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भारतीय धर्मनिरपेक्षता पर बहस

धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत

नीत्शे ने कहा ईश्वर मर गया है– तब उसका मतलब यह नहीं था कि सचमुच ईश्वर मर गया है। यह एक इशारा (symbol) था, कि अब समाज धीरे-धीरे धर्म से हटकर तर्क और कानून पर आधारित शासन की ओर बढ़ रहा हैं।

इस कथन को पवित्र और धर्मनिरपेक्ष, आस्था और तर्कसंगत शासन के बीच का तनाव के रूप में  भारत के धर्मनिरपेक्षता के प्रयोग के माध्यम से स्पष्ट तौर पर समझ सकते है।

  • भारत का संविधान (जो 1950 में बना) यह कहता है कि सरकार का काम किसी भी धर्म को बढ़ावा देना नहीं, बल्कि सभी धर्मों को बराबर मानना है। इसे ही धर्मनिरपेक्षता (Secularism) कहते हैं। लेकिन भारत जैसे देश में, जहाँ धर्म बहुत गहरा है, यह संतुलन बनाना काफी चुनौती भरा होता है।
    इण कारणों से भारत में धर्मनिरपेक्षता अब भी बहुत चर्चा और मतभेद का विषय बना हुआ हैं।

नेहरू और धर्मनिरपेक्षता को कैसे देखते थे?

  • नेहरू जी (भारत के पहले प्रधानमंत्री) को धर्म से नहीं, बल्कि संगठित धर्म से परेशानी थी।
    नेहरु के अनुसार, ऐसे धर्म में बहुत कट्टरता, पाखंड और तर्कहीन बातें होती हैं।
  • आज के कई नेता वोट पाने के लिए धर्म को राजनीति में इस्तेमाल करते हैं। लेकिन नेहरू चाहते थे कि राज्य (सरकार) और धर्म एक-दूसरे से अलग रहें।
  • इसका मतलब यह नहीं कि नेहरू ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे बल्कि उनकी सोच यह थी कि सरकार को तर्क, नैतिकता और सभी के लिए बराबरी के आधार पर चलना चाहिए।

नेहरु के लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब:

    • किसी धर्म को न बढ़ावा देना, न विरोध करना
    • धर्म को निजी मामला मानना
    • और शासन को न्याय और बुद्धि से चलाना

विशुद्ध भारतीय धर्मनिरपेक्षता: फ्रांसीसी, अमेरिकी
भारत का सर्वोच्च न्यायालय बार-बार स्पष्ट करता है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता न तो फ्रांसीसी मॉडल “Laïcité” (कठोर पृथक्करण) जैसी है, न ही अमेरिकी मॉडल की तरह पूर्ण “non-establishment”।
इसके विपरीत, भारत ने एक विशिष्ट मार्ग अपनाया है जो धार्मिक बहुलता को मान्यता देता है जबकि राज्य की तटस्थता को बनाए रखता है।
भारत की धर्मनिरपेक्षता दुनिया के बाकी देशों से अलग है।

  • सभी धर्मों को बराबरी से देखती है,
  • कभी-कभी धार्मिक संस्थाओं की सहायता भी करती है (जैसे तीर्थ यात्रा में),
  • और साथ ही, धर्म को कानून से ऊपर नहीं मानती।

अगर कोई धर्म, राज्य का धर्म बन जाए, तो फिर वह स्वतंत्र नहीं रह पाता।
वह सरकार के कानूनों और राजनीति में बंध जाता है।

उदाहरण:

  • मध्यकालीन भारत में जब इस्लाम राज्य से जुड़ा, तो उसकी स्वतंत्रता खत्म हुई।
  • यूरोप में ईसाई धर्म को राजनीति में घसीटा गया, जिससे उसमें भी राजनीतिक पाखंड आया।

दार्शनिक जॉन लॉक और रोजर विलियम्स के अनुसार, राज्य को केवल नागरिक मामलों (tax, कानून, सुरक्षा) से मतलब होना चाहिए, न कि किसी की आत्मा या मोक्ष से।

भारत का स्वदेशी धार्मिक बहुलवाद और संवैधानिक विरासत

अशोक का धम्म

सम्राट अशोक के धम्म के स्तंभलेख (3rd सदी ईसा पूर्व) भारतीय धर्मनिरपेक्षता की नींव के रूप में देखे जा सकते हैं।
राजनीतिक विचारक राजीव भार्गव ने अपने शोध “The Distinctiveness of Indian Secularism” और “Beyond Toleration” में बताया कि अशोक का धम्म नैतिक राज्य व्यवस्था, धार्मिक सहिष्णुता, और न्याय पर आधारित शासन का आदर्श था।

  • धम्म कोई विशिष्ट धर्म नहीं था, बल्कि वह एक नैतिक आचार संहिता थी।
  • इसमें सभी धर्मों के लिए समान सम्मान, विवेक, और सह-अस्तित्व की भावना शामिल थी।
  • जैसे शिलालेख 7: सभी संप्रदायों को समान सम्मान और  शिलालेख 12: अपने धर्म की प्रशंसा करते हुए दूसरों की निंदा नहीं करनी की बात करता है।

सम्राट अशोक के शिलालेख, जो दो हजार साल से भी पुराने हैं, एक दार्शनिक ढाँचा प्रदान करते हैं।
शिलालेख 7 में सभी धर्मों के लिए समान सम्मान की वकालत की गई; शिलालेख 12 में अपने धर्म का महिमामंडन करने और दूसरों की निंदा करने के विरुद्ध चेतावनी दी गई।
अशोक का धम्म कोई धर्मशास्त्र नहीं था, बल्कि करुणा, सहिष्णुता और नागरिक सह-अस्तित्व पर आधारित एक नैतिक शासन संहिता थी, जिसे आज के विचारक ‘संवैधानिक नैतिकता’ कहते है।
राजनीतिक सिद्धांतकार राजीव भार्गव ने आधुनिक भारतीय धर्मनिरपेक्षता पर अशोक के प्रभाव को रेखांकित किया है। यह पश्चिमी आयात नहीं, बल्कि भारत की प्राचीन सभ्यतागत चेतना में निहित एक शासन मॉडल है।

संवैधानिक विरासत

  • यह दावा कि धर्मनिरपेक्षता 1976 में ही भारतीय संविधान में आई, न केवल भ्रामक है बल्कि ऐतिहासिक रूप से भी असत्य है।
  • 1928 की मोतीलाल नेहरू समिति रिपोर्ट, 1931 का कराची प्रस्ताव, और यहाँ तक कि 1944 का हिंदू महासभा का मसौदे में एक धर्म-निरपेक्ष राज्य की मांग की गयी थी जिसमें कोई आधिकारिक धर्म नही माना गया था।

संविधान सभा की बहसें इस प्रवृत्ति को और भी पुष्ट करती हैं।

  • जब एच.वी. कामथ ने संविधान की प्रस्तावना में ‘ईश्वर के नाम’ जोड़ने का प्रस्ताव रखा, तो उसे लोकतांत्रिक रूप से अस्वीकार कर दिया गया।
  • भले ही ‘secular’ शब्द 1976 तक जोड़ा गया, लेकिन इसकी आत्मा संविधान में पहले दिन से थी।

अंतरराष्ट्रीय मॉडल: तुलनात्मक संवैधानिक दृष्टि

  • संयुक्त राजशाही (UK) में एक आधिकारिक चर्च (एंग्लिकन) है, फिर भी वह धार्मिक स्वतंत्रता और कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है।
  • आयरलैंड और ग्रीस अपनी प्रस्तावनाओं में ईश्वर और ईसाई धर्म का उल्लेख करते हैं, परन्तु संवैधानिक रूप से धार्मिक भेदभाव निषिद्ध है।
  • यहाँ तक कि पाकिस्तान और श्रीलंका, जो आधिकारिक तौर पर राज्य धर्म को मान्यता देते हैं, अपने संविधान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता को मान्यता देते हैं।
  • फ्रांस: Laïcité, धर्म और राज्य का सख्त अलगाव है।
  • अमेरिका: Non-establishment, सरकार किसी धर्म को प्रोत्साहित नहीं करती।
  • भारत: Principled distance, सभी धर्मों को समान आदर, राज्य की सहायता जब आवश्यक हो, पर राजनीतिक नियंत्रण नहीं

भारत में धर्मनिरपेक्षता के लिए संवैधानिक प्रावधान

भारतीय संविधान विभिन्न प्रावधानों के माध्यम से धर्मनिरपेक्षता को कायम रखता है:

  • 1976 में 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में “धर्मनिरपेक्ष” शब्द स्पष्ट रूप से जोड़ा गया, जिससे भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया।
  • अनुच्छेद 14कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है तथा धर्म के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है।
  • अनुच्छेद 15धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है।
  • अनुच्छेद 25धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को सुनिश्चित करता है, तथा व्यक्तियों को अपने धर्म को मानने, उसका अभ्यास करने और उसका प्रचार करने की अनुमति देता है।
  • अनुच्छेद 26धार्मिक संप्रदायों को अपने मामलों का प्रबंधन करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
  • अनुच्छेद 44 जैसे अनुच्छेद एक समान नागरिक संहिता की वकालत करते हैं जिसका उद्देश्य व्यक्तिगत कानूनों में धर्मनिरपेक्ष शासन को बढ़ावा देना है।
  • अनुच्छेद 28:यह प्रावधान राज्य-वित्तपोषित शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा पर प्रतिबंध लगाता है।

भारत में धर्मनिरपेक्षता के आयाम

  • सामाजिक आयाम:धर्मनिरपेक्षता विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक समूहों के बीच परस्पर सम्मान को बढ़ावा देकर सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देती है। यह धर्म के आधार पर सामाजिक विखंडन को रोकने में एक निवारक के रूप में कार्य करती है।
  • राजनीतिक आयाम:धर्मनिरपेक्षता यह सुनिश्चित करती है कि राजनीतिक सत्ता पर किसी एक धार्मिक समूह का एकाधिकार न हो, जिससे लोकतांत्रिक सिद्धांतों का संरक्षण होता है।
  • आर्थिक आयाम:समानता और न्याय पर जोर देकर, धर्मनिरपेक्षता धर्म के आधार पर आर्थिक भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास करती है, तथा सभी के लिए उचित अवसर सुनिश्चित करती है।
  • सांस्कृतिक आयाम:भारतीय धर्मनिरपेक्षता विभिन्न धार्मिक समुदायों की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करती है तथा विविधता में एकता को बढ़ावा देती है।
  • शैक्षिक आयाम:शिक्षा में धर्मनिरपेक्षता का उद्देश्य सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता का सम्मान करते हुए वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आलोचनात्मक सोच को विकसित करना है।

भारत में धर्मनिरपेक्षता के लिए चुनौतियाँ

  • सांप्रदायिकता: धार्मिक ध्रुवीकरण और सांप्रदायिक हिंसा ने भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को कमजोर कर दिया है। विभाजन, बाबरी मस्जिद विध्वंस और समय-समय पर होने वाले सांप्रदायिक दंगे जैसी घटनाएं धार्मिक सद्भाव बनाए रखने की चुनौतियों को उजागर करती हैं।
  • धर्म का राजनीतिकरण:राजनीतिक दल और नेता अक्सर वोट हासिल करने के लिए धार्मिक भावनाओं का शोषण करते हैं, जिससे राज्य के धर्मनिरपेक्ष आदर्शों का क्षरण होता है।
  • धार्मिक कट्टरवाद:विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच चरमपंथी विचारधाराओं का उदय धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा बन गया है।
  • न्यायिक व्याख्या:धार्मिक मामलों पर न्यायालय के निर्णय कभी-कभी विवाद उत्पन्न करते हैं, जिससे धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों और धार्मिक स्वतंत्रता के बीच तनाव पैदा होता है।
  • समान नागरिक संहिता (यूसीसी):यूसीसी का कार्यान्वयन एक विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है, कुछ लोग तर्क देते हैं कि यह धर्मनिरपेक्षता के लिए आवश्यक है, जबकि अन्य इसे धार्मिक स्वायत्तता पर उल्लंघन मानते हैं।
  • जाति और धार्मिक भेदभाव:जाति-आधारित भेदभाव और धार्मिक असहिष्णुता लगातार राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को चुनौती दे रहे हैं।

भारतीय धर्मनिरपेक्षता की आलोचना

  • कुछ आलोचकों का तर्क है कि धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी है, लेकिन भारतीय धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी नहीं है। इसमें सभी धर्मों को उचित सम्मान दिया गया है। उल्लेखनीय है कि धर्म निरपेक्षता संस्थाबद्ध धार्मिक वर्चस्व का विरोध तो करती है लेकिन यह धर्म विरोधी होने का पर्याय नहीं है।
  • धर्म निरपेक्षता के विषय में यह भी कहा जाता है कि यह पश्चिम से आयातित है, अर्थात इसाईयत से प्रेरित है, लेकिन यह सही आलोचना नहीं है। दरअसल भारत में धर्मनिरपेक्षता को प्राचीन काल से ही अपनी एक विशिष्ट पहचान रही है, यह कहीं से आयातित नहीं बल्कि मौलिक है।
  • यह आरोप लगाया जाता है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता राज्य द्वारा संचालित होती है। अल्पसंख्यकों को शिकायत है कि राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। इसके अलावा आलोचकों द्वारा एक अन्य तर्क यह भी दिया जाता है कि धर्मनिरपेक्षता वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है।
  • यूनिफॉर्म सिविल कोड धर्मनिरपेक्षता के समक्ष एक अन्य चुनौती पेश कर रही है दरअसल, यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता आज तक बहाल नहीं हो पाई है और एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के तौर पर यह देश की सबसे बड़ी चुनौती है।

आगे का राह
भारत के समक्ष मूल प्रश्न यह है कि वह किस प्रकार की धर्मनिरपेक्षता को वह अपनाना चाहता है?

  • राजीव भार्गव कहते हैं कि भारत को अपने प्राचीन सभ्यतागत मूल्यों से प्रेरणा लेकर एक नैतिक धर्मनिरपेक्षता की ओर बढ़ना चाहिए न तो पश्चिमी अनुकरण, न सांस्कृतिक राष्ट्रवाद।
    धर्मनिरपेक्षता का उद्देश्य धर्म का दमन नहीं, बल्कि सभी धर्मों की स्वतंत्रता और सह-अस्तित्व सुनिश्चित करना है।
  • क्या भारत सऊदी अरब या ईरान की राह पर चलेगा, या अपने अशोककालीन धरोहर को आगे बढ़ाएगा?
    वास्तविक खतरा अतीत के मॉडल की आलोचना में नहीं, बल्कि उनकी जगह बहुसंख्यकवादी थोपे गए विचारों को बैठाने में है, जो संविधान और सभ्यतागत नैतिकता दोनों के विरुद्ध जाते हैं।

निष्कर्ष
भारतीय धर्मनिरपेक्षता कोई पश्चिमी विचार नहीं, बल्कि भारत की गहन सांस्कृतिक विरासत, विशेषकर अशोक के धम्म पर आधारित एक स्वदेशी दृष्टिकोण है। यह धर्म और राज्य के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयास है,न पूर्ण अलगाव, न नियंत्रण। यदि भारत को आगे बढ़ना है, तो उसे इस संवैधानिक नैतिकता और सभ्यतागत सहिष्णुता को फिर से आत्मसात करना होगा।

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“न्याय का विचार व्यक्ति से प्रवाहित होता है।” -जॉन रॉल्स (John Rawls)

कर्पुरी ठाकुर फार्मूला