‘प्रांतीय नागरिकता’ (Provincial Citizenship) शब्द अकादमिक और नीति बहसों में तेजी से जगह बना रहा है, विशेषकर झारखंड, जम्मू-कश्मीर (J&K) और असम जैसे राज्यों की निवास नीतियों (domicile policies) के संदर्भ में। इसका उभार एक अधिक बहिष्करणकारी (exclusionary), स्थानीयतावादी (nativist) राजनीति की ओर संकेत करता है, जो एक समान, एकल भारतीय नागरिकता के संवैधानिक आदर्श को चुनौती दे सकता है।
प्रांतीय नागरिकता क्या है?
प्रांतीय नागरिकता एक ग़ैर–आधिकारिक, राजनीतिक रूप से निर्मित अवधारणा है, जो किसी विशेष भारतीय राज्य से जुड़ाव को दर्शाती है। यह स्थानीयतावादी राजनीति से उत्पन्न होती है, जो ‘मूल निवासी’, ‘स्वदेशी’, ‘स्थानीय’ या ‘मिट्टी का बेटा’ (son of the soil) जैसे विचारों पर आधारित है।
यह संविधान का हिस्सा नहीं है, लेकिन राजनीति में ‘स्थानीय’ लोगों को विशेष अधिकार देने के लिए प्रयोग होती है। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 5–11 के अंतर्गत दी गई एकल नागरिकता की गारंटी को चुनौती देती है।
नागरिकता (Citizenship) के संवैधानिक प्रावधान (Articles 5–11)
अनुच्छेद 5 – संविधान के प्रारंभ पर नागरिकता
- संविधान लागू होने की तिथि (26 जनवरी 1950) पर नागरिकता निर्धारित की गई थी।
- नागरिकता के आधार:
- भारत में जन्म।
- भारत में माता-पिता का जन्म।
- संविधान लागू होने से पहले भारत में निवास।
अनुच्छेद 6 – पाकिस्तान से आए प्रवासी (Partition Refugees)
- जो लोग पाकिस्तान से भारत आए थे, उन्हें कुछ शर्तों पर भारत की नागरिकता दी गई।
अनुच्छेद 7 – पाकिस्तान गए हुए लोग (माइग्रेंट्स टू पाकिस्तान)
- जो लोग विभाजन के बाद भारत से पाकिस्तान चले गए, उन्हें भारतीय नागरिकता से वंचित किया गया।
- हालांकि, यदि वे बाद में वापस भारत आकर बस गए और पंजीकरण कराया, तो वे नागरिक बन सकते थे।
अनुच्छेद 8 – विदेश में रहने वाले भारतीय मूल के व्यक्ति
- जो भारतीय मूल के व्यक्ति भारत के बाहर रहते हैं, वे भारतीय राजनयिक/कांसुलेट में अपना नाम दर्ज करा कर भारतीय नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं।
अनुच्छेद 9 – दोहरी नागरिकता का निषेध
- यदि कोई भारतीय नागरिक स्वेच्छा से किसी अन्य देश की नागरिकता ग्रहण करता है, तो उसकी भारतीय नागरिकता समाप्त हो जाएगी।
अनुच्छेद 10 – अधिकारों की निरंतरता
- संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के अधीन रहते हुए नागरिकता से संबंधित अधिकारों की निरंतरता बनी रहेगी।
अनुच्छेद 11 – संसद की शक्ति
- संसद को यह अधिकार है कि वह नागरिकता से संबंधित सभी मामलों पर कानून बना सकती है।
- इसी शक्ति के तहत संसद ने नागरिकता अधिनियम, 1955 बनाया।
नागरिकता अधिनियम, 1955 के प्रमुख प्रावधान
भारतीय नागरिकता प्राप्त करने के पाँच प्रमुख तरीके:
- जन्म से(By Birth)
- वंशानुक्रम से(By Descent)
- पंजीकरण से(By Registration)
- प्राकृतिककरण से(By Naturalization)
- क्षेत्र के विलय से(By Incorporation of Territory)
नागरिकता समाप्त होने के आधार:
- त्याग (Renunciation)
- निरसन (Termination)
- वंचन (Deprivation)
प्रांतीय नागरिकता की मांग बढ़ने के कारण
- आर्थिक प्रतिस्पर्धा: स्थानीय लोगों को डर है कि प्रवासी उनकी नौकरियां और संसाधनों पर अधिकार कर लेंगे। प्रांतीय नागरिकता ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों को मान्यता देती है और बड़े पैमाने पर पलायन से पैदा हुई जनसांख्यिकीय दबाव का जवाब देती है।
- सांस्कृतिक चिंता: प्रवास से भाषा, परंपरा और सांस्कृतिक एकरूपता को खतरा माना जाता है। प्रांतीय नागरिकता स्वदेशी समूहों की संस्कृति और भूमि की रक्षा का साधन बनती है।
- राजनीतिक रिक्तता: निवास संबंधी नियमों को नियंत्रित करने या सभी राज्यों में एकरूपता सुनिश्चित करने के लिए कोई केंद्रीय कानून नहीं है।
न्यायिक एवं नीतिगत सुरक्षा उपाय
सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप: सुनेन्दा रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1995): कोर्ट ने स्नातकोत्तर चिकित्सा पाठ्यक्रमों में 100% स्थानीय आरक्षण को रद्द किया और कहा कि आरक्षण योग्यता और दक्षता को प्रभावित नहीं करना चाहिए।
डॉ. प्रदीप जैन बनाम भारत संघ (1984): कोर्ट ने कहा कि जन्मस्थान या निवास के आधार पर आरक्षण अनुच्छेद 16(2) के तहत असंवैधानिक है।
राज्यों का पुनर्गठन आयोग (SRC, 1955): आयोग ने नोट किया कि निवास-आधारित बहिष्कार राष्ट्रीय एकता को कमजोर करता है।
वर्तमान संवैधानिक ढांचा नागरिकता को एकल और राष्ट्रीय मानता है, जिसे नागरिकता अधिनियम द्वारा नियंत्रित किया जाता है, और जिसमें मौलिक अधिकारों के तहत भेदभाव-निषेध और गतिशीलता (mobility) की गारंटी है।
तुलना: राष्ट्रीय बनाम प्रांतीय नागरिकता
पहलू | राष्ट्रीय नागरिकता | प्रांतीय नागरिकता |
कानूनी स्थिति | अनुच्छेद 5–11 के तहत संवैधानिक परिभाषा | कानूनी मान्यता नहीं; राजनीतिक-सामाजिक निर्माण |
शासन कानून | नागरिकता अधिनियम, 1955 | कोई औपचारिक कानून नहीं; राज्य-स्तरीय राजनीतिक प्रथाओं पर आधारित |
परिधि | पूरे भारत में समान रूप से लागू | विशेष राज्यों तक सीमित |
दिए गए अधिकार | रहने, काम करने और सार्वजनिक सेवाओं तक समान पहुँच | स्थानीय लोगों को प्राथमिकता; प्रवासियों की पहुँच सीमित हो सकती है |
संवैधानिक समर्थन | मौलिक अधिकारों द्वारा समर्थित (अनु. 14, 15, 16, 19) | अक्सर मौलिक अधिकारों के विपरीत |
पहचान का आधार | भारतीय राष्ट्रीयता | राज्य-स्तरीय पहचान (जैसे स्थानीय, मूल निवासी) |
संघवाद पर प्रभाव | एकल नागरिकता से एकीकरण को मजबूत करता है | राज्यों की स्वायत्तता बढ़ाता है, लेकिन केंद्र-राज्य संतुलन को बिगाड़ता है |
भारत में प्रांतीय नागरिकता से जुड़े चिंता के मुद्दे
- नागरिकता का विखंडन: समान भारतीय नागरिकता के विचार को कमजोर कर, परतदार पहचान (layered identities) बनाता है।
- संवैधानिक तनाव: SRC (1955) ने कहा था कि निवास-आधारित नियम नौकरियों, शिक्षा और कल्याण पर रोक लगाते हैं, जो अनुच्छेद 14, 15, 16 और 19 से टकराते हैं।
- प्रवासियों का बहिष्कार: आंतरिक प्रवासियों को नौकरी, आवास, शिक्षा और कल्याण तक पहुँचने में कठिनाई होती है।
- स्थानीयतावादी राजनीति का उभार: ‘मिट्टी का बेटा’ आंदोलन, बाहरी विरोध और क्षेत्रवाद को प्रोत्साहित करता है।
- न्यायिक बोझ: अदालतों में निवास और आरक्षण नीतियों पर लगातार मुकदमेबाजी होती है, जिससे न्यायपालिका पर बोझ बढ़ता है।
- आर्थिक मंदी: प्रवासी श्रम को सीमित करने से कार्यबल की गतिशीलता घटती है, जिससे उत्पादकता और शहरी अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है।
सुधार के उपाय: राज्य स्वायत्तता और राष्ट्रीय नागरिकता का संतुलन
- निवास पर संसदीय कानून: SRC (1955) ने सिफारिश की थी कि निवास नियमों को संसदीय कानून से बदला जाए ताकि राज्य मौलिक अधिकारों को न लांघ सकें।
- प्रवासियों की सुरक्षा मजबूत करना: कल्याणकारी योजनाओं की पोर्टेबिलिटी को भोजन (वन नेशन वन राशन कार्ड) से आगे बढ़ाकर स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और रोजगार तक विस्तारित करना।
- समान अधिकार: ई–श्रम पोर्टल जैसी पहलों के जरिए आंतरिक प्रवासियों को सामाजिक सुरक्षा और समान अधिकार सुनिश्चित करना।
- संतुलित संघवाद: राज्यों को निवास-आधारित लाभ की सीमित गुंजाइश दें, लेकिन मौलिक अधिकारों से जुड़े कोर अधिकारों को न छीनने दें।
- चुनाव आयोग की निगरानी: ‘मिट्टी का बेटा’ जैसे चुनावी अभियानों पर रोक, और दलों की मान्यता व फंडिंग नियमों में समावेशी सुरक्षा प्रावधान जोड़ना।
- जन–जागरूकता एवं समावेशन: प्रवासियों के शहरी अर्थव्यवस्था में योगदान पर अभियान चलाना, ज़ेनोफोबिया (विदेशी/बाहरी विरोध) से निपटना और सामाजिक एकीकरण को बढ़ावा देना।
निष्कर्ष
प्रांतीय नागरिकता स्थानीय असुरक्षाओं को तात्कालिक रूप से शांत कर सकती है, लेकिन यह भारत की एकता, समानता और बंधुत्व को कमजोर करने का खतरा रखती है। संविधान और SDG 10 (असमानताओं को घटाना) की भावना से प्रेरित होकर भारत को ‘एक राष्ट्र, एक नागरिकता’ के सिद्धांत को पुनः सुदृढ़ करना चाहिए, ताकि विविधता की रक्षा करते हुए सभी नागरिकों के लिए समावेशिता सुनिश्चित हो सके।
प्रश्न: भारत के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए: (Preliams, 2021)
- केवल एक नागरिकता और एक निवास है।
- केवल जन्म से नागरिक बना व्यक्ति ही राज्य प्रमुख बन सकता है।
- एक बार विदेशी को नागरिकता दे दी जाए तो किसी भी परिस्थिति में उससे छीनी नहीं जा सकती।
कौन-सा/से कथन सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 3
(d) 2 और 3
उत्तर: (a) केवल 1
व्याख्या
- केवल एक नागरिकता और एक निवास है। (सही)
- भारत में द्वैध नागरिकता (dual citizenship) की व्यवस्था नहीं है।
- केवल एकल भारतीय नागरिकता है, जो पूरे देश में समान रूप से लागू होती है।
- यह अमेरिकी संघीय व्यवस्था से अलग है जहाँ राष्ट्रीय और राज्य नागरिकता दोनों होती हैं।
- केवल जन्म से नागरिक बना व्यक्ति ही राज्य प्रमुख बन सकता है। (गलत)
- भारतीय संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि केवल जन्म से नागरिक ही राष्ट्रपति या राज्यपाल बन सकता है।
- शर्त: व्यक्ति भारतीय नागरिक होना चाहिए (चाहे जन्म से हो या पंजीकरण/प्राकृतिककरण से)।
- उदाहरण: संविधान अनुच्छेद 58 (राष्ट्रपति की योग्यताएँ)।
- एक बार विदेशी को नागरिकता दे दी जाए तो किसी भी परिस्थिति में उससे छीनी नहीं जा सकती। (गलत)
- यह भी गलत है।
- नागरिकता अधिनियम, 1955 के अनुसार नागरिकता समाप्ति (Termination), परित्याग (Renunciation), और वंचन (Deprivation) के प्रावधान हैं।
- इसलिए विदेशी को दी गई नागरिकता वापस भी ली जा सकती है।