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भारतीय राजनीति की तीन भाषाएं – मॉरिस जोन्स

भारतीय राजनीति की तीन भाषाएं – मॉरिस जोन्स

लेखक का परिचय और सिद्धांत की पृष्ठभूमि

मॉरिस जोन्स (W.H. Morris-Jones) एक प्रसिद्ध ब्रिटिश राजनीतिक वैज्ञानिक थे जिन्होंने भारतीय राजनीति पर गहन अध्ययन किया। उनकी पुस्तक ‘The Government and Politics of India’ (प्रकाशन वर्ष: 1971) भारतीय राजनीति की संरचना और व्यवहार को समझने में एक मील का पत्थर मानी जाती है। इसी पुस्तक में उन्होंने ‘भारतीय राजनीति की तीन भाषाओं’ का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उन्होंने यह अवधारणा भारत के लोकतंत्र की बहुस्तरीय प्रकृति को समझाने के लिए दी थी।

1. आधुनिक भाषा (Modern Language)

यह भाषा संविधान, कानून, नीति निर्माण, संसद, चुनाव आयोग और न्यायपालिका जैसी संस्थाओं से जुड़ी होती है। यह लोकतंत्र की प्रक्रिया, विधिक प्रणाली और अधिकारों की बात करती है। इस भाषा की विशेषता है कि यह शासन को संस्थागत बनाती है और उत्तरदायित्व को बढ़ावा देती है, लेकिन आम जनता के लिए इसकी तकनीकी शब्दावली समझना कठिन होता है।

2. परंपरागत भाषा (Traditional Language)

यह भाषा भारत के सामाजिक ताने-बाने से जुड़ी है जैसे कि जाति, धर्म, समुदाय और क्षेत्रीय पहचान। यह राजनीति को स्थानीय और सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ती है। हालांकि यह समाज की विविधता को दर्शाती है, लेकिन इसके अत्यधिक प्रयोग से सांप्रदायिकता, जातिवाद और विभाजनकारी राजनीति को बढ़ावा मिल सकता है।

3. संत भाषा (Saintly Language)

यह भाषा नैतिकता, सेवा, अहिंसा, सत्य और तपस्या जैसे आदर्शों पर आधारित होती है। महात्मा गांधी और विनोबा भावे जैसे नेता इस भाषा के प्रतिनिधि माने जाते हैं। इस भाषा में राजनीति को सेवा का माध्यम माना जाता है, लेकिन आज की व्यावहारिक राजनीति में इसकी भूमिका सीमित हो गई है।

तीन भाषाएं – मूल व्याख्या

क्रमभाषाविवरण
1️⃣आधुनिक भाषा (Modern Language)यह भाषा संविधान, कानून, संसद, चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं से जुड़ी होती है। इसमें कानून, नीति और प्रशासन की बात होती है। यह भारत के लोकतांत्रिक और संवैधानिक ढांचे का प्रतिनिधित्व करती है।
2️⃣परंपरागत भाषा (Traditional Language)यह जाति, धर्म, क्षेत्र, समुदाय जैसे सामाजिक-राजनीतिक पहलुओं से जुड़ी होती है। इसमें स्थानीयता, सांस्कृतिक मान्यताएं और जातिगत समीकरण हावी रहते हैं। यह स्थानीय राजनीति और सामाजिक जड़ों से जुड़ी होती है।
3️⃣संत भाषा (Saintly Language)यह भाषा नैतिकता, सेवा, अहिंसा, सत्य और तपस्या जैसी मूल्यों पर आधारित होती है। गांधीजी, विनोबा भावे जैसे नेता इसके प्रतीक हैं। इसमें राजनीति को सेवा और नैतिकता का माध्यम माना जाता है, न कि सत्ता प्राप्ति का साधन।

मॉरिस जोन्स के अनुसार, भारतीय राजनीति इन तीनों भाषाओं के सम्मिलन से संचालित होती है। आधुनिक भाषा शासन को वैधानिक बनाती है, परंपरागत भाषा जनता से संपर्क जोड़ती है, और संत भाषा राजनीति में नैतिक मूल्य स्थापित करती है। इन तीनों का संतुलन भारतीय लोकतंत्र की स्थिरता के लिए आवश्यक है।

उदाहरण:

  • आधुनिक भाषा: सुप्रीम कोर्ट में संविधान की व्याख्या, बजट प्रस्तुति।

  • परंपरागत भाषा: बिहार में जातीय समीकरण, मराठा आरक्षण की राजनीति।

  • संत भाषा: गांधीजी का स्वतंत्रता आंदोलन, अन्ना हजारे का लोकपाल आंदोलन।

आलोचना

कुछ आलोचकों का मानना है कि यह वर्गीकरण अधिक सामान्यीकृत है और भारत की राजनीतिक विविधता को पूरी तरह से नहीं दर्शाता। इसके अलावा, संत भाषा की वर्तमान राजनीति में प्रासंगिकता कम होती जा रही है, जिससे यह फ्रेमवर्क आंशिक रूप से अप्रासंगिक प्रतीत हो सकता है।

वर्तमान समय में प्रासंगिकता

हालांकि यह सिद्धांत 1970 के दशक में प्रस्तुत किया गया था, फिर भी यह आज भी भारतीय राजनीति को समझने के लिए उपयोगी है। आज की राजनीति में जहां एक ओर डिजिटल मीडिया और जन आंदोलनों की भाषा विकसित हो रही है, वहीं जातिगत राजनीति और कानूनी संस्थाओं की भूमिका भी यथावत है। इस प्रकार, तीन भाषाओं का यह सिद्धांत आज के संदर्भ में भी विश्लेषणात्मक दृष्टि प्रदान करता है।

भारतीय राजनीति की बहुलता, जटिलता और गहराई को समझने के लिए मॉरिस जोन्स का तीन भाषाओं का सिद्धांत एक महत्वपूर्ण उपकरण है। यह दिखाता है कि भारतीय लोकतंत्र न केवल संस्थागत प्रक्रियाओं पर आधारित है, बल्कि सामाजिक और नैतिक तत्वों से भी प्रभावित होता है। यह सिद्धांत छात्रों, शोधकर्ताओं और नीति निर्माताओं के लिए समान रूप से उपयोगी है।

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