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भारतीय धर्मनिरपेक्षता/Indian Secularism

Debate on Secularism/धर्मनिरपेक्षता

भारत में धर्मनिरपेक्षता के विचार, उसकी विभिन्न व्याख्याओं, ऐतिहासिक विकास और प्रमुख विद्वानों के दृष्टिकोणों पर केंद्रित है। भारतीय लोकतंत्र की नींव में धर्मनिरपेक्षता (Secularism) एक महत्वपूर्ण लेकिन विवादित विचार है।

इसकी दो मुख्य अवधारणाएँ हैं:

  • नेहरू जी की अवधारणा: राज्य और धर्म अलग हों (धर्मनिरपेक्षता – Dharmanirpekshta)
  • गांधी जी की अवधारणा: सभी धर्मों का समान सम्मान (सर्व धर्म समभाव)

इस बहस का मुख्य मुद्दा यह रहा है: क्या भारत जैसे धार्मिक देश में पश्चिमी तरीके की धर्मनिरपेक्षता लागू की जा सकती है?

नेहरू जी धर्मनिरपेक्ष राज्य के पक्ष में थे। जबकि गांधी जी चाहते थे कि राज्य सभी धर्मों का सम्मान करे। के.टी. शाह चाहते थे कि संविधान में “सेक्युलर” शब्द साफ तौर पर जोड़ा जाए। वही अंबेडकर जी ने व्यक्तिगत कानूनों के लिए Uniform Civil Code का समर्थन किया।

भारतीय धर्मनिरपेक्षता कैसी है?

  • राज्य का कोई धर्म नहीं होगा।
  • सभी धर्मों को समान अवसर मिलेगा।
  • अल्पसंख्यकों को सांस्कृतिक अधिकार दिए जाएंगे।
  • सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों में धार्मिक शिक्षा पर प्रतिबंध।

प्रोफेसर राजीव भार्गव के अनुसार, भारतीय धर्मनिरपेक्षता (Indian Secularism) एक विशिष्ट, जटिल और सैद्धांतिक रूप से गहरी अवधारणा है, जो पश्चिमी देशों की सेक्युलरिज्म से भिन्न है। भारत का सामाजिक परिदृश्य धार्मिक विविधता और सह-अस्तित्व पर आधारित रहा है। यहां विभिन्न आस्थाएं, रीति-रिवाज़ और परंपराएँ सह-अस्तित्व में थीं। “धर्म का कठोर धर्मीकरण” (Religionization) जिसमें धर्म को पहचान, नियम और सामाजिक नियंत्रण के कठोर ढाँचे में ढाला गया। भारत में देर से आया (19वीं सदी में)। इससे पहले धार्मिक पहचान अधिक लचीली और मिश्रित थी।

राजीव भार्गव के अनुसार,भारतीय धर्मनिरपेक्षता का दोहरा उद्देश्य है।

(i) अंतरधार्मिक प्रभुत्व से रक्षा – एक धर्म का दूसरे पर वर्चस्व रोकना (जैसे बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक)।
(ii) अंतर्धार्मिक प्रभुत्व से रक्षा – एक ही धर्म के भीतर जाति या पितृसत्तात्मक वर्चस्व से मुक्ति (जैसे ब्राह्मणवाद, महिला उत्पीड़न)। यही दोहरी चुनौती भारतीय धर्मनिरपेक्षता को विशिष्ट बनाती है।

भारत ने सैद्धांतिक दूरी (Principled Distance) का सिद्धांत अपनाया है

  • न तो पूरी तरह धर्म से अलगाव (जैसे फ्रांस),
  • न ही एक धर्म का पक्षपात (जैसे पाकिस्तान, ईरान),
  • बल्कि राज्य कभी-कभी धर्म में हस्तक्षेप करेगा। जब यह न्याय, समानता और स्वतंत्रता को बढ़ाएगा।
  • उदाहरण: अस्पृश्यता पर प्रतिबंध, व्यक्तिगत कानूनों में सुधार की कोशिशें

विद्वानों के दृष्टिकोण (Scholars’ Perspectives)

अशीष नंदी (Ashis Nandy): वे धर्मनिरपेक्षता को एक पश्चिमी और औपनिवेशिक विचार मानते हैं। उनका मानना है कि भारत जैसे देश को अपने पारंपरिक धार्मिक सहिष्णुता (जैसे गांधी, अशोक, अकबर की परंपराएँ) को अपनाना चाहिए। उनके अनुसार, आधुनिक राज्य द्वारा थोपी गई धर्मनिरपेक्षता ने धार्मिक हिंसा को जन्म दिया है।

टी. एन. मदान (T.N. Madan): वे मानते हैं कि धर्म भारतीय समाज का गहराई से जुड़ा हिस्सा है, इसलिए पश्चिमी शैली की धर्मनिरपेक्षता यहां लागू करना कठिन है। धर्म को पूरी तरह निजी क्षेत्र तक सीमित करना भारत में संभव नहीं।

अचिन वनायक (Achin Vanaik): उनका मत है कि धर्मनिरपेक्षता की बजाय धार्मिक सहिष्णुता की बात करना खतरनाक हो सकता है। धार्मिक पहचान की राजनीति को चुनौती देना ज़रूरी है और इसके लिए धर्म का सामाजिक प्रभाव कम करना जरूरी है।

अकील बिलग़रामी (Akeel Bilgrami): वे मानते हैं कि नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता जनता पर ऊपर से थोपी गई थी। उनके अनुसार धर्मनिरपेक्षता का विकास विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच बातचीत और आपसी सहमति से होना चाहिए, ताकि वह नीचे से उभर सके।

राजीव भार्गव (Rajeev Bhargava): उन्होंने “सैद्धांतिक दूरी” (Principled Distance) की अवधारणा दी। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य को कभी-कभी धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करना पड़ सकता है, लेकिन ऐसा हस्तक्षेप समानता, स्वतंत्रता और न्याय को ध्यान में रखकर होना चाहिए।

अमर्त्य सेन (Amartya Sen): वे मानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब केवल राज्य और धर्म के अलगाव से नहीं है, बल्कि यह ज़रूरी है कि राज्य सभी धर्मों को बराबरी से देखे और न्यायपूर्ण व्यवहार करे।

नीरा चंधोक (Neera Chandhoke): उनके अनुसार केवल धार्मिक समानता पर्याप्त नहीं है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को भी धर्मनिरपेक्षता के दायरे में लाना चाहिए। उन्होंने “मूल्य आधारित समानता” (substantive equality) की वकालत की।

गुरप्रीत महाजन (Gurpreet Mahajan): वे कहती हैं कि भारत में राज्य और धर्म का पूर्ण अलगाव न तो संभव है और न ही ज़रूरी। ज़रूरी यह है कि धार्मिक स्वतंत्रता सुनिश्चित हो और राज्य सभी धार्मिक समुदायों के साथ न्याय करे।

धर्मनिरपेक्षता से जुड़े प्रमुख विवाद

  1. छद्म धर्मनिरपेक्षता (Pseudo-Secularism): इस विचार के अनुसार, भारत का राज्य कुछ खास अल्पसंख्यक समुदायों को राजनीतिक लाभ पहुंचाने के लिए धर्मनिरपेक्षता की आड़ लेता है। इस पर विशेषकर हिंदू राष्ट्रवादी समूहों ने कांग्रेस और अन्य दलों पर “मतदान बैंक की राजनीति” (vote-bank politics) का आरोप लगाया है।
  2. धार्मिक हिंसा और दंगे: धर्मनिरपेक्षता के होते हुए भी भारत में बार-बार धार्मिक दंगे होते हैं। विशेषकर 1980 के दशक के बाद शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में दंगों की घटनाएं बढ़ी हैं। आलोचकों का कहना है कि धर्मनिरपेक्षता इन दंगों को रोकने में नाकाम रही है।

निष्कर्ष (Conclusion)

भारतीय धर्मनिरपेक्षता न धर्म-विरोधी है, न धर्म-समर्थक, बल्कि न्याय और समानता की ओर झुकी हुई आलोचनात्मक सम्मान की नीति है। यह ना केवल धार्मिक समूहों के बीच शांति सुनिश्चित करना चाहती है, बल्कि धर्मों के भीतर मौजूद असमानता को भी खत्म करने का प्रयास करती है। परन्तु यह अवधारणा लगातार बहस और पुनःचिंतन का विषय बनी हुई है क्योंकि भारत की विविधता और जटिल धार्मिक-सांस्कृतिक संरचना इसे और भी चुनौतीपूर्ण बनाती है।

 


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