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भारत के महत्वपूर्ण संवैधानिक और ऐतिहासिक सुप्रीम कोर्ट के निर्णय (2015- 2020)

श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015)

यह मामला इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा था। भारत की दो लड़कियों को सोशल मीडिया पर एक टिप्पणी पोस्ट करने के कारण पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। गिरफ्तारी आईटी एक्ट, 2000 की धारा 66A के तहत हुई थी। इस घटना के बाद यह सवाल उठा कि क्या इस धारा का इस्तेमाल लोगों की बोलने की स्वतंत्रताको दबाने के लिए किया जा रहा है।

धारा 66A में समस्या क्या थी?

इसमें “आपत्तिजनक”, “परेशान करने वाला”, “कष्ट पहुँचाने वाला” जैसे बहुत अस्पष्ट शब्द थे।
ऐसे शब्दों का मतलब साफ नहीं था, इसलिए पुलिस किसी भी टिप्पणी को आपत्तिजनक मानकर किसी को भी गिरफ्तार कर सकती थी।
इससे लोगों के मन में डर बैठ जाता कि कहीं उनकी ऑनलाइन पोस्ट पर कार्रवाई न हो जाए। यह सीधे-सीधे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19(1)(क)) को सीमित करता था।

सुप्रीम कोर्ट ने क्या निर्णय दिया?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 66A

पूरी तरह असंवैधानिक है, इसलिए इसे रद्द किया जाता है।
यह नागरिकों की फ्री स्पीच पर अनावश्यक रोक लगाती है।
यह अनुच्छेद 19(2) में दिए गए उचित प्रतिबंधों में भी नहीं आती।
इंटरनेट पर किसी बात का जल्दी फैलना स्वतंत्रता छीनने का कारण नहीं बन सकता।
लोकतंत्र में नागरिकों को बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी जरूरी है।

इस फैसले का महत्व

यह निर्णय भारत में ऑनलाइन फ्री स्पीच के लिए एक ऐतिहासिक कदम बन गया।
इससे इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मजबूत हुई।
सरकार और पुलिस मनमाने तरीके से सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर लोगों को गिरफ्तार नहीं कर सकते।

एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2015)

चौथा न्यायाधीश केस / NJAC केस
मुख्य मुद्दा: सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे हो—कॉलेजियम प्रणाली या एनजेएसी प्रणाली?
2014 में संसद ने 99वां संविधान संशोधन पास किया और इसके साथ राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) बनाया। इस आयोग का उद्देश्य था कि जजों की नियुक्ति में सरकार भी शामिल हो सके, ताकि पारदर्शिता बढ़े। लेकिन कई वकीलों और संगठनों ने कहा कि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर खतरा होगा। इसलिए यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आया।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला (2015)

1. 99वां संशोधन असंवैधानिक है, क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करता है।
2. न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) का हिस्सा है इसको बदला नहीं जा सकता। इसलिएNJAC अधिनियम (2014) भी पूरी तरह अमान्य है।
3. कोर्ट ने साफ किया कि जजों की नियुक्ति की पुरानी प्रणालीकॉलेजियम सिस्टम ही जारी रहेगी। साथ ही कोर्ट ने कहा कि कॉलेजियम सिस्टम को और बेहतर बनाने के लिए सुझावों पर विचार किया जाए।

निर्णय का प्रभाव

99वां संशोधन और NJAC कानून दोनों खत्म हो गए।
जजों की नियुक्ति का तरीका फिर से कॉलेजियम प्रणाली पर ही आधारित रहा।
सरकार को जजों की नियुक्ति में सीधी भूमिका नहीं दी गई।
अदालत की स्वतंत्रता को सर्वोच्च महत्व दिया गया।

शायरा बानो बनाम भारत संघ (2017)

तीन तलाक : केस मुख्य मुद्दा: मुस्लिम समुदाय में तलाक-ए-बिद्दत (एक ही बार में तीन तलाक) की वैधता संबंधित
अनुच्छेद: अनुच्छेद 14 — समानता का अधिकार

मामला क्या था?

मुस्लिम समुदाय में तलाक-ए-बिद्दत या तीन तलाक का मतलब है—एक मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को एक ही बार में “तलाक, तलाक, तलाक” कहकर तुरंत तलाक दे सकता है। शायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की कि यह प्रथा महिलाओं के साथअन्यायपूर्ण, मनमानी और असमान है।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया। कोर्ट नेकहा तलाकबिद्दत मनमाना और असंगत है। इसमें पति को यहअधिकार है कि वह बिना किसी कारण, बिना सुलह के प्रयास औरबिना किसी प्रक्रिया के पत्नी को तुरंत तलाक दे।
यह महिलाओं के अधिकारों का हनन है। इसलिए यह प्रथा अनुच्छेद14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन करती है। मुस्लिम पर्सनललॉ (शरीयत) एक्ट, 1937 की सेक्शन 2 को भी इस सीमा तकअमान्य घोषित किया गया, जहाँ यह तीन तलाक को मान्यता देतीथी।
कोर्ट ने कहा कि तीन तलाक कुरान की मूल शिक्षाओं के खिलाफ है।धर्मग्रंथ में जो गलत माना गया है, वह कानून में अच्छा नहीं होसकता। कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि छह महीने केभीतर तीन तलाक पर कानून बनाए। जब तक कानून बने, तब तकतीन तलाक पर रोक जारी रहेगी।

निर्णय का प्रभाव

इस फैसले के बाद सरकार ने कानून बनाया मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 जिसने तीन तलाक कोगैरकानूनी, शून्य और दंडनीय अपराध बना दिया।

के.एस. पुट्टस्वामी केस (2017)

केस का नाम : के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017)
लोकप्रिय नाम: निजता का अधिकार केस
संबंधित विषय/मुद्दा : निजता के अधिकार का प्रश्न
संबंधित अनुच्छेद/अनुसूची : अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता

मुख्य बात: निजता का मौलिक अधिकार

उच्चतम न्यायालय का निर्णय: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निजता (Privacy) एक मौलिक अधिकार है। यह अधिकार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता” का हिस्सा है।

कोर्ट ने बताया कि

गोपनीयता व्यक्ति को अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण पहलुओं को नियंत्रित करने की आज़ादी देती है।
निजता व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वायत्तता (self-choice) की रक्षा करती है।

लेकिन कोर्ट ने यह भी कहा कि

निजता का अधिकार पूरी तरह असीमित नहीं है। इस पर कुछ उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं, जैसे कि संविधान के भाग III (मौलिक स्वतंत्रता) पर लगते हैं। इसका मतलब यह है कि जो भी कानून निजता को सीमित करेगा, उसे कुछ कसौटियों पर खरा उतरना होगा।

अनुच्छेद 21 के अनुसार, निजता में हस्तक्षेप तभी सही माना जाएगा जब

1. वैधताउसके लिए कोई स्पष्ट और वैध कानून हो।
2. आवश्यकताकानून का उद्देश्य सरकार का कोई वैध और जरूरी लक्ष्य हो।
3. अनुपातिकताउद्देश्य पाने के लिए उठाया गया कदम संतुलित हो, ज्यादा कठोर न हो। कानून को यह भी दिखाना होगा कि उसकी प्रक्रिया उचित, न्यायसंगत और सही है।

निर्णय का प्रभाव

इस फैसले ने दो पुराने फैसलों को गलत ठहराया—

एम.पी. शर्मा केस (1954)
खड़क सिंह केस (1962)

इन दोनों में कहा गया था कि निजता मौलिक अधिकार नहीं है।पुट्टस्वामी केस ने यह स्थिति बदल दी। अब भारत में निजता एक मौलिक अधिकार मानी जाती है।

सबरीमाला केस (महिलाओं का मंदिर प्रवेश मामला)

सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 वर्ष की उम्र की महिलाओं के प्रवेश पर कई सालों से रोक थी। मामला सुप्रीम कोर्ट में Indian Young Lawyers Association बनाम भारत संघ (2018) के रूप में पहुँचा।

मुख्य मुद्दा: क्या महिलाओं के इस आयु वर्ग को मंदिर में प्रवेश से रोकना संविधान के अधिकारों का उल्लंघन है?

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय (2018)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि : सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की महिलाएँ प्रवेश कर सकती हैं। 10–50 वर्ष की महिलाओं पर रोकअसंवैधानिक है।

यह रोक इन अधिकारों का उल्लंघन करती है

अनुच्छेद 14 — समानता का अधिकार
अनुच्छेद 21 — व्यक्तिगत स्वतंत्रता
अनुच्छेद 25 — धर्म की स्वतंत्रता

इसके साथ ही Court ने केरल हिंदू सार्वजनिक पूजा स्थल (प्रवेश का अधिकार) नियम, 1965 के नियम 3(ख) को निरस्त कर दिया, जिसमें महिलाओं के प्रवेश पर रोक थी।

निर्णय का प्रभाव

फैसले के बाद केरल में भगवान अयप्पा के कई भक्तों ने विरोध, हड़ताल और प्रदर्शन किए। कुछ महिलाओं ने मंदिर में प्रवेश करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें भक्तों, पुजारियों और अधिकारियों का विरोध झेलना पड़ा। कुछ महिलाएँ आखिरकार सफल भी हुईं और मंदिर में प्रवेश कर सकीं।

नवतेज सिंह जौहर केस (2018)

केस का नाम: नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ
निर्णय का वर्ष: 2018
लोकप्रिय नाम: समलैंगिकता का गैर-अपराधीकरण
संबंधित अनुच्छेद: 14, 15, 19 और 21

उच्चतम न्यायालय का निर्णय

नवतेज सिंह जौहर केस में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उस हिस्से को असंवैधानिक घोषित कर दिया, जोसहमति से वयस्कों के बीच होने वाले समलैंगिक संबंधों को अपराध बनाता था। कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि वयस्क लोग यदि अपनी सहमति से किसी भी व्यक्ति के साथ निजी रूप से यौन संबंध बनाते हैं, तो यह उनका व्यक्तिगत अधिकार है और इसे अपराध नहीं माना जा सकता। अदालत ने यह माना कि धारा 377 का यह हिस्सा कई मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है
अनुच्छेद 14: समानता का अधिकार
अनुच्छेद 15: भेदभाव से सुरक्षा
अनुच्छेद 19(1)(a): अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
अनुच्छेद 21: गरिमा और गोपनीयता के साथ जीवन जीने का अधिकार
कोर्ट ने कहा कि एलजीबीटी समुदाय—जैसे लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर—भी अन्य नागरिकों की तरह समान अधिकारों के हकदार हैं और उनकी यौन अभिवृत्ति (sexual orientation) का सम्मान किया जाना चाहिए।

निर्णय का प्रभाव

इस फैसले ने 2013 के कौशल केस के निर्णय को रद्द कर दिया, जिसमें धारा 377 को पूरी तरह वैध माना गया था। फैसले से पहले एलजीबीटी समुदाय के लोग कानून और समाज के डर के कारण खुलकर जी नहीं पाते थे और अक्सर उन्हें उत्पीड़न का सामना करना पड़ता था। अब स्थिति बदल गई। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद
समलैंगिकता अब अपराध नहीं है वयस्क लोग सहमति से संबंध बना सकते हैं, और यह पूरी तरह कानूनी है एलजीबीटी व्यक्तियों को सम्मान और समान अधिकार मिले हैं हालाँकि, कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि धारा 377 के कुछ हिस्से अभी भी लागू रहेंगे। यह धारा अब भी अपराध मानी जाएगी

रामबाबू सिंह ठाकुर बनाम सुनील अरोड़ा (2020)

केस का नाम: रामबाबू सिंह ठाकुर बनाम सुनील अरोड़ा
निर्णय का वर्ष: 2020
संबंधित विषय: राजनीति का अपराधीकरण (Criminalization of Politics)
संबंधित अनुसूची/विषय: चुनाव और आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार

न्यायालय का निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने इस केस में राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को रोकने के लिए राजनीतिक दलों को कई महत्वपूर्ण निर्देश दिए। कोर्ट ने कहा कि यदि कोई राजनीतिक दल आपराधिक मामलों वाले (criminal background) व्यक्तियों को उम्मीदवार बनाता है, तो उसे जनता को पूरी और स्पष्ट जानकारी देनी होगी।

कोर्ट ने यह निर्देश दिए

1. राजनीतिक दल अपनी वेबसाइट पर यह जानकारी अपलोड करें कि उन्होंने आपराधिक मामलों वाले व्यक्ति को क्यों चुना।
2. जानकारी में ये बातें शामिल हों:
उम्मीदवार पर कौन-कौन से आपराधिक मामले हैं
अपराध की प्रकृति
क्या आरोप तय हो चुके हैं
मामलों की संख्या
3. पार्टी को यह भी बताना होगा कि उन्होंने साफ-सुथरे (clean) व्यक्तियों की जगह आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को क्यों चुना।
नोट: चयन का कारण सिर्फ “चुनाव जीतने की क्षमता” नहीं हो सकता।
कारण उम्मीदवार की योग्यता, उपलब्धियाँ और लोगों के हित से जुड़े कार्य होने चाहिए।
4. यह सारी जानकारी
एक स्थानीय भाषा के अखबार में
एक राष्ट्रीय अखबार में
राजनीतिक दल के आधिकारिक फेसबुक, ट्विटर आदि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रकाशित करना अनिवार्य है।

इस निर्णय के बाद

चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को निर्देश भेजे कि वे इन नियमों का पालन करें।
चुनाव आयोग ने एक नया फॉर्म C-7 जारी किया, जिसमें पार्टियों को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की पूरी जानकारी भरनी होगी।
इसका उद्देश्य राजनीति को साफ-सुथरा बनाना और जनता को पारदर्शिता देना है, ताकि लोग समझ सकें कि किस उम्मीदवार का आपराधिक रिकॉर्ड क्या है|

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