प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आज (30 अगस्त 2025) से शुरू हुई चीन यात्रा, जो तियानजिन में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के शिखर सम्मेलन में शामिल होने के लिए है, भारतीय विदेश नीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ की संज्ञा रखती है। यह उनकी सात वर्षों के बाद चीन की पहली यात्रा है, जो दोनों देशों के रिश्तों में आए बदलावों और वर्तमान वैश्विक भू-राजनीतिक परिवर्तनों का प्रतिबिंब है। मोदी का यह कदम न केवल द्विपक्षीय संबंधों को पुनर्जीवित करने का प्रयास है बल्कि इस क्षेत्र की स्थिरता और वैश्विक बहुध्रुवीय व्यवस्था को मजबूत करने के इरादे को दर्शाता है। इस यात्रा का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि यह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारत पर लगाए गए 50% टैरिफ और रुस से तेल खरीद पर 25% ‘पेनल्टी’ के बाद हो रही है, जिससे भारत-बेजिंग और भारत-मॉस्को के रिश्ते और भी करीब हुए हैं।
मोदी और शी जिनपिंग की पहली बार 7 वर्षों बाद आमने-सामने की वार्ता में मुख्य विषयों में सीमांकन विवाद का समाधान, वीज़ा प्रक्रिया को सुगम बनाने और सीधे उड़ान सेवा को पुनः शुरू करने जैसे कदम शामिल हैं। यह संकेत देता है कि दोनों देश वर्ष 2020 के गलवान घाटी संघर्ष और उससे उपजी सैन्य तनाव वाली स्थिति से बाहर निकलने के इच्छुक हैं। मोदी ने जापान में दिए गए एक साक्षात्कार में भारत-चीन संबंधों को क्षेत्रीय शांति और समृद्धि के लिए आवश्यक बताया और इसे एक स्थिर, पूर्वानुमेय तथा सौहार्दपूर्ण द्विपक्षीय सम्बन्ध करार दिया। यह यात्रा एक बहुध्रुवीय एशिया और दुनिया के लिए दोनों देशों के सहयोग की अहमियत पर जोर देने वाली भी है, जो वैश्विक राजनीति में अमेरिका और चीन के बीच गहराते हुए तनावों के बीच मध्यस्थ के रूप में भारत की भूमिका को मजबूत करती है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था की बदलती परिस्थितियों के बीच, मोदी ने यह भी बताया कि भारत-चीन सहयोग न केवल क्षेत्रीय स्तर पर शांति लाने में सहायक होगा, बल्कि यह विश्व सामर्थ्य के संतुलन के लिए भी जरूरी है। इस संदर्भ में, अमेरिका द्वारा लगाए गए टैरिफ और उसके भारत-अमेरिका संबंधों पर प्रभाव के बीच भारत की रूस और चीन के साथ अधिक व्यापक सहयोग की रणनीति समझी जा सकती है। विश्लेषकों का यह भी कहना है कि भारत किसी एक पक्ष के साथ पूर्ण रूप से गठबंधन करने के बजाय अपनी राष्ट्रीय हितों को केंद्रीय रखते हुए एक बहुपक्षीय और संतुलित विदेश नीति अपनाने का प्रयास कर रहा है।
इसके साथ ही, मोदी ने जापान के साथ ‘फ्री और ओपन इंडो-पैसिफिक’ क्षेत्र की अवधारणा पर भारत की प्रतिबद्धता को भी दोहराया, जो क्षेत्र में स्वतंत्रता और संप्रभुता की रक्षा के लिए एक साझा दृष्टिकोण है। यह दर्शाता है कि भारत एक तरफ चीन के साथ आर्थिक और क्षेत्रीय सहयोग बढ़ा रहा है, तो दूसरी तरफ अमेरिका व उसके साझेदारों जैसे जापान, ऑस्ट्रेलिया के साथ सुरक्षा और सामरिक गठजोड़ों को भी सुदृढ़ कर रहा है। इस तरह, भारत-चीन संबंधों की निकटता कोई निरपेक्ष वैचारिक या रणनीतिक बदलाव नहीं बल्कि एक सतर्क, विवेकपूर्ण और अवसरवादी समानांतर नीति का अंश है।
भारत-चीन संबंधों के समीकरण में इस बदलाव की आलोचनात्मक समीक्षा करते हुए कहा जा सकता है कि बीते वर्षों में सीमा विवाद, विशेषकर 2020 में गलवान में हुई हिंसक झड़पों के बाद, दोनों देशों के बीच विश्वास की कमी गहरी हुई है। ऐसे में अचानक निकटता बढ़ाना कुछ विषयों में जोखिम भी रखता है। चीन के बढ़ते आर्थिक और सैन्य प्रभाव के बीच भारत की सुरक्षा चिंताएं और अपनी संप्रभुता की रक्षा का आग्रह जोर पकड़ता है। वहीं, भारत को यह भी समझना होगा कि आर्थिक सहयोग और रणनीतिक साझेदारी के पहलुओं में संतुलन बनाए रखना आवश्यक है क्योंकि चीन के वैश्विक महत्वाकांक्षी एजेंडे और दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय प्रभुत्व के दावों से टकराव की संभावना बनी हुई है। इस यात्रा से पहले दोनों देशों के बीच सीमाओं पर सुरक्षा व्यवस्था में सुधार के प्रयास हुए हैं, लेकिन सीमा निर्धारित करने और वास्तविक राजनीतिक भरोसे के बीच अभी लंबा रास्ता तय करना बाकी है।
अमेरिका के संदर्भ में देखें तो भारत-चीन निकटता, अमेरिकी हितों के लिए एक जटिल चुनौती पेश करती है। ट्रंप प्रशासन की टैरिफ नीति ने वास्तव में भारत के अमेरिका के साथ आर्थिक समन्वय को प्रभावित किया है और भारत को अपनी पारंपरिक सुरक्षा और आर्थिक साझेदारों की सीमा के बाहर भी रणनीतिक विकल्पों की खोज करनी पड़ी है। हालांकि भारत, विश्व मंच पर भारत-अमेरिका रणनीतिक भागीदारी को जारी रखने में विश्वास रखता है, लेकिन एक निर्भरता मुक्त नीति अपनाकर चीन और रूस जैसे देशों के साथ संतुलित संबंध कायम करने की भी रणनीति पर चलता है। यह बहुपक्षीय राष्ट्रीय हितों के अनुरूप कदम है। इससे अमेरिका-भारत-चीन त्रिकोणीय समीकरण में नए गतिशीलता उत्पन्न हो रही है जो क्षेत्रीय तथा वैश्विक शक्ति संतुलन के लिए महत्वपूर्ण है।
प्रधानमंत्री मोदी के इस दौरे के गहरे वैश्विक निहितार्थ हैं। यह यात्रा एक ऐसे समय में आ रही है जब वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था तेजी से बदल रही है, और बड़े स्तर पर शक्ति संकेंद्रण की प्रक्रिया बहुध्रुवीय बनने की ओर बढ़ रही है। भारत-चीन सहयोग से एशिया में स्थिरता आने की संभावना है, जो वैश्विक आर्थिक विकास के लिए भी लाभकारी होगी। इसके अलावा BRICS जैसे मंचों पर भी भारत और चीन का मिलकर काम करना विकासशील देशों के हितों की रक्षा करने और विश्व आर्थिक सेटअप में बदलाव लाने की दिशा में एक सकारात्मक कदम है। प्रधानमंत्री मोदी ने इस संदर्भ में वैश्विक दक्षिण के मुद्दों पर भी ज़ोर दिया है, जैसे जलवायु परिवर्तन, खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा, जो उन्हें दोनों देशों में साझा प्राथमिकता बनाता है।
अंततः, यह यात्रा एक बार फिर भारत की व्यापक और जटिल विदेश नीति का परिचय देने वाली है, जो राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक विकास, क्षेत्रीय स्थिरता और वैश्विक शक्ति संतुलन के बीच एक संवेदनशील संतुलन स्थापित करने का प्रयास करती है। भारत-चीन निकटता के लाभ स्पष्ट हैं—क्षेत्रीय शांति, आर्थिक वृद्धि, और वैश्विक बहुध्रुवीयता को मजबूती, लेकिन इसमें जोखिम और चुनौतियां भी वहीं हैं—भरोसे की कमी, भू-राजनीतिक टकराव की संभावना, और अमेरिकी साझेदारी के साथ सामंजस्य की जटिलता। दीर्घकालीन सफलता के लिए आवश्यक होगा कि दोनों देश पारदर्शिता, संवाद और सम्मान के साथ सभी अहम मुद्दों का निराकरण करें, जिससे क्षेत्र में स्थायी शांति और विकास सुनिश्चित हो सके।
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