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भारत और अमेरिका ट्रेड डील:सहयोग या मजबूरी

 

भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक संबंधों की जटिलता पिछले कुछ वर्षों में अंतरराष्ट्रीय मंच पर गहन चर्चा का विषय बनी हुई है। विश्व की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाएं होने के कारण दोनों देशों के बीच व्यापार संतुलन, शुल्क नीतियां और निवेश संबंधी दृष्टिकोण, वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। भारत और अमेरिका के बीच जो प्रस्तावित व्यापार समझौता वर्षों से चर्चा में है, वह सहयोग और मजबूरी के द्वंद्व के बीच झूल रहा है।

 

2018-2019 के दौरान अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की “अमेरिका फर्स्ट” नीति के चलते भारत को जीएसपी (Generalized System of Preferences) कार्यक्रम से बाहर कर दिया गया था। इसके तहत भारत को कई वस्तुओं के निर्यात पर टैरिफ छूट प्राप्त थी। इस कदम ने दोनों देशों के बीच व्यापारिक तनाव को बढ़ा दिया। इसके जवाब में भारत ने भी अमेरिकी उत्पादों पर जवाबी शुल्क लगाए। इसके बाद से ही दोनों पक्षों के बीच एक व्यापक व्यापार समझौते की संभावना पर बातचीत शुरू हुई, जिसमें भारत की ओर से शुल्कों में कटौती, ई-कॉमर्स डेटा लोकलाइजेशन, चिकित्सा उपकरणों की कीमतों जैसे कई विवादास्पद मुद्दे शामिल रहे हैं।

अमेरिका चाहता है कि भारत शुल्कों को कम करे, विशेषकर कृषि उत्पादों और मोटरसाइकिलों जैसे सामानों पर। इसके अलावा अमेरिकी टेक कंपनियों की यह मांग भी है कि भारत डेटा लोकलाइजेशन जैसे नियमों में ढील दे जिससे अमेरिकी कंपनियों की परिचालन लागत कम हो सके। वहीं, भारत अपनी संवेदनशील कृषि अर्थव्यवस्था और रणनीतिक डेटा संप्रभुता के हितों से कोई समझौता नहीं करना चाहता। इसके अतिरिक्त, भारत दवा उद्योग को नियंत्रित करने वाले अमेरिकी मानकों को लेकर भी चिंतित है, क्योंकि इससे देश की जेनेरिक दवा उत्पादन क्षमता प्रभावित हो सकती है।

हाल ही में अमेरिका ने जापान, इंडोनेशिया और वियतनाम के साथ भी ट्रेड डील्स को अंतिम रूप दिया है। इन देशों के साथ अमेरिका की निकटता ने भारत के लिए नई आर्थिक चुनौतियाँ पैदा की हैं। जापान और वियतनाम की निर्यात नीति में जो लचीलापन है, वह अमेरिका के लिए उन्हें आकर्षक साझेदार बनाता है। इसके विपरीत, भारत का संरचनात्मक रुख कई बार अमेरिका को असहज करता रहा है। अमेरिका के साथ व्यापार समझौते की प्रक्रिया में भारत की धीमी गति को कुछ विशेषज्ञ रणनीतिक “कौशल” मानते हैं तो कुछ इसे अवसरों का चूकना बताते हैं।

 

हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत अमेरिका के साथ व्यापार समझौते को लेकर अत्यंत सतर्क रुख अपना रहा है। यह सतर्कता केवल आर्थिक नीतियों के कारण नहीं है, बल्कि भारत की विदेश नीति और बहुध्रुवीय वैश्विक राजनीति को ध्यान में रखकर तय की गई रणनीति का हिस्सा है। भारत नहीं चाहता कि वह किसी एक महाशक्ति के दबाव में आकर अपने रणनीतिक या आर्थिक हितों से समझौता करे। यह भी देखा गया है कि अमेरिका के साथ ट्रेड समझौते में छोटे देशों के अनुभव मिलेजुले रहे हैं। इंडोनेशिया और जापान के साथ हुए अमेरिका के समझौते ने इन देशों की कुछ नीतिगत स्वतंत्रता को सीमित कर दिया, जिससे भारत को सतर्कता बरतने की आवश्यकता महसूस हुई।

 

भारत एक तरफ वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में अपनी भूमिका बढ़ाना चाहता है और दूसरी तरफ घरेलू बाजार, खासकर किसानों और छोटे व्यापारियों के हितों को संरक्षित करना चाहता है। ऐसी स्थिति में अमेरिका के साथ कोई भी व्यापक व्यापार समझौता करना एक कठिन चुनौती बन जाता है। भारत सरकार की नीति इस दिशा में “सेक्टर-वार” दृष्टिकोण अपनाने की है, जिसमें रणनीतिक रूप से कुछ क्षेत्रों में बाजार पहुंच प्रदान की जाती है, जबकि कुछ क्षेत्रों को संरक्षित रखा जाता है। इस नीति का लाभ यह है कि यह भारत को संतुलन बनाए रखने की अनुमति देता है, लेकिन इसकी आलोचना यह कहकर की जाती है कि इससे संभावित निवेशक भ्रमित हो सकते हैं।

 

इस बीच, चीन से दूरी बनाकर अमेरिका एशिया में नए रणनीतिक साझेदारों की तलाश में है। इस दृष्टि से भारत एक आकर्षक विकल्प है, लेकिन भारत की सतर्कता और आत्मनिर्भरता की नीति इस समीकरण को जटिल बनाती है। भारत की यह सोच कि वह किसी भी व्यापार समझौते में एक बराबरी का भागीदार बनकर उभरे, उसकी विदेश नीति के साथ सुसंगत है। यह सहयोग की भावना को दर्शाता है, लेकिन अमेरिका जैसी आक्रामक व्यापारिक नीति वाली शक्ति के लिए यह कई बार “मजबूरी” की स्थिति भी बन जाती है।

 

प्रस्तावित भारत-अमेरिका ट्रेड डील केवल एक द्विपक्षीय आर्थिक संधि नहीं है, बल्कि यह वैश्विक शक्ति संतुलन में भारत की स्थिति तय करने वाला संभावित मोड़ भी हो सकता है। दोनों देशों के घरेलू राजनीतिक समीकरण, व्यापारिक लॉबी, और रणनीतिक चिंताएं इस समझौते को एक जटिल बनावट प्रदान करती हैं। भारत अमेरिका का नौवां सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है, और अमेरिका भारत का सबसे बड़ा निर्यात गंतव्य है। इस लिहाज से व्यापारिक रिश्तों का मजबूत होना दोनों के हित में है, लेकिन यह केवल आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक समझौता भी बन चुका है।

 

इस पूरे परिदृश्य को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक सहयोग एक अपरिहार्य आवश्यकता बनती जा रही है, लेकिन यह सहयोग ‘मजबूरी’ में बदले उससे पहले पारस्परिक विश्वास और सम्मान की नींव पर खड़ा होना चाहिए। यदि दोनों देश लचीलेपन और रणनीतिक समझदारी के साथ आगे बढ़ें, तो यह डील न केवल आर्थिक क्षेत्र में लाभदायक होगी बल्कि वैश्विक भू-राजनीति में भी संतुलनकारी भूमिका निभा सकती है।

 

 

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