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भारत के लिए अस्थिर पड़ोस के निहितार्थ

भारत इस समय खुद को अस्थिरता के एक ऐसे घेरे में घिरा हुआ पा रहा है, जिसका वर्णन करना मुश्किल है। अफ़गानिस्तान के रेगिस्तान से लेकर मालदीव के तटों तक, हमारे पड़ोस में हिंसा, अशांति और बदलती वफ़ादारियाँ देखने को मिल रही हैं। यह उथल-पुथल कोई छोटी-मोटी बात नहीं है, बल्कि दक्षिण एशिया की राजनीतिक अस्थिरता, जातीय दरारों और आर्थिक अनिश्चितताओं का गहरा परिणाम है।

अफ़गानिस्तान में तालिबान की वापसी और कट्टरपंथी ताकतों का फिर से मजबूत होना, अनिश्चितता का एक नया अध्याय लेकर आया है। पाकिस्तान अंदरूनी कलह, सेना के दबदबे और कमज़ोर अर्थव्यवस्था से जूझ रहा है, और साथ ही, भारत की सुरक्षा के लिए ख़तरा बन रहे नेटवर्कों को भी बढ़ावा दे रहा है। बांग्लादेश में अर्थव्यवस्था तो बढ़ रही है, लेकिन वहाँ धार्मिक कट्टरता और राजनीतिक ध्रुवीकरण भी बढ़ता जा रहा है, जिससे लोकतंत्र पर सवाल उठ रहे हैं। नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता बनी हुई है और वहाँ की राजनीति पर चीन का बड़ा प्रभाव दिख रहा है। श्रीलंका मुश्किल से अपने आर्थिक संकट से उबर पाया है, जिसने उसके पूरे देश को हिला दिया था, जबकि मालदीव कभी “इंडिया फर्स्ट” की बात करता है तो कभी “इंडिया आउट” का अभियान चलाता है।

पड़ोस में यह उथल-पुथल केवल एक दूर की समस्या नहीं है, यह भारत के लिए पहली और सबसे बड़ी चुनौती है। सीमाओं पर अस्थिरता से सुरक्षा की समस्याएँ, शरणार्थियों का आना, कट्टरता का बढ़ना और बड़ी शक्तियों के बीच नए टकराव पैदा होते हैं। भारत एक ज़िम्मेदार वैश्विक शक्ति के रूप में तभी आगे बढ़ सकता है, जब वह अपने चारों ओर मौजूद इस अशांत “आग के घेरे” को संभाल सके।

नेपाल में सितंबर 2025 का जेन जी आंदोलन हाल के वर्षों का सबसे बड़ा विद्रोह बना। भ्रष्टाचार, सरकारी नौकरियों में भाई-भतीजावाद, सोशल मीडिया पर प्रतिबंध और राजनीतिक गैरजवाबदेही के विरुद्ध लाखों युवाओं का सड़क पर उतरना सामान्य आंदोलन से सत्ता परिवर्तन में तब्दील हो गया। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और कई वरिष्ठ नेताओं को मजबूरी में इस्तीफा देना पड़ा; राजधानी काठमांडू समेत तमाम जगह सरकारी इमारतें जलाई गईं, कई पूर्व प्रधानमंत्री के घर जलाए गए, जिसमें एक पूर्व पीएम की पत्नी की मौत हो गई. इस आंदोलन के प्रभाव भारत के लिए खासकर इसलिए चिन्ताजनक हैं क्योंकि नेपाल का भूराजनीतिक महत्त्व, सिलिगुड़ी कॉरिडोर के दृष्टिकोण से, दोनों देशों के मध्य संवेदनशीलता को बढ़ाता है। चीन-बेल्ट एंड रोड पहल के माध्यम से नेपाल में गहरी पैठ बनाता जा रहा है; ऐसे में वहां की अस्थिरता भारतीय सुरक्षा पर सीधे खतरा बन सकती है और स्थाई सहयोग की संभावनाएं मुश्किल होती गई हैं।

बांग्लादेश में हालिया सत्ता परिवर्तन और छात्र-आंदोलन ने दक्षिण एशिया को नए ‘सामरिक असंतुलन’ की तरफ मोड़ दिया है। शेख हसीना का नाटकीय पतन और डॉ. मुहम्मद यूनुस की अगुवाई में अंतरिम सरकार भारत-बांग्लादेश संबंधों का नया अध्याय खोलते हैं, जिसमें भारत का विश्वास स्तर घट गया है। सीमा पर अचानक 1600 से अधिक लोगों को अवैध रूप से भेजना, तनावपूर्ण प्रतिक्रियाएं और ट्रेड प्रतिबंध जैसे घटनाक्रम भारत के लिए सख्त जवाबी रणनीति को प्रेरित करते हैं। बांग्लादेश की चीन के प्रति बढ़ता झुकाव और सागर तक पहुँच के लिए बांग्लादेश की रणनीतिक भूमिका भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र की सुरक्षा, सीमा के पार घुसपैठ, अतिवाद तथा अवैध व्यापार जैसी समस्याओं को और जटिल बनाती है। अब भारत को संतुलित विदेश नीति अपनाने की जरूरत है, जिसमें कठोर संदेश और दीर्घकालिक विनम्रता दोनों का स्थान हो, वरना अस्थिरता की लहरें भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों के भीतर गहरे पैठ सकती हैं।

श्रीलंका में जेवीपी-एनपीपी गठबंधन की सरकार ने भारत के साथ सामरिक गठजोड़ को गहरा किया है; रक्षा समझौतों ने आर्थिक मदद से रणनीतिक साझेदारी को नया रूप दिया है। श्रीलंका के पूर्व में बढ़ती भारतीय उपस्थिति, ऊर्जा व आधारभूत संरचना सहयोग इस द्वीप देश को भारत के साथ जोड़ने के प्रयास हैं. हालांकि श्रीलंका की अंदरूनी राजनीति में बदलाव और विदेशी प्रभावों पर चिंता लगातार बनी रहती है, जहाँ चीन की पहुँच को रोकने के लिए भारत को सक्रिय रहना पड़ता है। मुमकिन है कि गहरी भागीदारी के बावजूद स्थानीय असंतोष, भारत-विरोधी भावनाएँ भी पनपती रहें; भारत को सहयोग व सतर्कता दोनों बनाए रखना होगा ताकि उसके दीर्घकालिक हित सुरक्षित रह सकें।

मालदीव में राजनीतिक अस्थिरता और सत्ता का बार-बार हिलना भारतीय हितों के लिए चुनौती बना हुआ है। राष्ट्रपति मुइज़्जू की सरकार ने अपने शुरुआती भारत-विरोधी कदमों को चुनावी दबाव और आर्थिक निर्भरता के कारण वापस लिया, जिससे दोनों देशों के रिश्तों में अस्थिरता और रणनीतिक संतुलन की ज़रूरत बढ़ी है. भारत की मदद और सुरक्षा सहयोग जारी रखते हुए मालदीव ने चीन को संतुलित करने की कोशिश की है। इंडियन ओशन रीजन (IOR) की सामरिक प्रतियोगिता, क्षेत्रीय शक्ति संतुलन और आर्थिक निर्भरता के चलते मालदीव में हलचल भारत की सुरक्षा, पर्यटन, वाणिज्यिक हित और विदेश नीति को सीधे प्रभावित करती है।

म्यांमार में विद्रोह की बुनियाद जातीय संघर्ष और सैन्य दमन में छिपी हुई है। अराकान आर्मी जैसे गुटों ने भारतीय सीमा पर असुरक्षा की भावना बढ़ा दी है. म्यांमार के उत्तर-पूर्वी राज्यों से हथियारों का अवैध कारोबार, घुसपैठ और मादक पदार्थों की तस्करी के अलावा शरणार्थियों की समस्या सामने आई है। भारत को अब अपने सीमा नियम और सुरक्षा इंतजाम लगातार कड़े करने पड़े हैं ताकि उसकी उत्तर-पूर्वी सीमा और सामाजिक-राजनैतिक समरसता बनी रहे। म्यांमार के हालात चीन के लिए अवसर पैदा करते हैं—जिससे भारत के चारों तरफ ‘पड़ोस’ की परिधि में चीन अपना प्रभाव बढ़ाता जा रहा है।

इन देशों की अस्थिरता भारत के लिए विशुद्ध ‘समर्पित रणनीति’ की परीक्षा बन गई है। दक्षिण एशिया में विदेशी ताकतों—खासकर अमेरिका और चीन—की दखलअंदाजी भी बढ़ गई है।हाल ही में नेपाल और बांग्लादेश में हुए सत्ता परिवर्तन में अमेरिकी एजेंसी की भूमिका को लेकर कयास लगाए जा रहे हैं वहीं चीन की बीआरआई जैसी पहलों, बुनियादी ढांचे, कूटनीतिक व सैन्य समझौतों के माध्यम से बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव एवं म्यांमार में अपने पैर जमाकर ‘भारत-घेराव’ की नीति पर काम कर रहा है. उसके लिए भारत की ताकत को कमजोर कर दक्षिण एशिया को अपनी रणनीतिक छाया में लेना प्राथमिक ध्येय बन गया है। भारत की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ और इंडो-पैसिफिक विजन की जड़े इस पड़ोस की स्थिरता में ही सुरक्षित हैं, लिहाजा अस्थायी नीति या प्रतिक्रियावादी आचरण जोखिम भरा साबित हो सकता है।

भारत की विदेश नीति का पुनर्निर्धारण अब केवल सीमा सुरक्षा या व्यापारिक सहजता तक सीमित नहीं रह गया है। अब भारत को बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाना होगा—जिसमें न केवल सैन्य आधुनिकीकरण, आतंकवाद-निरोधक रणनीति, सीमा प्रबंधन, डिजिटल व भौतिक संपर्क (Connectivity), बल्कि सॉफ्ट पावर, सांस्कृतिक घुसपैठ, आपदा प्रबंधन, डिजिटल सुरक्षा आदि सभी बिंदुओं पर निरंतर काम करना होगा. ‘नेबरहुड फर्स्ट’ पहल को नए सिरे से परिभाषित करना होगा, जिसमें पड़ोसी देशों की जरूरतों व संवेदनशीलताओं को समझते हुए सहयोग, मानवीय मदद और लोकतांत्रिक समर्थन जारी रखना होगा।

राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए, केवल पारंपरिक सुरक्षा ढाँचे (जैसे नियंत्रण रेखा या वास्तविक नियंत्रण रेखा पर ध्यान देना) ही काफी नहीं है। इसमें साइबर सुरक्षा, सप्लाई चेन की सुरक्षा और महत्वपूर्ण तकनीकों की सुरक्षा भी शामिल होनी चाहिए। भविष्य के युद्धों में टैंक और मिसाइलों की तरह ही गलत सूचना के युद्ध और डेटा का शस्त्रीकरण भी अहम भूमिका निभाएगा। भारत को अपनी खुफिया प्रणाली में सुधार, रक्षा ढाँचे को और मज़बूत करने और हिंद महासागर पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को भारत की इंडो-पैसिफिक रणनीति का केंद्र बनाया जाना चाहिए। हमें यह भी समझना होगा कि आंतरिक एकता (जैसे सामाजिक सौहार्द, आर्थिक असमानताओं और लोकतंत्र की जीवंतता को बनाए रखना) ही बाहरी सुरक्षा की नींव है।

अस्थिर पड़ोस के भारतीय हितों के लिए कुछ मुख्य निहितार्थ निम्न प्रकार हैं—सीमा पर घुसपैठ बढ़ सकती है, आतंकवादी गुटों को शह मिल सकती है, अवैध कारोबार की समस्या, राजनीतिक अस्थिरता से व्यापार, निवेश, विकास और सांस्कृतिक आदान-प्रदान में रुकावटें आ सकती हैं; भारत की सामरिक गहराई और रणनीतिक मजबूती खतरे में पड़ सकती है. भारत की नियंत्रित कूटनीति, संयम, बहुआयामी पहल, आक्रामक जवाबदेही और साझेदारियों को विस्तार देने की रणनीति ही इस अस्थिरता की जटिलताओं से निपटने का सार्थक मार्ग है।

आज भारत को एक मजबूत, सक्रिय, उत्तरदायी और दूरदर्शी विदेश नीति के तहत अपने पड़ोसी देशों की अस्थिरता में व्याप्त खतरों, अवसरों और चुनौतियों का गहन मूल्यांकन करना होगा—ताकि उसकी सेहतमंद आर्थिक वृद्धि, राष्ट्रीय सुरक्षा, सभ्यतागत-लोकतांत्रिक मूल्यों और वैश्विक नेतृत्व की संभावनाएँ बची रहें। भारत के लिए पड़ोस की अस्थिरता केवल भूराजनीतिक दुविधा या सुरक्षा का मुद्दा नहीं, बल्कि उसकी आधुनिक राष्ट्र-निर्माण परियोजना की अंतर्निहित परीक्षा बन चुकी है।

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