संदर्भ: बांडुंग के 70 वर्ष – ध्रुवीकृत वैश्विक व्यवस्था में दक्षिण-दक्षिण एकजुटता को पुनर्जीवित करना
(70 Years of Bandung – Reviving South-South Solidarity in a Polarised Global Order )
इस वर्ष इंडोनेशिया के बांडुंग में आयोजित पहले एशिया-अफ्रीका सम्मेलन (18-24 अप्रैल, 1955) की 70वीं वर्षगांठ है।
29 नव स्वतंत्र एशियाई और अफ्रीकी देशों की इस ऐतिहासिक बैठक ने दक्षिण-दक्षिण सहयोग के लिए मंच तैयार किया और गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) की नींव रखी।
आज के भू-राजनीतिक वातावरण — बढ़ती वैश्विक ध्रुवीकरण, बहुपक्षीयता का क्षरण, और नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को चुनौती — में बांडुंग सिद्धांतों का महत्व अत्यंत महत्वपूर्ण है।
बांडुंग के मूल सिद्धांत और उद्देश्य:
औपनिवेशिक विरोधी एकजुटता: उपनिवेशवादी शोषण और हाशिए पर रखने के साझा अनुभव।
साझा लक्ष्य:
संप्रभुता और स्वतंत्र नीति निर्धारण के सिद्धांत।
वैश्विक दक्षिण में सामूहिक कार्रवाई।
स्वीकृत मुख्य सिद्धांत:
राजनीतिक स्वतंत्रता।
संप्रभुता के लिए पारस्परिक सम्मान।
आक्रामकता और आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप से बचाव।
संयुक्त राष्ट्र चार्टर के साथ संरेखण: संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों पर आधारित नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के प्रति प्रतिबद्धता।
दक्षिण अफ्रीका की भूमिका और रंगभेद विरोधी पक्षधरता:
बांडुंग का रणनीतिक उपयोग: दक्षिण अफ्रीका में श्वेत अल्पसंख्यक शासन द्वारा संचालित दमनकारी रंगभेद शासन की ओर वैश्विक ध्यान आकर्षित किया गया।
अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (ANC) प्रतिनिधिमंडल:
ANC देश की स्वतंत्रता के लिए भीतर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करने वाला प्रमुख मुक्ति संगठन था।
सम्मेलन में दो प्रतिनिधियों (मूसा कोटाने और मौलवी चाचालिया) को भेजा गया ताकि दक्षिण अफ्रीका के स्वतंत्रता संग्राम के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाया जा सके।
बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था की चुनौतियाँ:
बहुपक्षीयता का क्षरण:
प्रमुख शक्तियों के बीच ध्रुवीकरण और विश्वास की कमी में वृद्धि।
“बल ही न्याय है” जैसे सिद्धांत का उदय।
संयुक्त राष्ट्र सुधार संकट:
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जैसी संस्थाओं का पक्षाघात।
सुरक्षा परिषद की सदस्यता के समानुपाती प्रतिनिधित्व और विस्तार पर बातचीत का ठप होना।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना: अंतरराष्ट्रीय संगठनों को “अप्रासंगिक” बताते हुए उनके सुधार की कमी पर टिप्पणी।
वैश्विक दक्षिण — तब और अब:
प्रारंभिक हाशियाकरण: 1945 में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के समय अनुपस्थिति; वैश्विक निर्णय निर्माण निकायों से निरंतर बहिष्कार।
बांडुंग विरासत:
गुटनिरपेक्ष आंदोलन (1961) और जी77 (1964) का अग्रदूत।
सामूहिक आकांक्षाओं और बहुध्रुवीय विश्व की वकालत।
समकालीन प्रासंगिकता और भूमिका:
उभरती शक्तियाँ: चीन, भारत, ब्राजील, इंडोनेशिया और दक्षिण अफ्रीका का उदय।
दक्षिण-दक्षिण संस्थाएँ: वैश्विक उत्तर के वर्चस्व के मुकाबले के रूप में BRICS का गठन।
रणनीतिक आवश्यकता:
नए साझेदारों और गठबंधनों का निर्माण।
समान सोच वाले वैश्विक उत्तर देशों के साथ सहयोग।
एक समावेशी, समान और न्यायसंगत वैश्विक व्यवस्था को बढ़ावा देना।
निष्कर्ष — आज के संदर्भ में बांडुंग की दृष्टि:
बांडुंग की भावना आज भी वैश्विक दक्षिण के लिए एक मार्गदर्शक शक्ति बनी हुई है।
बहुपक्षीयता को पुनः आकार देने और वैश्विक शासन को पुनर्परिभाषित करने की तत्काल आवश्यकता है।
एक निष्पक्ष और बहुध्रुवीय विश्व के निर्माण के लिए वैश्विक दक्षिण को सक्रिय नेतृत्व करना चाहिए — “बांडुंग के वास्तुकार इससे कम की अपेक्षा नहीं करेंगे।”