मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India) और सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणियों के विवाद ने भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्याय के प्रशासन की सीमाओं पर बहस छेड़ दी है। दोषियों के विरुद्ध अवमानना की कार्यवाही (contempt proceedings) शुरू करने की मांग ने “न्यायालय की अवमानना” के मुद्दे को फिर से प्रमुखता से सामने लाया है।
न्यायालय की अवमानना का इतिहास
ऐतिहासिक रूप से गहरे मूल के साथ, न्यायालय की अवमानना की धारणा कोई अपेक्षाकृत नया विचार नहीं है। हमने पूरे इतिहास में इस तरह के बहुत से कानून देखे हैं। ऐसे मामले भी रहे हैं जहाँ किसी को कानून के बाहर कुछ करने के लिए दंडित किया गया था। यह अधिकार आमतौर पर राजाओं या उस मुद्दे के प्रभारी लोगों के पास होता था।
- अवमानना के मामलों को सीधे संबोधित करने वाला भारत का पहला कानून 1926 का न्यायालय की अवमानना अधिनियम था। अधिनियम की धारा 2 में न्यायालय की अवमानना के लिए दंडित करने के उच्च न्यायालयों के अधिकार को रेखांकित किया गया है।
- स्वतंत्रता के बाद, इस अधिनियम को निरस्त कर दिया गया और इसकी जगह 1952 के न्यायालय की अवमानना अधिनियम जैसे अन्य कानून लाए गए। उस समय अवमानना कानून को बदलने के लिए 1960 में संसद में एक विधेयक प्रस्तावित किया गया था।
- प्रस्तावित कानून और वर्तमान कानून दोनों की समीक्षा के लिए सान्याल समिति के नाम से एक समिति की स्थापना की गई क्योंकि सरकार का मानना था कि इसकी पुनः समीक्षा की जानी चाहिए।
- समिति की 1963 की रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद, हितधारकों और बुद्धिजीवियों के साथ कई चर्चाएँ हुईं। उसके बाद, विधेयक को संयुक्त चयन समिति को भेजा गया, जिसने महसूस किया कि अवमानना प्रस्ताव दायर करने के लिए समय प्रतिबंध के खंड को बदला जाना चाहिए। 1971 में, इस उपाय को अंततः कानून में बदल दिया गया, जिसने पिछले उपाय को निरस्त कर दिया।
- सिविल और आपराधिक अवमानना को परिभाषित करने के अलावा, 1971 का न्यायालय अवमानना अधिनियम, अवमानना के लिए दंडित करने के लिए न्यायालयों के पास उपलब्ध तरीकों और प्राधिकार तथा अपराध के लिए संभावित दंड को भी स्थापित करता है।
इस अधिनियम में 2006 में संशोधन किया गया था, ताकि न्यायालयों के पास अवमानना के लिए दंडित करने की क्षमता समाप्त हो जाए, जब तक कि इससे “न्याय के उचित तरीके में हस्तक्षेप न हो” और ऐसे अपराध के खिलाफ बचाव के रूप में सत्य के उपयोग की अनुमति दी जा सके।
भारत में न्यायालय की अवमानना क्या होती है, और इससे संबंधित प्रमुख निर्णय कौन–से हैं?
न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 (Contempt of Court Act, 1971)
भारत में न्यायालय की अवमानना को 1971 के न्यायालय की अवमानना अधिनियम के अंतर्गत परिभाषित किया गया है, जो एच. एन. सन्याल समिति (1963) की सिफारिशों पर आधारित था।
अटॉर्नी जनरल बनाम टाइम्स न्यूजपेपर लिमिटेड में दी गई परिभाषा के अनुसार, “जब कोई व्यक्ति किसी विशिष्ट अदालती प्रक्रिया से संबंधित व्यवहार में संलग्न होता है जो प्रणाली को कमजोर करता है या नागरिकों को मुद्दों को हल करने के लिए इसका उपयोग करने से रोकता है, तो इसे “अदालत की अवमानना” कहा जाता है।”यह अधिनियम अवमानना को दो भागों में विभाजित करता है:
- सिविल अवमानना (Civil Contempt): किसी न्यायालय के आदेश, डिक्री, निर्णय की जानबूझकर अवहेलना करना, या न्यायालय को दिया गया कोई वचन तोड़ना।
- आपराधिक अवमानना (Criminal Contempt): ऐसे कार्य जिनसे न्यायालय की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचे, उसकी अधिकारिता घटे या न्यायिक कार्यवाही में बाधा उत्पन्न हो।
इसमें ऐसे प्रकाशन (लिखित, मौखिक या दृश्य) भी शामिल हैं जो न्यायालय की साख को नुकसान पहुँचाएँ या न्याय के प्रशासन में अवरोध डालें।
संवैधानिक आधार: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 के अनुसार,
- सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) और उच्च न्यायालय (High Courts) को Court of Record का दर्जा प्राप्त है।
- इसका अर्थ है कि ये न्यायालय अपने निर्णयों का अभिलेख रखते हैं और उनके पास स्वयं की अवमानना दंडित करने की शक्ति होती है।
उद्देश्य: न्यायालय की प्रतिष्ठा, अधिकारिता और कार्यकुशलता की रक्षा करना। ताकि कोई भी व्यक्ति न्यायिक प्रक्रिया को बाधित, अनादरित या कमजोर न कर सके। यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्ष कार्यप्रणाली सुनिश्चित करता है।
अवमानना कार्यवाही की शुरुआत
1971 अधिनियम में इस प्रक्रिया को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है-
- स्वप्रेरणा से (Suo Motu): सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय स्वयं से अवमानना की कार्यवाही शुरू कर सकता है यदि उसे ऐसा प्रतीत हो कि अवमानना हुई है।
- तीसरे पक्ष द्वारा याचिका (Third-Party Petition): कोई तीसरा पक्ष भी याचिका दाखिल कर सकता है, परंतु इसके लिए अटॉर्नी जनरल (Supreme Court के लिए) या एडवोकेट जनरल (High Court के लिए) की पूर्व स्वीकृति आवश्यक है।
अवमानना का दोषी पाए जाने पर निम्नलिखित दंड दिया जा सकता है-
- छह महीने तक का साधारण कारावास, या
- ₹2,000 तक का जुर्माना, या
- दोनों दंड दिए जा सकते हैं।
हालाँकि, यदि अभियुक्त ईमानदारी से क्षमायाचना (apology) प्रस्तुत करता है, तो न्यायालय उसे क्षमा कर सकता है।
प्रमुख न्यायिक निर्णय (Landmark Judgments)
- Ashwini Kumar Ghosh v. Arabinda Bose (1952): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायालय के निर्णय की निष्पक्ष आलोचना (fair criticism) की अनुमति है, परंतु यदि यह आलोचना न्यायालय की अधिकारिता को कमजोर करती है, तो यह अवमानना मानी जाएगी।
- Anil Ratan Sarkar v. Hirak Ghosh (2002): न्यायालय ने कहा कि अवमानना की शक्ति का प्रयोग अत्यंत संयम (restraint) के साथ होना चाहिए, और केवल स्पष्ट व गंभीर उल्लंघन के मामलों में किया जाना चाहिए।
- M.V. Jayarajan v. High Court of Kerala (2015): न्यायालय ने निर्णय दिया कि न्यायालय की आलोचना करते हुए सार्वजनिक भाषणों में अपमानजनक भाषा का प्रयोग आपराधिक अवमानना के अंतर्गत आता है।
- Shanmugam @ Lakshminarayanan v. High Court of Madras (2025): न्यायालय ने कहा कि अवमानना दंड का उद्देश्य न्याय के प्रशासन की रक्षा करना है।
लोकतंत्र के संदर्भ में प्रासंगिकता
- न्यायपालिका राज्य की प्राथमिकताओं और न्याय की पवित्रता को बनाए रखती है।
- नागरिकों और मीडिया को न्यायालयों की आलोचना का अधिकार है, लेकिन जब यह आलोचना न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुँचाए या न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करे, तो यह लोकतंत्र के लिए हानिकारक है।
भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अवमानना का संतुलन कैसे बनाए रखा जाए?
- मजबूत आलोचना की रक्षा (Protecting Robust Criticism):न्यायपालिका की कार्यप्रणाली की सशक्त आलोचना जवाबदेही (accountability) के लिए आवश्यक है, लेकिन निराधार या दुर्भावनापूर्ण आरोपों को रोका जाना चाहिए जो जनता के विश्वास को कम करते हैं।
- न्यायिक अधिकारिता की रक्षा (Preserving Judicial Authority): किसी निर्णय के तर्क या परिणाम की निष्पक्ष आलोचना मान्य है, परंतु किसी न्यायाधीश के चरित्र या ईमानदारी पर व्यक्तिगत हमला अस्वीकार्य है।
- “सत्य” को सार्वजनिक हित की ढाल के रूप में (Truth Defense): धारा 13, न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 के अंतर्गत यदि आलोचना सत्य और जनहित में है, तो इसे अवमानना नहीं माना जाएगा। हालाँकि, इसका प्रमाण भार (burden of proof) आलोचक पर ही होता है।
- अवमानना की शक्ति का अंतिम उपाय के रूप में प्रयोग (Last Resort): न्यायालय को यह शक्ति केवल अंतिम उपाय के रूप में प्रयोग करनी चाहिए, ताकि न्याय के सुचारू संचालन में कोई बाधा न आए, परंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी बनी रहे।
निष्कर्ष
न्यायालय की अवमानना का उद्देश्य न्यायपालिका की प्रतिष्ठा, अधिकारिता और स्वतंत्रता की रक्षा करना है।
जहाँ निष्पक्ष आलोचना स्वीकार्य है, वहीं ऐसे कार्य जो न्याय को बाधित या कमजोर करते हैं, दंडनीय हैं।
इस प्रकार, यह व्यवस्था अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्यायिक गरिमा दोनों के बीच संतुलन बनाती है।
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