फिलिस्तीन राज्य को विश्व समुदाय द्वारा दी जा रही मान्यता आज के दौर की सबसे महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय घटनाओं में शामिल है, जहां हाल ही में फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, पुर्तगाल और लक्जमबर्ग समेत कुल छह देशों ने फिलिस्तीन को स्वतंत्र राज्य के रूप में मान्यता प्रदान की है। यह घटनाक्रम नई कूटनीतिक दिशा और भू-राजनीतिक समीकरणों को जन्म देता है, जिसकी परतें न केवल फिलिस्तीन की भावना और आकांक्षा से जुड़ी हैं, बल्कि इजरायल, पश्चिम एशिया, और भारत जैसी बड़ी महाशक्तियों के लिए भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से चुनौती तथा अवसर का विषय बनती हैं। इस घटनाक्रम को समझना कूटनीतिक इतिहास, जमीनी वास्तविकताओं, अंतरराष्ट्रीय कानून, तथा भविष्य की राह के संदर्भ में काफी ज़रूरी हो जाता है।
अभी तक फिलिस्तीन की ऐतिहासिक यात्रा साम्राज्यवादी शक्तियों और युद्धों की छाया में बद्ध रही है। बीसवीं सदी का पूर्वार्ध उस समय का प्रतीक था जब फिलिस्तीन ओटोमन साम्राज्य का हिस्सा था और स्थानीय प्रशासन अलग-अलग केन्द्रों जैसे जेरूसलम, गाजा, हबरान, नब्लुस में संचालित होता था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद, ब्रिटिश शासन के अधीन, बालफौर घोषणा के द्वारा “यहूदी राज्य” स्थापना का बीज रोपा गया परन्तु साथ ही यह शर्त भी रखी गई कि वहां रह रहे गैर-यहूदी नागरिकों के अधिकारों की भी सुरक्षा होगी। 1948 में इजरायल राज्य की स्थापना और ‘नकबा’ (जहां फिलिस्तीनियों ने अपनी भूमि गंवा दी) के बाद से फिलिस्तीनियों के संघर्ष में राष्ट्रीय आंदोलन का नया दौर शुरू हुआ। आगे चलकर अरब लीग, संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ और कुछ महत्वपूर्ण देशों ने फिलिस्तीन का समर्थन किया मगर उनके अधिकार वास्तविक सत्ता में तब्दील नहीं हो सके।
हालिया घटनाक्रम में लंबे समय से चल रही यह संघर्ष रेखा एक बार फिर तेज हो गई है। फ्रांस के राष्ट्रपति ने संयुक्त राष्ट्र में दो-राष्ट्र समाधान का समर्थन जताते हुए फिलिस्तीन को मान्यता दी। इसी पहल में ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, पुर्तगाल, लक्जमबर्ग, एंडोरा, माल्टा और मोनाको जैसे देशों ने भी इसका साथ दिया। यूरोप की यह लामबंदी वैश्विक स्तर पर बढ़ रही हिंसा, गाजा में इजरायल के नए सैन्य अभियान, तथा क्षेत्रीय तनाव के कारण हुई है। इन देशों ने साफ कहा कि फिलिस्तीन को राज्य मानने का उनका मकसद दो-राष्ट्र समाधान की संभावनाओं को जीवित रखना है, ताकि एक दिन इजरायल और फिलिस्तीन के बीच शांति स्थायी हो सके। हालांकि अमेरिका ने इस पहल का बहिष्कार करते हुए इसे “राजनयिक नौटंकी” करार दिया और इजरायल का खुला समर्थन किया।
फिलिस्तीन को मिली ताजा मान्यता के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इस कदम का फिलिस्तीन राज्य की वास्तविक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ेगा। अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक किसी राज्य की मान्यता के लिए चार बुनियादी आवश्यकता होती हैं: निश्चित क्षेत्र, स्थायी जनसंख्या, सरकार, और अन्य देशों के साथ संबंध बनाने की क्षमता। फिलिस्तीन का मामला देखें—इसका क्षेत्रीय नियंत्रण लगभग पूरी तरह इजरायल के कब्जे में है (वेस्ट बैंक, पूर्वी जेरूसलम और गाजा पट्टी), जहां ना तो फ़िलिस्तीन को पूर्ण प्रशासनिक अधिकार, ना ही सुरक्षा और सैन्य स्वायत्तता उपलब्ध है। तीसरी आवश्यकता यानी सरकार की बात करें तो वेस्ट बैंक और पूर्वी जेरूसलम में फिलिस्तीनी प्राधिकरण नाममात्र के रूप में काम करता है, वहीं गाजा में हमास की सत्ता है, लेकिन दोनों ही सत्ता इजरायल की घेराबंदी और सैन्य नियंत्रण से बुरी तरह प्रभावित हैं। चौथी जरूरत यानी अंतरराष्ट्रीय संबंध बनाने की क्षमता—हालिया मान्यता इसी आवश्यकता को बल देती है, क्योंकि इससे फिलिस्तीन को अंतरराष्ट्रीय मंचों और संयुक्त राष्ट्र में अपने हितों की बात रखने की ताकत मिलती है, मगर जमीनी सच्चाई वही रहती है कि शक्ति का असली नियंत्रण इजरायल के पास है।
फिलिस्तीन के लिए तो यह कदम निश्चय ही उत्साहवर्धक है, क्योंकि इससे उसके द्वार पर नए कूटनीतिक और मानवाधिकार संबंधी रास्ते खुल सकते हैं। मान्यता के साथ ही फिलिस्तीन के प्रतिनिधि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, मानवाधिकार निकायों, संयुक्त राष्ट्र के आयोगों और न्यायालयों में अपने पक्ष को मजबूती से रख सकते हैं। इससे न केवल उसकी वैश्विक स्वीकृति, बल्कि सहायता प्राप्त करने और इजरायल पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाने के अवसर भी बढ़ते हैं। किंतु जब तक जमीनी नियंत्रण, प्रशासनिक ढांचा और राज्य की वास्तविक सरकार इजरायल के घेराबंदी में रहती है, तब तक इसका वास्तविक फायदा सीमित ही रहेगा। फिलिस्तीन के संदर्भ में यह मान्यता द्वार खोलती जरूर है मगर समाधान तभी आ सकता है जब इजरायल अपना सैन्य कब्जा हटाए और अंतरराष्ट्रीय समुदाय ज्यादा प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करे।
इजरायल और समूचे पश्चिम एशिया के परिप्रेक्ष्य में यह घटनाक्रम अस्थिरता का नया अध्याय है। इजरायल ने इस कदम की तीखी आलोचना की और इसे आतंकवाद को इनाम देने वाला निर्णय बताया। इजरायल के प्रधानमंत्री ने अपने वक्तव्य में कहा कि ऐसी किसी भी कोशिश से फिलिस्तीन राज्य की स्थापना असंभव है, और इजरायल अपने सैनिक अभियान बढ़ाता जाएगा। प्रत्यक्षत: देखे तो इजरायल ने हालिया मान्यता के बाद अपनी सैन्य कार्रवाई तेज कर दी है और गाजा पर नए हमले शुरु कर दिए हैं। पश्चिमी देशों द्वारा मान्यता दिए जाने के बावजूद इजरायल की नीति में कोई नरमी नहीं है, बल्कि हर अंतरराष्ट्रीय दबाव के साथ उसका सैन्य और प्रशासनिक कब्जा और मजबूत हो रहा है। खास तौर पर अमेरिका और जर्मनी जैसे देशों की खुली समर्थन और हथियारों की आपूर्ति से इजरायल क्षेत्र में युद्ध का स्तर बढ़ा रहा है।
पश्चिम एशिया में इस बदलाव का दूसरे देशों में मिश्रित असर है। विश्व के मुस्लिम और अरब देशों ने इस पहल का स्वागत किया है, लेकिन अमेरिका और उसके करीबी सहयोगी इसमें शामिल नहीं हुए। क्षेत्रीय राजनीति में यह बदलाव परोक्ष रूप से सीरिया, ईरान, सऊदी अरब और अन्य देशों की भूमिका को भी नया आयाम देगा क्योंकि अब इजरायल आंदोलन को नियंत्रित करने की कोशिश करते हुए अपनी नीति को कठोर बना सकता है। इससे युद्ध की आशंका, शरणार्थी संकट और मानवाधिकार उल्लंघन जैसी समस्याएं और बढ़ सकती हैं।
इस मान्यता का फिलिस्तीन के जमीनी हालात पर प्रभाव सीमित ही है। फिलिस्तीन का क्षेत्र लगभग पूरी तरह इजरायल के कब्जे में है और रोज़मर्रा की जिंदगी, सामाजिक उद्वेलन, प्रशासनिक मुश्किलें और सुरक्षा संकट जस के तस हैं। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आवाज़ बुलंद होने के बावजूद आम लोगों का जीवन निर्वहन मुश्किल होता जा रहा है। गाजा, वेस्ट बैंक समेत प्रमुख इलाकों में लाखों लोग भूख, बेघर, घायल और विस्थापित हैं। इजरायल काफ़ी हद तक पश्चिमी देशों के दबाव को अनदेखा करता है और अपनी सैन्य नीति को जारी रखता है। हालिया मान्यता से बस इतना फर्क आ सकता है कि मानवाधिकार उल्लंघन, युद्ध में नागरिकों की स्थिति और शांति प्रयासों के लिए फिलिस्तीन को विश्व के बड़े मंचों पर अधिकारों की बात रखने की सुविधा मिले, पर सशक्त हस्तक्षेप तभी मुमकिन है जब अमेरिका और जर्मनी जैसे प्रभावशाली देश इसमें शामिल हों।
भारत के लिए इस घटनाक्रम में कूटनीतिक अवसर और चुनौतियां दोनों हैं। भारत इतिहास से फिलिस्तीन का समर्थन करता रहा है और दो-राष्ट्र समाधान का समर्थक है। संयुक्त राष्ट्र में भारत ने फिलिस्तीन की स्वायत्तता के पक्ष में मतदान भी किया था, लेकिन हालिया मान्यता के बाद भारत की नीति में संतुलन दिखता है। भारत इजरायल के साथ कूटनीतिक, रक्षा और तकनीकी संबंधों को बहुत महत्व देता है, जिसका व्यावसायिक और सुरक्षा दृष्टि से भी महत्त्व है। मौजूदा स्थिति में भारत को वैश्विक मंचों पर शांति के पक्ष में अपनी बात रखने के साथ-साथ पश्चिमी देशों की पहल को संतुलित करना होगा। यदि भारत फिलिस्तीन के पक्ष में खुलकर आता है तो इजरायल के साथ कूटनीतिक संबंधों में तनाव की आशंका हो सकती है, जबकि तटस्थ रहने पर विश्व मंच पर उसकी छवि प्रभावित हो सकती है। इस बीच भारत के लिए एक नया अवसर भी है कि वह मध्यस्थता, संयोजन और शांति वार्ता का नेतृत्व कर सकता है, जिससे उसकी वैश्विक भूमिका मजबूत हो।
आगे की राह बेहद जटिल और बहुआयामी है। वर्तमान मान्यता से फिलिस्तीन को अंतरराष्ट्रीय मंचों और संस्थाओं में अपनी आवाज रखने का अधिकार जरूर मिला है, लेकिन जब तक इजरायल का कब्जा, अमेरिकी समर्थन और सैन्य कार्रवाई बंद नहीं होती और जब तक क्षेत्रीय शक्तियां शांति प्रयासों को तवज्जो नहीं देतीं, तब तक वास्तविक बदलाव की उम्मीद कम ही है। फिलिस्तीन को राज्य मानना एक नैतिक और राजनीतिक कदम है, जिससे दो-राष्ट्र समाधान के लिए अंतरराष्ट्रीय इच्छा-शक्ति तो दिखती है, मगर अनुमानित जमीनी बदलाव के लिए और गहन प्रयास, रणनीतिक हस्तक्षेप और मानवता की भावना जरूरी है। विश्व समुदाय को चाहिए कि वह मानवाधिकार, लोकतंत्र और संवाद की भावना के साथ आगे बढ़े, ताकि पश्चिम एशिया के लोग भय, युद्ध और विस्थापन की त्रासदी से उबर सकें और भविष्य की ओर स्थायी शांति और न्याय के पथ पर बढ़ सकें।
स्रोत:
Indian Express (Recognising a Palestinian state: from 1917 to today, France joins other countries in recognising Palestine: What this means for Israel, the Gaza war), Al Jazeera (Which are the 150+ countries that have recognised Palestine as of 2025), The Atlantic (The Actual Path to a Palestinian State)