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भारतीय न्याय व्यवस्था में लंबित मामलों की चुनौती

भारत के न्यायालयों में लंबित केसों की समस्या भारत की न्याय व्यवस्था की सबसे गंभीर और व्यापक चुनौती बन चुकी है। यह केवल न्यायिक दक्षता का प्रश्न नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था की सेहत से जुड़ा प्रश्न भी है, जो नागरिकों के अधिकारों, लोकतांत्रिक आदर्शों और विकास की गति को प्रत्यक्षतः प्रभावित करता है। प्रस्तुत लेख में लंबित केसों के ट्रेंड, मुख्य कारण, इनकी व्यापक सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिणतियाँ, अब तक हुए प्रयास और आगे के लिये अपेक्षित उपायों का विश्लेषण किया गया है।

भूमिका: न्याय में देरी—“न्याय से वंचित” का यथार्थ

समयबद्ध और समावेशी न्याय की अवधारणा भारतीय संविधान में अनुच्छेद 21 की जीवन और स्वतंत्रता की गारंटी से जुड़ी है, जिसमें ‘न्याय में देरी का अर्थ न्याय से वंचित होना’ बार-बार उद्घाटित हुआ है। पिछले वर्षों में यह चुनौती एक विकराल रूप ले चुकी है। नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड (NJDG) के अनुसार 2025 में भारत के अधीनस्थ अदालतों में 4.6 करोड़, उच्च न्यायालयों में 63.3 लाख और सर्वोच्च न्यायालय में लगभग 88 हजार मामले लंबित हुए हैं—कुल संख्या पाँच करोड़ को पार कर चुकी है। मामलों की प्रवृत्ति और जटिलता दोनों ही बढ़ रही हैं, जिससे अदालतों पर भारी दबाव पड़ा है।

लंबित केसों के प्रमुख कारण

भारत में लंबित मामलों की समस्या बहुआयामी और संरचनात्मक है। इसका सबसे बड़ा कारण न्यायाधीशों की संख्या का अपर्याप्त होना है: ‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025’ के अनुसार देश में प्रतिदस लाख आबादी पर केवल 15 न्यायाधीश उपलब्ध हैं, जबकि विधि आयोग ने 1987 में 50 न्यायाधीश प्रति दस लाख की अनुशंसा की थी। उच्च न्यायालयों में 33% व जिला न्यायालयों में 21% पद रिक्त हैं, जिससे मौजूदा न्यायाधीशों पर केसों का बोझ बढ़ जाता है। इलाहाबाद और मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में एक न्यायाधीश के पास औसतन 15,000 से अधिक केस लंबित हैं और अधीनस्थ अदालतों में यह औसत 2,200 केस प्रति न्यायाधीश है।

दूसरा कारण अति-मुकदमेबाजी है, जिसमें सरकार सबसे बड़ी पक्षकार है—करीब 50% विवादों में सरकारी विभाग या एजेंसी शामिल होती है। ऐसे मामलों की प्रकृति और स्थगन की रणनीति लंबितता को और बढ़ाती है। तीसरा कारण प्रक्रियात्मक जटिलताएँ व अनावश्यक स्थगन (adjournments) हैं, जो प्रणालीगत कमज़ोरी को उजागर करते हैं। अत्यधिक वाद-विवाद के कारण विवाद समाधान तंत्र (ADR) व ग्राम न्यायालय जैसी वैकल्पिक प्रणालियों का अपेक्षित उपयोग नहीं हो रहा है।

इसके अतिरिक्त, पुलिस-पत्रावलियों में देरी, वकीलों की हड़तालें, डिजिटल प्रक्रिया में खामियाँ और जटिल अपील प्रक्रिया इस समस्या को और गंभीर बनाते हैं। तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति हालिया वर्षों में आंशिक समाधान के रूप में आई है, परंतु दीर्घकालिक समाधान हेतु जड़-स्तर पर सुधार की आवश्यकता बनी हुई है।

सामाजिक प्रभाव

लंबित मामलों का सबसे गहरा प्रभाव समाज के सबसे कमजोर वर्ग—गरीब, दलित, महिलाएँ, वृद्ध और बच्चे—पर पड़ता है। भारत की जेलों में विचाराधीन कैदियों की आबादी लगभग 76% है, जिनमें अधिकांश गरीब हैं, जिन्हें वर्षों तक बिना दोष सिद्ध हुए जेल में रहना पड़ता है। ऐसे मामलों में न्याय न मिल पाना केवल मानवाधिकारों का उल्लंघन ही नहीं, समाज में हताशा, अविश्वास और अपराध की प्रवृत्ति को भी बढ़ावा देता है। सामाजिक न्याय की बुनियादी अवधारणा तब विफल होती है जब मुकदमों का निस्तारण समय पर नहीं होता।

इसके अलावा, वैवाहिक विवाद, पारिवारिक संपत्ति, या मजदूरी के केसों में लंबी न्यायिक प्रक्रिया के कारण समाज के भीतर तनाव, भय और अनिश्चितता गहरे पैठ जाती है। महिला और बच्चे घरेलू हिंसा या शोषण के मामलों में न्याय पाने के लिये सालों-साल भटकते रहते हैं।

आर्थिक प्रभाव

न्यायिक लंबितता भारत की आर्थिक प्रगति में बड़ी बाधा है। लंबित मामलों के कारण भूमि अधिग्रहण या पर्यावरणीय स्वीकृति को लेकर अनेक अवसंरचनात्मक परियोजनाएँ वर्षों तक अटकी रहती हैं, जिससे आर्थिक विकास रुक जाता है। निवेशक न्यायिक व्यवस्था में स्थायित्व और पारदर्शिता चाहते हैं; लगातार मुकदमेबाजी व मामलों का लंबा खिंचाव निवेश के माहौल को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।

इसके अतिरिक्त, मुकदमे चलने के दौरान पक्षकारों को वकीलों की फीस, बार-बार तारीखों पर उपस्थिति, तथा लंबी प्रतीक्षा के चलते बड़ा आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। अदालतों की हत्या या जमीन विवाद के मामलों में देरी से आय, संपत्ति वितरण, या रोज़गार के अवसरों पर सीधा असर पड़ता है। यही कारण है कि ‘Ease of Doing Business’ रैंकिंग में न्याय तंत्र की देरी बड़ी बाधा रही है।

राजनीतिक प्रभाव

लंबित मामलों की समस्या भारत के लोकतंत्र के लिए भी चुनौती है। ऐसे हालात में नागरिकों का राज्य व न्यायालयों पर विश्वास कमजोर होता है, जिससे वे समाधान के लिए गैर-कानूनी माध्यम—भीड़ न्याय, पंचायत, या बाहुबल—का सहारा ले सकते हैं। इससे न केवल कानून-व्यवस्था बिगड़ती है, बल्कि राजनैतिक विमर्श में भी न्याय व्यवस्था की विफलता को लेकर तकरार बढ़ जाती है।

राजनीतिक दल कई बार न्यायिक नियुक्तियों, कॉलेजियम बनाम NJAC, या न्यायिक जवाबदेही के प्रश्नों पर बहस को राजनीतिक रंग देते हैं, जिससे स्वतंत्र न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर भी असर होता है। चुनावी मामलों, राजनीतिक भ्रष्टाचार, या बड़े घोटालों की जांच वर्षों तक लंबित रह जाने से लोकतांत्रिक आदर्शों को आघात पहुँचता है।

अब तक के प्रमुख प्रयास

भारत सरकार व न्यायपालिका दोनों स्तरों पर इस समस्या के समाधान के लिए कई पहलें की गई हैं। 2011 से ‘न्याय वितरण और विधिक सुधार हेतु राष्ट्रीय मिशन (NMJDLR)’ के माध्यम से न्यायिक बुनियादी ढांचे के आधुनिकीकरण, तकनीक के उपयोग (ई-कोर्ट्स), न्यायालयों के डिजिटलीकरण, फास्ट-ट्रैक कोर्ट व तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ की गई हैं। वाद निस्तारण की नई रणनीतियाँ, जैसे- शाम की अदालतें (evening courts), मोबाइल अदालतें, ADR, लोक अदालत, प्राथमिकी और मामलों की ऑनलाइन निगरानी, और समयबद्ध सुनवाई का प्रयास हुआ है।

जन विश्वास अधिनियम 2023 जैसे कानूनों में अपराधमुक्तिकरण का प्रयास किया गया है, जिससे छोटे-मोटे अपराधों या प्रक्रियात्मक उल्लंघनों पर आपराधिक मुकदमे कम हों। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में तदर्थ रूप में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति के निर्देश दिए हैं ताकि उच्च न्यायालयों का बोझ कम हो सके। साथ ही, भर्ती प्रक्रिया में पारदर्शिता, महिला न्यायाधीशों और पिछड़े वर्गों की बढ़ती भागीदारी के लिए भी दिशानिर्देश जारी हुए हैं।

इन सबका सकारात्मक प्रभाव दिखा भी है—सुप्रीम कोर्ट में 2025 में मामूली गिरावट देखी गई, लेकिन समग्र स्तर पर वृद्धि का सिलसिला थमा नहीं है।

क्या अन्य प्रयास किए जाने चाहिए?

लंबित मामलों की समस्या का स्थायी समाधान तभी संभव है जब न्यायिक नियुक्तियों और बुनियादी ढाँचे का विस्तार सुनियोजित एवं समयबद्ध हो। पहली प्राथमिकता न्यायाधीशों की संख्या विधि आयोग की सिफारिश के अनुसार बढ़ाना, रिक्तियों की त्वरित नियुक्ति और जिला स्तर पर सक्षम न्यायाधीशों का चयन होना चाहिए। न्यायालयों में प्रशासनिक कार्यों को अनुभवी प्रबंधकों अथवा ICT विशेषज्ञों के माध्यम से अपग्रेड किया जाए, जिससे न्यायिक स्टाफ पर केवल निर्णायक कार्य शेष रहे।

दूसरा, प्रक्रियाओं का सरलीकरण और डिजिटल प्लेटफॉर्म का अधिकतम उपयोग हो—मानव दखल को कम कर केस ट्रैकिंग, दस्तावेज़ अपलोड, समन-संचालन जैसे कार्यों में तकनीकी नवाचार लागू हो। तीसरा, विवाद के वैकल्पिक समाधान (ADR, परिवाद निराकरण समिति, ग्राम न्यायालय) को मजबूती मिले, जिनमें त्वरित और सर्व व्याप्त न्याय मिल सके।

साथ ही, सरकारी विभागों में मुकदमे जनरेशन रोकने के लिए पूर्व-निर्णय तंत्र , सरकारी वकीलों की जवाबदेही, और केस पर समन्वय व्यवस्था ज़रूरी है। विशाल वाद के मामलों और सार्वजनिक परियोजनाओं में ‘मीडिएशन’ व ‘प्ली बार्गेनिंग’ जैसे उपायों को प्रोत्साहन मिले।

कानूनी जागरूकता और मुफ्त विधिक सहायता Article 39A के तहत ग्रामीण, कमजोर और हाशिए पर खड़े नागरिकों तक पहुँचे, ताकि उनका प्रणाली से विश्वास जुड़ा रहे। फोरेंसिक व साइबर विशेषज्ञता, पुलिस-जांच और अभियोजन तंत्र में आधुनिक निरीक्षण की व्यवस्था हो, जिससे मुकदमे की जड़ में ही तकनीकी विश्वसनीयता हो।

अंत में—न्याय व्यवस्था पर सतत शोध, नीति निर्माण में डेटा एनालिटिक्स, और न्याय के स्वरूप को ‘सेवा’ के तौर पर लागू करना समय की मांग है। जब तक न्यायिक कार्यपद्धति, मानवीय संवेदना और तकनीकी नवाचार को समन्वित नहीं किया जाएगा, ‘न्याय में देरी’ हमारे लोकतंत्र की गंभीर चुनौतियों में बनी रहेगी।


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