारत तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के मुहाने पर है; मुद्रास्फीति नियंत्रण में है और विदेशी मुद्रा भंडार मजबूत हैं—यह भरोसा अंतरराष्ट्रीय अनिश्चितताओं के बीच भारत की वित्तीय अनुशासन-क्षमता पर टिका है, पर इसके साथ राजस्व, व्यय-प्राथमिकताओं और राज्यों के साथ संसाधन-साझेदारी की संरचनात्मक चुनौतियाँ भी जुड़ी हैं जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता; “तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था” बनने का दावा जितना आकर्षक है, उतना ही व्यापक रोजगार-सृजन, उत्पादकता-वृद्धि, विनिर्माण विविधीकरण और निर्यात-प्रतिस्पर्धा पर स्थायी प्रगति की माँग करता है, वरना उच्च-विकास की कहानी खपत और सार्वजनिक-निवेश पर असंतुलित निर्भरता में सिमट सकती है।
प्रधानमंत्री ने “अगली पीढ़ी के सुधारों” के लिए समयबद्ध टास्क-फोर्स की घोषणा की—यह संकेत देता है कि देश न केवल नियम-कानूनों के सरलीकरण बल्कि नीति-प्रक्रिया, नियामकीय तथा संस्थागत सुधारों के नए चक्र में प्रवेश करना चाहता है; सवाल यह है कि इस टास्क-फोर्स के जन-सुनवाई, राज्यों के सहयोग, प्रभाव-मूल्यांकन और जवाबदेही के क्या प्रावधान होंगे ताकि सुधार केवल विधायी-प्रशासनिक सूची भरने की कवायद न बन जाएं; सुधारों का हितग्राही आख्यान तब ही टिकाऊ बनता है जब सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के अनुपालन-खर्च में ठोस कमी आए, निर्यात-लॉजिस्टिक्स सरल हों और गुणवत्ता-मानकों की उन्नति के लिए वित्त, कौशल तथा परीक्षण-ढांचा वास्तविक रूप से उपलब्ध हो। इसी सन्दर्भ में प्रधानमंत्री ने 40,000 से अधिक अनावश्यक कंप्लायंस खत्म करने, 1500 से अधिक पुराने कानून निरस्त करने और आयकर अधिनियम की 280 से अधिक धाराएँ समाप्त करने जैसे बड़े दावों का उल्लेख किया—काग़ज़ पर यह भारी-भरकम सफाई लगती है, पर जमीनी असर का पैमाना तभी स्पष्ट होगा जब छोटे उद्यमों की औसत अनुपालन-लागत, लाइसेंस-स्वीकृति समय, और विवाद-निवारण की अवधि में मापनीय गिरावट साबित हो; अन्यथा “डीरग्यूलेशन” का लाभ बड़े कॉरपोरेट तक सीमित रहने का जोखिम रहता है।
रोजगार और उद्यमिता मोर्चे पर 15 अगस्त से प्रभावी “प्रधानमंत्री विकसित भारत रोजगार योजना” के तहत पहली नौकरी पाने वालों के लिए प्रत्यक्ष सहायता तथा नए रोजगार सृजन पर कंपनियों को प्रोत्साहन का प्रावधान घोषित हुआ—यह अल्पकालीन रोजगार-प्रोत्साहन औज़ार उपयोगी हो सकता है, पर दीर्घकाल में कौशल-समंजन, श्रम-कानूनों के प्रवर्तन, और क्षेत्रीय-विषमताओं की भरपाई के बिना यह योजना “सब्सिडी-निर्भर भर्ती” का रूप भी ले सकती है; इससे बचने के लिए उत्पादकता-बढ़त, प्रशिक्षण-भत्तों का उद्योग-लिंक, और लाभ-नुकसान का कठोर मूल्यांकन जरूरी है। भाषण में महिलाओं की भागीदारी—सेल्फ-हेल्प ग्रुप नेटवर्क, “लखपति दीदी”, खेल-सेना-स्टार्टअप से लेकर स्पेस सेक्टर तक—का उत्सव मनाया गया; यह सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की एक सशक्त कथा है, पर इसके समानांतर महिला श्रम-बल भागीदारी दर, सुरक्षित कार्यस्थल, देखभाल-अर्थव्यवस्था के बुनियादी ढांचे और डिजिटल-क्रेडिट तक सस्ती पहुँच के ठोस मानक दर्शाने होंगे—सिर्फ प्रेरक उदाहरण पर्याप्त नहीं होंगे। समावेशी कल्याण में जनधन, आयुष्मान, पीएम आवास और रेहड़ी-पटरी वालों के लिए “स्वनिधि” जैसी योजनाएँ “सैचुरेशन” मॉडल की ओर बढ़ती दिखाई गईं; यह मॉडल नीति-कवरेज की सार्वभौमिकता की ओर संकेत करता है पर अंतिम मील पर पहचान-पत्र, पोर्टेबिलिटी, लाभ-कटौती के विवाद, और आवास-गुणवत्ता/स्थान-न्याय जैसे प्रश्न शेष रहते हैं; साथ ही DBT/UPI की तेज़ी के साथ डेटा-सुरक्षा और निजता-मानदंडों पर संसद/नियामक ढांचे की स्पष्टता भी जरूरी है ताकि “डिजिटल-राष्ट्र” का भरोसा संस्थागत मजबूती से जुड़ा रहे, केवल टेक्नोलॉजी-उत्साह से नहीं।
कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रधानमंत्री ने “कम फसल लेने वाले 100 जिलों” की पहचान कर उन्हें सशक्त करने तथा “पीएम धन-धान्य कृष योजना” शुरू करने की बात कही, साथ ही यह आश्वासन भी दोहराया कि किसान, मछुआरे और पशुपालक किसी भी हानिकारक सरकारी नीति से बचाए जाएंगे—यह दृष्टि कृषि-उत्पादकता की भौगोलिक विषमता को संबोधित करती है पर इसके लिए सिंचाई-पानी के टिकाऊ आवंटन, कृषि-वैज्ञानिक सलाहकार सेवाओं, किस्म-चयन, मार्केट-लिंक, जोखिम-बीमा और भंडारण-प्रसंस्करण शृंखला पर संयुक्त कार्रवाई चाहिए; अन्यथा “कम फसल” जिलों का टैग मात्र एक निगरानी सूचक बनकर रह जाएगा। पशुधन-आधारित आजीविका के लिए FMD मुक्त भारत का लक्ष्य और 125 करोड़ से अधिक पशुओं का टीकाकरण एक महत्वाकांक्षी सार्वजनिक-स्वास्थ्य कदम है, पर पशु-स्वास्थ्य अवसंरचना, वैक्सीन-कोल्ड-चेन, और राज्यों की पशुपालन विभागों की क्षमता-वृद्धि के बिना इसका स्थायी प्रभाव सीमित रह सकता है। जल-संसाधन और कश्मीर-केन्द्रित सुरक्षा-सम्भाषण के बीच प्रधानमंत्री का “सिंधु जल” के प्रवाह पर कठोर रुख—“खून और पानी साथ नहीं बहेंगे”—राजनीतिक दृढ़ता का संकेत है; भाषण में “किसानों के खेतों के लिए पानी” को प्राथमिकता देते हुए “पाकिस्तान को जाने वाले पानी” पर पुनर्विचार की भावना उभरी, पर यहाँ अंतरराष्ट्रीय संधि-प्रावधान, ऊपरी/निचले दोआब में पर्यावरणीय-हाइड्रोलॉजी, बांध-ढाँचा, अंतर-राज्यीय नदी-बोर्ड और अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक दुष्प्रभाव जैसे मसलों पर अत्यंत सतर्क, विधि-संगत और विज्ञान-आधारित दृष्टिकोण अनिवार्य है—वरना जल-राजनीति तात्कालिक राष्ट्रवादी उत्साह में उलझ सकती है और सीमांत किसान/मत्स्य-समुदाय तक जल-न्याय का संदेश विलंबित हो सकता है।
ऊर्जा-रणनीति में प्रधानमंत्री ने 2030 की अपेक्षा 2025 में ही “50% क्लीन एनर्जी” हासिल करने का दावा किया; हरित-हाइड्रोजन, सौर-पैनल और बैटरी निर्माण में आत्मनिर्भरता तथा 10 नए न्यूक्लियर रिएक्टर स्थापित करने का संकल्प भी सामने आया—यह “विविधीकृत स्वच्छ ऊर्जा मिश्रण” का संकेत है, पर 50% उपलब्धि “स्थापित क्षमता” बनाम “वास्तविक उत्पादन” के संदर्भ में क्या अर्थ रखती है—इसका प्रामाणिक स्पष्टीकरण और ग्रिड-संतुलन/भंडारण/लचीलापन सुधारों की रोडमैप अपेक्षित है; वहीं परमाणु-ऊर्जा में निजी भागीदारी और 2047 तक क्षमता को दस गुना बढ़ाने की घोषणा पूँजी-गतिशीलता, सुरक्षा-नियमन, अपशिष्ट प्रबंधन, ईंधन-आपूर्ति और स्थानीय आपूर्ति-शृंखला के कठिन प्रश्न भी साथ लाती है।
साथ ही प्रधानमंत्री ने “डीप वॉटर एक्सप्लोरेशन मिशन” का उल्लेख किया—यह समुद्री-खनिज/ऊर्जा खोज के अवसरों से जुड़ा है, पर ऐसे कार्यक्रमों में समुद्री पारिस्थितिकी और तटीय समुदायों के आजीविका-अधिकारों की संरक्षा हेतु स्वतंत्र पर्यावरण-आकलन और पारदर्शी सामाजिक-सहमति आवश्यक है ताकि “हरित-संक्रमण” के साथ “नीली अर्थव्यवस्था” का संतुलन भी बना रहे।
इलेक्ट्रिक-वाहन युग, सोलर और ईवी-आपूर्ति-श्रृंखला में स्वदेशीकरण की हाँक उस औद्योगिक-रणनीति की तरफ इशारा करती है जो आयात-निर्भरता घटाने के साथ घरेलू वैल्यू-एडिशन बढ़ाना चाहती है; पर इसमें रत्न-नीति होगा कि घरेलू विनिर्माण को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए लॉजिस्टिक लागत, ऊर्जा-दाम, कौशल-परिसंरचना, मानकीकरण और निर्यात-उन्मुखीकरण पर पैमाना-युक्त, समयबद्ध सुधार वास्तव में पहुँचें—क्योंकि उच्च टैरिफ-दीवारें अल्पकाल में उद्योग को बचा सकती हैं पर दीर्घकाल में नयी-तकनीक की गति पकड़ने में बाधा भी बन सकती हैं।
सुरक्षा-नीति पर भाषण का स्वर निर्णायक था; “पहलगाम 22 अप्रैल” के आतंकी हमले के बाद सीमापार घुसकर प्रतिकार-कार्रवाई (ऑपरेशन “सि दूर”) का संकेत, और “न्यूक्लियर ब्लैकमेल” को नकारने का उच्चारण—ये संदेश भारत की प्रतिरक्षा-सिद्धि और प्रतिघात-क्षमता पर राजनीतिक धैर्य का प्रदर्शन हैं; पर अंतरराष्ट्रीय नियम-व्यवस्था, शत्रु-प्रतिशोध, क्षैतिज/ऊर्ध्वाधर-उत्कर्ष और नागरिक-सुरक्षा के जोखिमों पर संयमित, संवैधानिक-निगरानी आवश्यक है; बिना औपचारिक पारदर्शिता के “सर्जिकल नैरेटिव” घरेलू राजनीति में तो लोकप्रिय बन सकता है पर दीर्घकालिक रणनीतिक स्थिरता संस्थागत जवाबदेही से ही संभव होती है। इसी क्रम में “2035 तक राष्ट्रीय सुरक्षा कवच”—अस्पताल, रेलवे, आस्था-स्थलों समेत सभी महत्त्वपूर्ण परिसंपत्तियों को उन्नत तकनीकी सुरक्षा से आच्छादित करने—और “मिशन सुदर्शन चक्र” के ज़िक्र ने टेक-आधारित सुरक्षात्मक ढाँचा विस्तार की मंशा साफ़ की; आलोचनात्मक दृष्टि से यह पूँजी-बहुल, सतत-अपग्रेड की माँग करने वाला कार्यक्रम है—इसलिए साइबर-भौतिक सुरक्षा, डेटा-इंटेलिजेंस इंटरऑपरेबिलिटी, सार्वजनिक-निजी भागीदारी के अनुबंध मानक और स्वतंत्र ऑडिट का ढाँचा पूर्व-निश्चित होना चाहिए ताकि सुरक्षा-खर्च की दक्षता और नागरिक-अधिकारों की रक्षा साथ-साथ सुनिश्चित हो।
सीमा-सुरक्षा और “घुसपैठ” पर प्रधानमंत्री का संकेत—घुसपैठ और धाँधली को रोकने तथा “डेमोग्राफिक परिवर्तन” के प्रयासों पर उच्च-स्तरीय मिशन के गठन—ने आंतरिक-सुरक्षा के संवेदनशील पहलू को छुआ; किंतु यहाँ भी विधिक प्रक्रिया, साक्ष्य-आधारित पहचान, सामुदायिक-समरसता, और मानवाधिकार मानदंड अनिवार्य हैं, वरना सुरक्षा-राज्य और नागरिक-स्वतंत्रता के बीच संतुलन बिगड़ सकता है; संघीय सहयोग के बिना ऐसे मिशन अक्सर राजनीति/ध्रुवीकरण की भेंट चढ़ जाते हैं और जमीनी शांति-प्रक्रिया प्रभावित होती है।
विज्ञान-तकनीक और नवाचार पर प्रधानमंत्री ने BioE3 नीति, ऑपरेटिंग सिस्टम से साइबर-सुरक्षा और डीप-टेक/एआई में स्वदेशीकरण की आवश्यकता पर बल दिया—यह “टेक-सॉवरेन्टी” का फ्रेम है; पर टेक-संप्रभुता केवल स्वदेशी निर्माण नहीं, खुले मानकों, शोध-वित्त, विश्वविद्यालय-उद्योग समन्वय, पेटेंट-इकोसिस्टम और वैश्विक सप्लाई-नेटवर्क में भागीदारी का भी प्रश्न है; यदि नीति “आत्मनिर्भरता” को बंद दरवाज़े के रूप में पढ़ेगी तो तकनीकी उन्नति की गति सीमित हो सकती है; इसलिए खुले नवाचार और रणनीतिक साझेदारियों का संतुलन आवश्यक है।
इसी तरह राष्ट्रीय विनिर्माण मिशन, “जीरो डिफेक्ट-जीरो इफेक्ट” की गुणवत्ता-दृष्टि तथा MSMEs के योगदान की सराहना स्वागतयोग्य है, पर गुणवत्ता-उन्नयन के लिए परीक्षण-प्रयोगशालाएँ, डिज़ाइन-अपग्रेड, मानक-प्रशिक्षण और सस्ती दीर्घकालिक पूंजी के बिना नारा लक्ष्य नहीं बन पाता; सरकार की भूमिका “सुविधादाता” की है, मगर बाज़ार-प्रेरित गुणवत्ता-संस्कृति के प्रसार में उपभोक्ता-मानक और खरीदी-नीतियाँ (जैसे पब्लिक प्रोक्योरमेंट में गुणवत्ता-भारांक) निर्णायक होती हैं।
सामाजिक-न्याय और आकांक्षी भूगोल पर “अस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट्स/ब्लॉक्स” और पूर्वोत्तर/पूर्वी भारत पर विशेष बल समावेशी विकास के मानचित्र को आगे बढ़ाते हैं; मगर पिछड़े जिलों के लिए अतिरिक्त धनोपार्जन, मानव-संसाधन की स्थायी तैनाती, जिला योजनाओं का डेटा-चालित संरेखण और अंतर-विभागीय एकीकरण के बिना यह कार्यक्रम “रैंकिंग-प्रतियोगिता” भर बनकर न रह जाए—यह चिंता बनी रहती है; लक्ष्य-सैचुरेशन और वास्तविक सेवा-गुणवत्ता के बीच अंतर को पाटने के लिए सामाजिक-लेखा परीक्षा और ओपन-डैशबोर्ड की पारदर्शिता बढ़ानी होगी।
उद्यमिता-इकोसिस्टम और मुद्रा-आधारित सूक्ष्म-ऋण विस्तार का उल्लेख भाषण का सकारात्मक पक्ष था; टियर-2/3 शहरों में स्टार्टअप-संस्कृति के फैलाव के साथ प्रतिबद्ध जोखिम-पूंजी, मेंटरशिप, और बाज़ार तक पहुँचना ही सफलता का वास्तविक पैमाना है; इसी तरह SHGs/लखपति दीदी के उदाहरण तभी व्यापक रूपांतरण की कथा बनेंगे जब उनके लिए स्थानीय आपूर्ति-श्रृंखला, खरीद-गारंटी और डिजिटल-मार्केटप्लेस सहज उपलब्ध हों—अन्यथा वे इक्का-दुक्का प्रेरक कहानियों तक सीमित रह जाएँगे। अंतरिक्ष-तकनीक और राष्ट्रीय गौरव की धारा में प्रधानमंत्री ने भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन और भारतीय अंतरिक्ष यात्री के लौटने का संदर्भ लेकर नवाचार-क्षमता पर जोर दिया—यह वैज्ञानिक-आत्मविश्वास का प्रतीक है; पर स्पेस-इकोसिस्टम की असली कसौटी वाणिज्यिक-लॉन्च, उपग्रह-सेवाओं के निर्यात, स्पेस-मैन्युफैक्चरिंग और नागरिक-उपयोग (कृषि/आपदा/मानचित्रण) के प्रभाव-मानकों से होगी; स्टार्टअप-नीति, खरीद-प्रक्रिया और बौद्धिक संपदा सुरक्षा यहाँ निर्णायक हैं।
स्वास्थ्य और जन-जीवन शैली पर प्रधानमंत्री ने मोटापे के बढ़ते संकट के संदर्भ में परिवार-स्तरीय आचरण-परिवर्तन का आह्वान किया—यह सार्वजनिक स्वास्थ्य के “व्यवहार-परिवर्तन” मॉडल की अपेक्षा से मेल खाता है; पर समानांतर रूप से प्राथमिक स्वास्थ्य ढांचे, स्कूल-आहार/फूड-लेबलिंग, शहरी-डिज़ाइन (वॉक/साइकिल), और खेल-संस्कृति के लिए स्थानीय निकायों की क्षमता-वृद्धि आवश्यक है, ताकि समस्या का समाधान केवल व्यक्तिगत-संकल्प पर न टिका रहे।
समग्र रूप में यह भाषण “एकता, विरासत और 2047 के विकसित भारत” के मंत्र के साथ सामूहिक श्रम, नीति-सुधार और तकनीकी-उन्नति को जोड़ता है—नेतृत्व-शैली स्पष्टतः निर्णायक और घोषणापरक है; आलोचनात्मक तौर पर कहा जाए तो भाषा का संकल्पात्मक उछाल तभी टिकाऊ बनता है जब प्रत्येक क्षेत्र में क्रियान्वयन-रोडमैप, लक्ष्य-सूचकांक, मध्यवर्ती मील-पत्थर, और स्वतंत्र मूल्यांकन के साथ पारदर्शी प्रगति-समीक्षा संस्थागत हो; जल-नीति और सीमा-सुरक्षा जैसे विषयों में आक्रामकता कूटनीति/कानूनी-नियमों के दायरे में संतुलित रहे; ऊर्जा-परिवर्तन में 50% उपलब्धि के दावे ग्रिड-लचीलापन और भंडारण-रोडमैप से जुड़ें; कृषि में “कम फसल” जिलों का निदान भूमि-सुधार, जल-उपलब्धता, जोखिम-बीमा, कीमत-खोज और मूल्य-श्रृंखला निवेश से हो; उद्यम/रोजगार में सब्सिडी-आधारित प्रोत्साहन दीर्घकालिक कौशल/उत्पादकता और गुणवत्ता-उन्नयन से प्रतिस्थापित हों; और सामाजिक-समावेशन में महिला-भागीदारी के प्रेरक कथानक ठोस श्रम-आँकड़ों तथा सुरक्षा-मानकों से पुष्ट हों। भाषण का मूल संदेश—“नया इतिहास बनाने का समय”—तभी वास्तविक उपलब्धि में बदलेगा जब केंद्र-राज्य-निजी क्षेत्र-समाज के बीच भरोसे और जवाबदेही का तंत्र सुदृढ़ हो, क्योंकि 2047 की यात्रा किसी एक नीतिगत घोषणा नहीं, बल्कि असंख्य संस्थागत-निर्णयों की गिनती पर खड़ी होगी; लाल किले से उठी यह प्रतिज्ञा—कि विकास, सुरक्षा और गरिमा साथ-साथ बढ़ें—भारत के लोकतांत्रिक अनुबंध की भी कसौटी बनेगी, जहाँ नागरिक न केवल वादों का उत्सव मनाते हैं बल्कि नीतियों के ठोस परिणामों की माँग भी करते हैं—यही आलोचनात्मक नागरिकता इस भाषण की सबसे बड़ी सह-चालक शक्ति हो सकती है।
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