आज 9 सितंबर 2025 को हुए उपराष्ट्रपति चुनाव में महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल और वर्तमान राजनीतिक हस्ती सीपी राधाकृष्णन ने भारी मतों से यह पद जीता है। उन्हें कुल 452 वोट मिले जबकि विपक्ष के उम्मीदवार बी. सुदर्शन रेड्डी को 300 वोट प्राप्त हुए। यह चुनाव जगदीप धनकड़ के स्वास्थ्य कारणों से इस्तीफा देने के बाद हुए समयपूर्व चुनाव थे।
भारत में उपराष्ट्रपति का पद संविधान का दूसरा सर्वोच्च संवैधानिक पद है एवं राष्ट्रपति पद के बाद आता है। इसका चुनाव संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित एवं मनोनीत सदस्यों द्वारा एकल संक्रमणीय मत और आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तहत गुप्त मतदान द्वारा होता है। हाल ही में 2025 का उपराष्ट्रपति चुनाव संपन्न हुआ, जिसकी प्रक्रिया भारत निर्वाचन आयोग की देखरेख में अनुच्छेद 66 और भारत निर्वाचन आयोग अधिनियम के अंतर्गत सम्पन्न होती है। यह चुनाव संसदीय लोकतंत्र की प्रक्रिया का प्रतिबिंब है, जो देश की शासन व्यवस्था में संवैधानिक पदों के महत्व को उजागर करता है और आधुनिक राजनीतिक गठबंधनों को भी रेखांकित करता है।
संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार, उपराष्ट्रपति का कार्यकाल पाँच वर्षों का होता है और वह इस अवधि समाप्त होने पर भी अपने उत्तराधिकारी के पद ग्रहण करने तक कार्य कर सकता है। उपराष्ट्रपति न केवल राष्ट्रपति की अनुपस्थिति या रिक्ति की स्थिति में राष्ट्रपति की शक्तियों का निर्वाह करता है, बल्कि वह राज्यसभा का पदेन सभापति भी होता है। उपराष्ट्रपति की नियुक्ति, उसकी शक्तियां, कर्तव्य और पद से संबंधित नियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 63 से 71 तक विस्तार से वर्णित हैं। उपराष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार की न्यूनतम आयु 35 वर्ष है और वह राज्यसभा के सदस्य के लिए अर्हित होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, उपराष्ट्रपति संसद के सदस्य नहीं हो सकता। यदि संसद सदस्य उपराष्ट्रपति निर्वाचित होता है, तो उसे अपने सदस्य पद से त्यागपत्र देना होता है।
यह पद स्थापित करने की प्रेरणा देश के संवैधानिक ढांचे में संवैधानिक निरंतरता और स्थिरता बनाए रखना है। उपराष्ट्रपति का पद इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि यह राष्ट्रपति पद की आकस्मिक रिक्ति की स्थिति में देश की कार्यकारी व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए एक संवैधानिक गारंटी प्रदान करता है। वर्तमान लोकतंत्र और शासन प्रणाली में विपरीत परिस्थितियों जैसे राष्ट्रपति की मृत्यु, त्यागपत्र या अनुपस्थिति की स्थिति में उपराष्ट्रपति राष्ट्रपत की सारी शक्तियों के साथ उनके स्थान पर कार्य करता है। ऐसा नहीं होने पर शासन व्यवस्था में अस्थिरता उत्पन्न हो सकती है।
प्रारंभ में यह पद मुख्यतः राष्ट्रपति के आकस्मिक स्थानापन्न के रूप में स्थापित किया गया था ताकि राष्ट्रपति पद की रिक्ति या अनुपस्थिति की स्थिति में शासन व्यवस्था की निरंतरता बनी रहे।
जल्द ही इस पद का एक और महत्वपूर्ण आयाम उभरा, जब इसे राज्यसभा का पदेन सभापति बनाया गया। इस द्वैध भूमिका में उपराष्ट्रपति न केवल कार्यपालिका की ओर से महत्वपूर्ण संवैधानिक भूमिका निभाते हैं, बल्कि राज्यसभा की कार्यवाही का संचालन और विधायी प्रक्रिया में निष्पक्ष अध्यक्षता भी करते हैं। राज्यसभा के सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति का कर्तव्य संसद के उच्च सदन के सुचारू संचालन के साथ-साथ संघीय संतुलन को बनाए रखना भी होता है क्योंकि राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है और इसकी अध्यक्षता से राज्यों के हितों का संरक्षण सुनिश्चित होता है।
समय के साथ उपराष्ट्रपति की संवैधानिक शक्तियों में भी विस्तार हुआ, जिससे वे राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में कार्यवाहक राष्ट्रपति का दायित्व निभाने के साथ-साथ संसदीय नियमों का पालन कर विधायी अनुशासन बनाए रखने का कार्य करते हैं। यद्यपि उनकी मतदान शक्ति सीमित है — केवल बराबरी की स्थिति में वोट देने का अधिकार है — फिर भी उनकी भूमिका द्विसदनीय व्यवस्था में महत्वपूर्ण संतुलन की कड़ी के रूप में विकसित हुई है।
इस प्रकार भारत में उपराष्ट्रपति पद का संरचनात्मक विकास संवैधानिक निरंतरता, विधायी निष्पक्षता, संघीय संतुलन और लोकतांत्रिक शासन की मजबूती के लिए एक अनिवार्य संवैधानिक अभिव्यक्ति बन गया है। वर्तमान में यह पद न केवल राष्ट्रपति के वैकल्पिक कर्ता के रूप में महत्वपूर्ण है, बल्कि यह संघीय लोकतंत्र में विधायी और संवैधानिक स्थिरता का एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ भी है।
उपराष्ट्रपति की संवैधानिक शक्तियां विशिष्ट हैं। वह राष्ट्रपति पद की रिक्ति की स्थिति में या राष्ट्रपति के अनुपस्थिति के दौरान उनके सभी अधिकारों और विशेषाधिकारों से लैस होता है। वह संसद के उच्च सदन का सभापति होता है, जिसके कारण विधायी प्रक्रियाओं की निगरानी और संचालन में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। संवैधानिक स्तर पर वह राष्ट्रपति की नियुक्ति के समय प्रथम रेखा में शामिल होता है। इसके अलावा, उपराष्ट्रपति को राज्यसभा में विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं और वह बड़ी संवैधानिक जिम्मेदारी के तहत कार्य करता है। उदाहरण स्वरूप, जब भारत में किसी राष्ट्रपत की आकस्मिक मृत्यु या त्यागपत्र होता है, तब उपराष्ट्रपति संवैधानिक रूप से देश के सर्वोच्च पद का निर्वाह करते हुए शासन व्यवस्था की निरंतरता सुनिश्चित करता है। इस प्रकार उपराष्ट्रपति पद की शक्तियां न केवल विधायी, बल्कि कार्यकारी क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
इतिहास में उपराष्ट्रपति का पद स्थिरता और संतुलन का प्रतीक रहा है, जैसे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का उपराष्ट्रपति पद से राष्ट्रपति पद पर पदोन्नति होना। इसके अलावा कई अवसरों पर उपराष्ट्रपति ने संवैधानिक संकटों या अप्रत्याशित परिस्थितियों में राष्ट्रपति की भूमिका निभाते हुए राष्ट्र की लोकतांत्रिक प्रणाली को बनाए रखा है।इसके अलावा, 1979 में एम. हादीमुल्लाह के उपराष्ट्रपति काल में पद की संवैधानिक सीमा और कार्यों में स्पष्टता आई।उपराष्ट्रपति का यह दायित्व भारत की संसदीय प्रणाली को निरंतरता प्रदान करता है और सत्ता संक्रमण को शांतिपूर्ण और संवैधानिक बनाये रखने में सहायक रहता है।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह पद निर्वाचित लोकतंत्र के भीतर संवैधानिक गारंटी का प्रतीक है, जिसने भारत के लोकतांत्रिक शासन में स्थिरता, संतुलन और विधायी कार्यों में प्रभावी नेतृत्व सुनिश्चित किया है। उपराष्ट्रपति ने विभिन्न कालों में न केवल विधायी व्यवस्थाओं को संचालित किया बल्कि राज्य व केन्द्र के बीच संवैधानिक समन्वय स्थापित करने में भी भूमिका निभाई। इसलिए, भारत में उपराष्ट्रपति पद की ऐतिहासिक भूमिका इसे एक संवैधानिक मजबूरी और लोकतंत्र की स्थिरता की आधारशिला के तौर पर स्थापित करती है।
अंततः उपराष्ट्रपति पद की आवश्यकता और मजबूरी दोनों को ही ध्यान में रखते हुए इसका महत्व समझा जाना चाहिए। भारत के लोकतंत्र में संवैधानिक मशीनरी की निरंतरता बनाए रखने के लिए यह पद अनिवार्य है। यह राष्ट्रपति के वैकल्पिक कर्ता के रूप में कार्य करता है और संसदीय व्यवस्था में राज्यसभा के सभापति के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालांकि कुछ समय इस पद की प्रासंगिकता पर चर्चा होती रही है, क्योंकि यह सीधे तौर पर निर्वाचित पद नहीं है, परंतु संवैधानिक और राजनीतिक स्थिरता के दृष्टिकोण से यह पद अपरिहार्य और आवश्यक है। उपराष्ट्रपति पद भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के लोकतांत्रिक संचालन की मजबूरी के साथ-साथ आवश्यकता भी है, जो उसकी राजनीतिक और संवैधानिक स्थिरता को निरंतर बनाए रखता है। अतः इस पद का निराकरण या समाप्त करना भारत के संवैधानिक शासन और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के लिए संभव या उचित नहीं होगा।
इस प्रकार, भारत में उपराष्ट्रपति का पद न केवल संवैधानिक प्रावधानों द्वारा स्थापित है बल्कि लोकतांत्रिक शासन की मजबूरी और आवश्यकता दोनों के रूप में कार्य करता है। इसका चुनाव प्रक्रिया, कार्य और शक्तियां देश की संविधानिक अखंडता और शासन की निरंतरता को सुनिश्चित करती हैं। उपराष्ट्रपति का पद राजनीतिक स्थिरता, संवैधानिक व्यवस्था और विधायी संतुलन के लिए अनिवार्य तत्व है, जो इसे भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण और आवश्यक संवैधानिक पद बनाता है।