भारत की आर्थिक यात्रा केवल वैश्विक बाजार और अंतरराष्ट्रीय व्यापार से नहीं, बल्कि एक मज़बूत आंतरिक नीति और संरचना से तय होगी। इस लेख में यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि यदि भारत को आत्मनिर्भर बनना है, तो उसे आर्थिक स्वतंत्रता और राजकोषीय संघवाद को प्राथमिकता देनी होगी।
भारतीय संघवाद
- भारत का संविधान एक संघात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना करता है, जिसे स्पष्ट रूप से विभिन्न अनुच्छेदों के माध्यम से परिभाषित और संरक्षित किया गया है। भारतीय संघवाद का उद्देश्य है कि केंद्र और राज्य सरकारें अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों में स्वतंत्र और समान रूप से कार्य करें, ताकि लोकतंत्र की आत्मा को जन उत्तरदायित्व और सहभागिता सुरक्षित रह सके।
- भारत राज्यों का एक संघ है। प्रत्येक राज्य के नागरिक स्वतंत्र रूप से अपनी सरकार का चुनाव करते हैं। निर्वाचित सरकार की प्राथमिक ज़िम्मेदारी उसके मतदाताओं के प्रति जवाबदेहिता है।
- संघात्मक व्यवस्था का तात्पर्य ऐसी शासन प्रणाली से है जहाँ पर संविधान द्वारा शक्तियों का विभाजन केंद्र और राज्य सरकार के मध्य किया जाता है एवं दोनों अपने अधिकार क्षेत्रों का प्रयोग स्वतंत्रतापूर्वक करते हैं।
- भारतीय संघवाद एक सैद्धांतिक रूप से मजबूत ढाँचा है, परंतु व्यवहारिक स्तर पर शक्ति और संसाधनों का असमान वितरण इसकी प्रभावशीलता को प्रभावित करता है। एक संतुलित संघीय प्रणाली के लिए केवल संवैधानिक प्रावधान ही नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति और राजकोषीय विकेंद्रीकरण भी आवश्यक हैं, ताकि राज्य वास्तव में “सहयोगी नहीं, बराबरी के साझेदार” बन सकें।
संविधान की संघीय विशेषताएँ
- द्वैध शासन प्रणाली – केंद्र और राज्य दोनों के पास स्वतंत्र रूप से कार्य करने की संवैधानिक मान्यता है। अनुच्छेद 245–255 इनकी शक्तियों को स्पष्ट करते हैं।
- लिखित संविधान – संविधान स्वयं एक लिखित और संहिताबद्ध दस्तावेज है, जो शक्ति विभाजन को सुव्यवस्थित करता है। यह संघीयता की स्थायित्व प्रदान करने वाली नींव है।
- शक्तियों का विभाजन – तीन सूचियाँ:
- संघ सूची (Union List) – केवल केंद्र के अधिकार में
- राज्य सूची (State List) – केवल राज्य के अधिकार में
- समवर्ती सूची (Concurrent List) – दोनों के लिए साझा
अनुच्छेद 246 और सातवीं अनुसूची इस विभाजन को परिभाषित करते हैं।
- संविधान की सर्वोच्चता – सभी कानून संविधान के अनुरूप होने चाहिए। अनुच्छेद 13 इसके उल्लंघन पर कानून को अमान्य घोषित करता है।
- कठोर संविधान – संघात्मक व्यवस्था में संशोधन आसान नहीं होता। अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संशोधन प्रक्रिया जटिल और दोनों सदनों की भागीदारी वाली है।
- स्वतंत्र न्यायपालिका – संविधान के संरक्षक के रूप में न्यायपालिका केंद्र और राज्यों के विवादों में निष्पक्ष निर्णय देती है। अनुच्छेद 131, 136, 226, 32 आदि इस भूमिका को परिभाषित करते हैं।
- द्विसदनीयता (Bicameralism) – केंद्र स्तर पर राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है, जिससे संघीय संतुलन कायम रहता है। अनुच्छेद 79–122 संसद की संरचना और कार्यवाही पर केंद्रित हैं।
राजकोषीय संघवाद (Fiscal Federalism)
- संविधान में राजकोषीय संघवाद का आधार अनुच्छेद 268 से 293 तक विस्तृत है, जो केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय संबंधों को स्पष्ट करता है। भारत का संघात्मक ढाँचा इस सिद्धांत पर आधारित है कि राज्य सरकारें स्वशासित हों और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने में सक्षम हों।
- किंतु व्यवहार में स्थिति इसके विपरीत है। यद्यपि राज्य विधानसभाओं को 20 विषयों पर कर लगाने का अधिकार है, फिर भी उनकी शक्तियों पर अनेक प्रतिबंध हैं; जैसे अंतर्राज्यीय व्यापार, आयात-निर्यात और संसद द्वारा नियंत्रित विषयों पर कर न लगा पाना।
- राज्यों को आयकर लगाने या प्रत्यक्ष करों से राजस्व प्राप्त करने का अधिकार नहीं है, जो कि केंद्र के अधीन हैं।
राजकोषीय संघवाद: तमिलनाडु मॉडल
- 1982 में एम.जी. रामचंद्रन द्वारा तमिलनाडु में शुरू किया गया मध्याह्न भोजन कार्यक्रम इस बात का उदाहरण है कि यदि राज्यों को राजस्व एकत्र करने की स्वतंत्रता दी जाए, तो वे सामाजिक योजनाओं को सफलतापूर्वक लागू कर सकते हैं।
- राज्य ने स्वयं अतिरिक्त बिक्री कर लगाया और कार्यक्रम की लागत जुटाई, जिससे साक्षरता दर में भारी वृद्धि हुई। यह उदाहरण बताता है कि विकेन्द्रीकरण राज्यों को स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार निर्णय लेने और कार्यान्वयन की स्वतंत्रता देता है।
वस्तु एवं सेवा कर (GST) के बाद उत्पन्न चुनौतियाँ
राजकोषीय संघवाद का उद्देश्य है कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच संसाधनों का संतुलित वितरण हो ताकि दोनों स्तरों की सरकारें स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकें और विकास योजनाओं को लागू कर सकें। लेकिन GST के लागू होने के बाद इस संतुलन में कई चुनौतियाँ उत्पन्न हुई हैं, जिनका प्रभाव राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता पर पड़ा है।
- GST के बाद राज्यों को लगभग सभी अप्रत्यक्ष कर (जैसे वैट, एंटरटेनमेंट टैक्स, खरीद-बिक्री कर आदि) लगाने की शक्ति समाप्त हो गई।
- इससे पहले राज्यों को इन करों से स्वतंत्र रूप से राजस्व मिलता था, जिससे वे अपनी ज़रूरतों के अनुसार योजनाएँ बना सकते थे। अब राज्यों को GST काउंसिल के निर्णयों और केंद्र की मंशा पर निर्भर रहना पड़ता है।
- GST लागू करते समय केंद्र ने वादा किया था कि यदि राज्यों को GST के कारण राजस्व में घाटा होता है, तो केंद्र 5 वर्षों तक क्षतिपूर्ति देगा। परंतु: कुछ वर्षों बाद केंद्र ने समय पर क्षतिपूर्ति नहीं दी, जिससे राज्यों को राजकोषीय संकट का सामना करना पड़ा।
- इससे राज्यों की विकास परियोजनाओं में देरी हुई और उनके ऋण पर निर्भरता बढ़ी।
GST काउंसिल में केंद्र और राज्यों का प्रतिनिधित्व तो है, परंतु:
- निर्णय प्रक्रिया में केंद्र का प्रभाव अधिक रहता है।
- राज्यों की अलग-अलग आर्थिक परिस्थितियाँ और ज़रूरतें हैं, फिर भी एकरूप नीति लागू होती है, जिससे राज्यों को लचीलापन नहीं मिल पाता।
- GST के तहत संग्रहित कर में से केवल एक हिस्सा राज्यों को मिलता है, जबकि प्रत्यक्ष कर (Income Tax, Corporate Tax) जैसे उच्च राजस्व स्रोत पूरी तरह केंद्र के पास हैं।
- वर्तमान में केंद्र सरकार 52% कर संग्रह अपने पास रखती है, जबकि शेष 48% राज्यों को बाँटा जाता है, जिससे राज्यों पर केंद्र की आर्थिक निर्भरता बढ़ती है।
GST ने एक समान कर प्रणाली स्थापित की है, परंतु:
- यह स्थानीय व्यापार, लघु उद्योगों, और राज्य-विशिष्ट आर्थिक गतिविधियों की जटिलताओं को नजरअंदाज करता है।
- राज्यों की अपनी राजस्व नीति बनाने की क्षमता घट गई है, जिससे वे स्थानीय विकास योजनाएँ स्वतंत्र रूप से लागू नहीं कर पा रहे।
अंत: GST के लागू होने के बाद राज्यों ने अपनी अधिकांश अप्रत्यक्ष कर लगाने की शक्तियाँ खो दी हैं। इससे उन्हें केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित हिस्से पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
के. संथानम् आयोग ने कहा, वित्तीय शक्ति में यह असमानता भारतीय संघवाद के असंतुलनकारी पक्ष को दर्शाती है। केंद्र का प्रभुत्व न केवल संसाधनों के वितरण को प्रभावित करता है, बल्कि राज्य सरकारों की नीति-निर्माण की स्वतंत्रता को भी सीमित करता है।
भारत में निम्नलिखित सुधारों की आवश्यक
- पेट्रोलियम आयात की निर्भरता कम करनी होगी: यदि भविष्य में पेट्रोलियम आयात संभव न हो, तो उर्वरक निर्माण के लिए जैविक विकल्प अपनाने होंगे। अपशिष्ट से खाद बनाना और जल प्रबंधन की दक्षता में सुधार आवश्यक होगा।
- कृषि प्रणाली में परिवर्तन अनिवार्य: सिर्फ खेती की तकनीक ही नहीं, बल्कि किसानों की सोच, फसलें और खेती के तरीके भी बदलने होंगे। मुफ्त बिजली-पानी खत्म होने पर जलवायु-आधारित खेती की ओर बदलाव होगा।
- ग्रामीण अर्थव्यवस्था की नई संरचनाएं उभरेंगी: खेती और संसाधनों के प्रबंधन में बदलाव से गाँवों में नई आर्थिक व्यवस्थाएं बनेंगी।
राजनीतिक और राजकोषीय स्वतंत्रता
राजनीतिक और राजकोषीय स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक और विविधतापूर्ण देश के विकास की बुनियादी शर्तें हैं। भारत जैसे विशाल और सांस्कृतिक रूप से विविध देश में, जहां हर राज्य की अपनी भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक विशेषताएँ हैं, वहां केंद्रीकृत नीति निर्माण अक्सर स्थानीय जरूरतों और प्राथमिकताओं की अनदेखी कर देता है।
- राजनीतिक स्वतंत्रता का अर्थ है कि राज्यों और स्थानीय संस्थाओं को अपनी नीतियाँ और योजनाएँ बनाने का अधिकार मिले, ताकि वे अपने क्षेत्र की ज़रूरतों के अनुसार निर्णय ले सकें। यह केवल शासन का विकेंद्रीकरण नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों को मज़बूत करने की दिशा में एक ठोस कदम है।
- इसी प्रकार, राजकोषीय स्वतंत्रता का आशय है कि राज्यों को अपने आर्थिक संसाधनों पर स्वायत्त नियंत्रण हो; वे कर लगा सकें, राजस्व एकत्र कर सकें और अपने सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए स्वतंत्र रूप से खर्च कर सकें। जब राज्यों को यह निर्णय लेने की शक्ति मिलती है कि वे किस क्षेत्र में कितना निवेश करें- जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि या जल प्रबंधन; तो नीतियाँ ज़मीन से जुड़ी होती हैं और ज़्यादा प्रभावशाली होती हैं। परन्तु जब तक केंद्र सरकार यह तय करती रहेगी कि कौन क्या और कितनी मात्रा में उत्पादन करे, या किसे कितनी सब्सिडी मिले, तब तक समतामूलक और आत्मनिर्भर भारत की कल्पना अधूरी रहेगी।
- राजनीतिक और राजकोषीय स्वतंत्रता का समन्वय ही राजकोषीय संघवाद का मूल है, जो केवल वित्तीय न्याय नहीं लाता, बल्कि हर नागरिक को समान अवसर और सम्मान भी देता है। आत्मनिर्भरता तभी सार्थक होगी जब भारत की नीतियाँ दिल्ली से नहीं, बल्कि गाँवों और ज़िलों की वास्तविक ज़रूरतों से तय होंगी। इस प्रकार, केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति का संतुलन ही भविष्य के समावेशी, सशक्त और टिकाऊ भारत की आधारशिला है।
- जब तक संसाधनों और वित्तीय निर्णयों पर नियंत्रण केवल केंद्र सरकार के पास रहेगा, तब तक विकास की प्रक्रिया एकतरफा और असमान रहेगी। उदाहरण के लिए, यदि केंद्र यह तय करता है कि पूरे देश में एक ही तरह की कृषि नीति लागू होनी चाहिए, तो यह उन राज्यों के लिए अव्यावहारिक हो सकता है जिनकी जलवायु, मिट्टी या संसाधन भिन्न हैं।
राजकोषीय संघवाद यह सुनिश्चित करता है कि:
- राज्यों को कर संग्रह और खर्च की स्वतंत्रता मिले।
- नीतियाँ स्थानीय ज़रूरतों के अनुसार बनाई जाएं।
- संसाधनों का वितरण न्यायपूर्ण और पारदर्शी हो।
केंद्र को केवल नीति का मार्गदर्शन देना चाहिए, न कि आदेशात्मक ढंग से हस्तक्षेप करना चाहिए कि कौन-सा राज्य किस क्षेत्र में कितना निवेश करे या किस उत्पाद का कितना उत्पादन हो। इस प्रकार का नियंत्रणात्मक दृष्टिकोण स्थानीय नवाचार, आत्मनिर्भरता और आर्थिक लचीलापन को बाधित करता है।
सच्चे राजकोषीय संघवाद का समर्थन करने का मतलब यह है कि भारत एक ऐसा देश बने जहाँ नीति निर्माण “नीचे से ऊपर” की प्रक्रिया हो, और हर नागरिक को यह महसूस हो कि उसकी ज़रूरतें और आवाज़ वास्तव में राष्ट्रीय विकास का हिस्सा हैं। इसी में आत्मनिर्भर भारत की असली आत्मा छिपी है।
‘आत्मनिर्भर भारत’ का वास्तविक अर्थ
‘आत्मनिर्भर भारत’ का अर्थ अक्सर गलत समझा जाता है कि यह किसी तरह की विभाजनकारी नीति है या वैश्वीकरण के विरुद्ध एक कदम है। लेकिन वास्तव में, इसका आशय दुनिया से अलग-थलग होना नहीं है, बल्कि भारत को आंतरिक रूप से इतना मजबूत बनाना है कि वह वैश्विक स्तर पर स्वतंत्र रूप से प्रतिस्पर्धा कर सके, बिना बाहरी सहायता या निर्भरता के।
- आत्मनिर्भरता का तात्पर्य स्वदेशीकरण के अंधे प्रचार से भी नहीं है, बल्कि एक ऐसी स्थायी और लचीली अर्थव्यवस्था का निर्माण करना है जो वैश्विक झटकों, जैसे व्यापार युद्ध, आपूर्ति श्रृंखला की रुकावट या विदेशी प्रतिबंधों के बावजूद स्थिर रह सके। इसका मकसद भारत को ऐसी स्थिति में लाना है जहां वह न केवल अपने नागरिकों की जरूरतें स्वयं पूरी कर सके, बल्कि दुनिया के साथ बराबरी से व्यापार और नवाचार में भागीदारी भी कर सके।
इसका दूसरा पहलू यह है कि आत्मनिर्भर भारत की भावना केवल उत्पादन और व्यापार तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें शिक्षा, विज्ञान, तकनीक, कृषि और शासन प्रणाली में भी आत्मनिर्भरता शामिल है। जैसे:
- तकनीकी अनुसंधान में आत्मनिर्भरता ताकि हमें विदेशों से तकनीक न लेनी पड़े।
- कृषि में आत्मनिर्भरता, जिसमें किसान विदेशी रासायनिक उर्वरकों या बीजों पर निर्भर न रहें।
- नीति निर्धारण में आत्मनिर्भरता, जिसमें भारत अपनी ज़रूरतों के अनुसार निर्णय ले, न कि वैश्विक दबावों के अनुसार।
निष्कर्ष
आज के समय में वैश्विक राजनीति, व्यापार युद्धों, और भू-राजनीतिक तनावों ने अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को अस्थिर बना दिया है। इन चुनौतियों के बीच भारत के लिए सबसे आवश्यक यह है कि वह बाहरी उथल-पुथल से प्रभावित हुए बिना, अपने आंतरिक सुधारों और दीर्घकालिक विकास लक्ष्यों पर केंद्रित रहे। भारत को चाहिए कि वह वैश्विक खींचतान; जैसे चीन-अमेरिका व्यापार युद्ध, तेल आपूर्ति संकट, या भू-राजनीतिक गठजोड़ आदि से विचलित होकर अपनी नीतियों में बार-बार बदलाव करने की बजाय, एक स्थिर और स्पष्ट विकास रणनीति अपनाए। भारत को नीचे से ऊपर की ओर, स्थानीय प्राथमिकताओं के आधार पर, और राज्य-केंद्र संतुलन के साथ आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ना होगा।