➢ “कानून का शासन” (Rule of Law) लोकतंत्र और मानवाधिकारों की सबसे मूलभूत अवधारणा है। इसका अर्थ यह है कि देश में शासन कानून के आधार पर चले, न कि व्यक्तियों की मनमानी पर।शासक और प्रजा दोनों ही कानून के अधीन हों और सभी के लिए समान न्याय की व्यवस्था हो।
➢ उपेन्द्र बक्सी इस विषय पर लिखते हैं कि पश्चिमी देशों में “Rule of Law” का विचार बहुत पहले से मौजूद रहा है, लेकिन भारत जैसे उपनिवेशित और फिर स्वतंत्र हुए देशों ने इसे अपने अनुभवों और संघर्षों से नया अर्थ दिया है। वे यह भी बताते हैं कि भारतीय संविधान और न्यायपालिका ने इस सिद्धांत को केवल राज्य की शक्ति पर नियंत्रण रखने का औजार नहीं माना, बल्कि इसे समाज में समानता, न्याय और विकास लाने का साधन भी बनाया।
कानून का शासन – पतला (Thin) और मोटा (Thick) अर्थ
बक्सी कहते हैं कि “Rule of Law” के दो रूप माने जाते हैं:
➢ 1.पतला (Thin) रूप – इसमें कानून केवल इतना कहता है कि सरकार को कुछ नियमों और प्रक्रियाओं का पालन करना चाहिए। यानी मनमानी नहीं होनी चाहिए। इसमें यह नहीं देखा जाता कि कानून अच्छा है या बुरा। कई बार ऐसे कानून भी बन जाते हैं जो अन्यायपूर्ण होते हैं, जैसे – नस्लभेद या औपनिवेशिक शासन के कानून।
➢ 2.मोटा(Thick) रूप – इसमें कानून से उम्मीद की जाती है कि वह न्याय, समानता और मानवाधिकार को बढ़ावा देगा। केवल नियमों का पालन ही नहीं, बल्कि कानून का उद्देश्य समाज को अच्छा और न्यायपूर्ण बनाना होना चाहिए।
➢ भारत का संविधान और उसकी न्यायपालिका इस “मोटे” रूप की तरफ झुकाव रखते हैं।
पश्चिम और भारत का अंतर
➢ पश्चिमी देशों में “Rule of Law” को अक्सर केवल अपनी परंपरा का हिस्सा माना गया। उपेन्द्र बक्सी आलोचना करते हैं कि वे यह भूल जाते हैं कि उपनिवेशों (जैसे भारत) में भी अपने न्याय और कानून की परंपराएँ रही हैं।
➢ भारत में आज का “Rule of Law” केवल पश्चिम की नकल नहीं है, बल्कि यह स्वतंत्रता आंदोलन, सामाजिक सुधारों और आम जनता की आकांक्षाओं से बना है।
कानून का शासन और वैश्वीकरण
➢ आज के समय में “Rule of Law” केवल राष्ट्रीय स्तर तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वैश्विक (Global) रूप ले चुका है।
➢ विश्व बैंक, IMF जैसी संस्थाएँ “अच्छे शासन” और “कानून के शासन” के नाम पर गरीब देशों पर नीतियाँ थोपती हैं।
➢ आतंकवाद के खिलाफ युद्ध ने भी कानून के शासन के अर्थ को बदल दिया है। कई बार आपातकालीन स्थिति में मानवाधिकारों की अनदेखी की जाती है।
➢ इसलिए बक्सी चेतावनी देते हैं कि हमें सावधान रहना होगा कि “Rule of Law” का इस्तेमाल कहीं शक्तिशाली देशों और कंपनियों के हित साधन के लिए न हो जाए।
कानून का शासन – क्या करता है और क्या नहीं?
कानून की सीमाएँ:
➢ सरकार की शक्ति बँटी हुई हो (विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका अलग हों)।
➢ कानून सार्वजनिक हों, सबके सामने हों और चुनौती दिए जा सकें।
➢ बिना घोषित आपातकाल के शासन नहीं चलना चाहिए।
➢ आपातकाल भी स्थायी शासन का रूप नहीं ले सकता।
➢ सरकार मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकती।
➢ न्यायपालिका स्वतंत्र रहनी चाहिए और उसके निर्णयों का सम्मान होना चाहिए।
कानून का शासन क्या तय नहीं करता:
➢ चुनाव कैसे हों, किस पद्धति से हों (प्रतिनिधि प्रणाली, आनुपातिक प्रणाली आदि)।
➢ शासन संघीय (फेडरल) हो या एकात्मक (unitary)।
➢ राजतंत्र हो या गणतंत्र।
➢ संविधान बदलने की प्रक्रिया कैसी हो।
➢ यानी “Rule of Law” ढाँचा देता है, लेकिन लोकतंत्र का स्वरूप तय करना समाज और संविधान पर छोड़ देता है।
भारतीय संविधान और कानून का शासन
भारतीय संविधान में कानून का शासन केवल राज्य को सीमित करने का साधन नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय और विकास का औजार भी है।
➢ कुछ उदाहरण अनुच्छेद 17 – अस्पृश्यता (Untouchability) का अंत।
➢ अनुच्छेद 23-24 – जबरन मज़दूरी और बाल मज़दूरी का निषेध।
➢ अनुच्छेद 14-15 – समानता का अधिकार और आरक्षण जैसी सकारात्मक कार्यवाही।
➢ अनुच्छेद 25-30 – धार्मिक और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों के अधिकार।
इससे स्पष्ट होता है कि भारत में “Rule of Law” का मतलब केवल राज्य की शक्ति पर अंकुश नहीं, बल्कि समाज के कमजोर वर्गों को न्याय दिलाना भी है।
न्यायपालिका की भूमिका
➢ भारतीय सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों ने “Rule of Law” को जीवंत बनाया है।
न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review)
➢ न्यायालय संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की जाँच कर सकते हैं कि वे संविधान के मूल ढाँचे (Basic Structure) के खिलाफ तो नहीं।
मूल ढाँचा सिद्धांत (Basic Structure Doctrine):
➢ संसद संविधान संशोधन कर सकती है, लेकिन लोकतंत्र, समानता, धर्मनिरपेक्षता, न्यायिक समीक्षा आदि को नष्ट नहीं कर सकती।
जनहित याचिका (PIL/SAL)
➢ कोई भी नागरिक किसी अन्य नागरिक के अधिकारों के लिए अदालत जा सकता है।
➢ इससे ग़रीब और हाशिए पर खड़े लोगों को भी न्याय तक पहुँच मिली।
➢ अदालतों ने नए अधिकार भी विकसित किए जैसे शिक्षा का अधिकार, स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार, सूचना का अधिकार आदि।
भारतीय संदर्भ में चुनौतियाँ
➢ हालाँकि भारत में “Rule of Law” को मजबूत करने के प्रयास हुए हैं, पर कई समस्याएँ भी हैं
➢ आपातकाल (1975-77) में नागरिक अधिकारों का दमन।
➢ साम्प्रदायिक हिंसा (जैसे 2002 गुजरात दंगे) जहाँ राज्य की भूमिका संदिग्ध रही।
➢ भ्रष्टाचार और राजनीतिक दबाव से कानून के शासन की कमजोरी।
➢ सामाजिक असमानता – ग़रीब और दलित-आदिवासी आज भी अक्सर न्याय से वंचित रह जाते हैं।
साहित्य और कानून का शासन
➢ बक्सी कहते हैं कि कई बार न्यायपालिका और कानून की सीमाएँ समझने के लिए हमें साहित्य की ओर देखना चाहिए।
➢ महाश्वेता देवी की कहानियाँ– आदिवासियों और दलितों के संघर्ष।
➢ रोहिंटन मिस्त्री का उपन्यास “A Fine Balance” – आपातकाल के समय गरीबों की स्थिति।
➢ ये साहित्य दिखाते हैं कि “Rule of Law” केवल किताबों और अदालतों में नहीं, बल्कि लोगों के जीवन में कैसे काम करता है।
निष्कर्ष
➢ उपेन्द्र बक्सी का कहना है कि भारत में “Rule of Law” केवल पश्चिम से उधार ली गई अवधारणा नहीं है। यह यहाँ की जनता के संघर्ष, संविधान की विशेषताओं और न्यायपालिका की सक्रियता से बना है।
➢ भारत का कानून का शासन केवल राज्य की शक्ति पर रोक लगाने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज को न्यायपूर्ण और बराबरी पर आधारित बनाने का निरंतर प्रयास है।
➢ Rule of Law हमेशा जनता का संघर्ष है, जिससे सत्ता जवाबदेह बने, शासन न्यायपूर्ण बने और राज्य नैतिक बने।