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भारत में अर्न्ड लिज़फार्ट के सहयोगात्मक लोकतंत्र की प्रासंगिकता

सहयोगात्मक लोकतंत्र (Consociational Democracy) एक राजनीतिक सिद्धांत है, जिसे अर्न्ड लिज़फार्ट ने विकसित किया। यह सिद्धांत विशेष रूप से उन देशों के लिए है जो जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्रीय पहचान जैसे सामाजिक विभाजन से प्रभावित होते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार, लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थिर बनाए रखने के लिए विभिन्न समूहों के बीच सत्ता-साझाकरण आवश्यक है। भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में, यह सिद्धांत विशेष रूप से प्रासंगिक है।

1. सहयोगात्मक लोकतंत्र के प्रमुख तत्व

सहयोगात्मक लोकतंत्र के चार मुख्य तत्व होते हैं:

1. ग्रैंड कोलिशन (Grand Coalition): सभी प्रमुख सामाजिक समूहों के प्रतिनिधि सरकार में शामिल होते हैं।
2. वेटेज (Veto): अल्पसंख्यक समूहों को उनके मूलभूत अधिकारों की रक्षा के लिए वीटो शक्ति मिलती है।
3. प्रोपोर्शनल रिप्रेजेंटेशन (Proportional Representation):संसदीय सीटों और सरकारी पदों का वितरण समूहों की जनसंख्या के अनुपात में होता है।
4. संस्कृतिक स्वायत्तता (Cultural Autonomy): विभिन्न समूहों को अपनी सांस्कृतिक, शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियों में स्वतंत्रता मिलती है।

2. भारतीय संदर्भ में सहयोगात्मक लोकतंत्र

भारत एक विविधतापूर्ण देश है, जहाँ विभिन्न जातियाँ, धर्म, भाषाएँ और संस्कृतियाँ निवास करती हैं। इस संदर्भ में, सहयोगात्मक लोकतंत्र के सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक है। भारत में निम्नलिखित उदाहरण हैं जो सहयोगात्मक लोकतंत्र के तत्वों को दर्शाते हैं:

ग्रैंड कोलिशन: भारतीय राजनीति में विभिन्न दलों के गठबंधन सरकारों का गठन इसका उदाहरण है।
वेटेज: संविधान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान हैं।
प्रोपोर्शनल रिप्रेजेंटेशन: आरक्षण प्रणाली के माध्यम से विभिन्न जातियों और समुदायों को प्रतिनिधित्व मिलता है।
संस्कृतिक स्वायत्तता: विभिन्न राज्यों को अपनी भाषा, शिक्षा और संस्कृति को बढ़ावा देने की स्वतंत्रता है।

3. वर्तमान समय में प्रासंगिकता

आज के समय में, जब समाज में विभिन्न प्रकार की असहमति और संघर्ष बढ़ रहे हैं, सहयोगात्मक लोकतंत्र के सिद्धांतों का पालन करना और भी महत्वपूर्ण हो गया है। यह सिद्धांत समाज में शांति, समानता और न्याय सुनिश्चित करने में सहायक होता है। भारत में भी, विभिन्न समुदायों के बीच संवाद और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए इस सिद्धांत का पालन आवश्यक है।

र्न्ड लिज़फार्ट (Arend Lijphart) कौन थे?

अर्न्ड लिज़फार्ट (Arend Lijphart) 20वीं सदी के एक महत्वपूर्ण राजनीतिक वैज्ञानिक थे, जिन्होंने लोकतंत्र और राजनीतिक व्यवस्था के अध्ययन में अद्वितीय योगदान दिया। उनका जन्म 1936 में नीदरलैंड में हुआ और वे 2022 में दुनिया को अलविदा कह गए।
लिज़फार्ट ने विशेष रूप से उन समाजों पर ध्यान केंद्रित किया, जो जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्रीय पहचान जैसे सामाजिक विभाजनों से जटिल हैं। उनके अध्ययन का मुख्य उद्देश्य यह समझना था कि ऐसे विभाजित समाजों में लोकतंत्र को स्थिर और सफल कैसे बनाया जा सकता है।
लिज़फार्ट ने यह साबित किया कि लोकतंत्र केवल बहुमत की ताकत पर टिक नहीं सकता। इसके लिए जरूरी है कि सभी प्रमुख सामाजिक समूहों को राजनीतिक निर्णयों में शामिल किया जाए और उनके मूलभूत अधिकारों की रक्षा की जाए। उन्होंने इसेसहयोगात्मक लोकतंत्र (Consociational Democracy) का नाम दिया।

अर्न्ड लिज़फार्ट की प्रमुख रचनाओं

सबसे पहले उनकी किताब The Politics of Accommodation: Pluralism and Democracy in the Netherlands (1968) है, जिसमें उन्होंने नीदरलैंड के बहुसांस्कृतिक समाज में लोकतंत्र की स्थिरता का अध्ययन किया।
इसके बाद उन्होंने 1969 में Consociational Democracy लिखा, जिसमें विभाजित समाजों में लोकतंत्र के स्थिर मॉडल को विस्तार से समझाया।
1977 में प्रकाशित उनकी पुस्तक Democracy in Plural Societies में उन्होंने बहुसांस्कृतिक समाजों में लोकतंत्र की विशेषताओं और चुनौतियों का विश्लेषण किया।
उनके जीवन की अंतिम और सबसे व्यापक रचना Patterns of Democracy (1999) है, जिसमें उन्होंने 36 देशों में लोकतंत्र के विभिन्न स्वरूपों और उनके प्रदर्शन की तुलना की।

वर्तमान समय में प्रासंगिकता

आज के समय में, जब समाज में विभिन्न प्रकार की असहमति और संघर्ष बढ़ रहे हैं, सहयोगात्मक लोकतंत्र के सिद्धांतों का पालन करना और भी महत्वपूर्ण हो गया है। यह सिद्धांत समाज में शांति, समानता और न्याय सुनिश्चित करने में सहायक होता है। भारत में भी, विभिन्न समुदायों के बीच संवाद और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए इस सिद्धांत का पालन आवश्यक है।
लिज़फार्ट का यह योगदान साबित करता है कि लोकतंत्र केवल बहुमत के शासन पर आधारित नहीं होता, बल्कि सभी सामाजिक और राजनीतिक समूहों के सहयोग और सहभागिता से ही मजबूत और स्थिर बनता है। उनका सहयोगात्मक लोकतंत्र का सिद्धांत आज भी भारत जैसे विविधतापूर्ण देशों में अत्यंत प्रासंगिक है, जहाँ समाज में धर्म, भाषा, जाति और क्षेत्रीय पहचान के आधार पर अनेक विभाजन मौजूद हैं। उनके विचार यह दिखाते हैं कि लोकतंत्र तभी सफल और टिकाऊ हो सकता है जब समाज के सभी प्रमुख समूह अपने अधिकारों और पहचान के साथ राजनीतिक प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल हों।


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