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भारत में व्हिप लोकतंत्र के लिए जरूरी या गैर-जरूरी

भारतीय लोकतंत्र में ‘व्हिप’ प्रणाली एक अत्यंत महत्वपूर्ण, लेकिन उतनी ही विवादास्पद व्यवस्था बन गई है, जिसका प्रभाव संसद और राज्य विधानसभाओं की कार्यशैली और लोकतांत्रिक मूल्यों पर गहन पड़ता है। अंग्रेज़ी शब्द ‘व्हिप’ मूलतः इंग्लैंड के शिकार क्षेत्र से आया है, जहाँ ‘whipper-in’ का कार्य झुंड से भटक रहे कुत्तों को वापस लाना होता था। राजनीतिक संदर्भ में एडमंड बर्क ने इसे पहली बार प्रयोग किया, जब संसद के अंदर राजा के मंत्री अपने समर्थकों को पार्टी रेखा पर बनाए रखने हेतु ‘whipping them in’ करते थे। इस प्रकार सदन में पार्टी अनुशासन और दिशा बनाने के लिए ‘व्हिप’ शब्द को अपनाया गया।

भारत में संसद और राज्य विधानसभाओं में व्हिप प्रणाली की शुरुआत संविधान निर्माण के समय से ही हुई, लेकिन इसका कानूनी अनुशासन 1985 में ‘दल-बदल विरोधी कानून’ की स्थापना के बाद अत्यधिक सख्त हो गया। प्रारंभ में भारतीय विधायिका में सांसद अपने विवेकानुसार निर्णय ले सकते थे, और संविधान सभा के सदस्य कई बार व्हिप का उल्लंघन करते थे, जिसपर गंभीर कार्रवाई नहीं होती थी। लेकिन 1967 के चुनावों के बाद जब देश में गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ, और राजनीतिक अस्थिरता तथा खरीद-फरोख्त की घटनाएँ सामने आईं, तब पार्टी व्हिप का उल्लंघन रोकने के लिए दल-बदल विरोधी कानून लाया गया। इस कानून के तहत अब व्हिप का उल्लंघन करने वाले सांसद या विधायक को सदन से निष्कासित तक किया जा सकता है, जिससे उनका स्वतंत्र विचार और अभिव्यक्ति का अधिकार सीमित हो गया है।

व्हिप एक पार्टी का आदेश होता है, जिसमें सांसद या विधायक से पार्टी निर्णय के अनुसार मतदान करने की अपेक्षा की जाती है। ‘व्हिप’ के तीन मुख्य प्रकार भारतीय संसद में प्रचलित हैं—“वन लाइन व्हिप”, “टू लाइन व्हिप” और “थ्री लाइन व्हिप”। वन लाइन व्हिप केवल सूचना होती है, टू लाइन व्हिप में उपस्थिति आवश्यक होती है, लेकिन मतदान विवेकाधीन रहता है। सबसे सख्त “थ्री लाइन व्हिप” होती है, जिसका उल्लंघन करने पर सदस्य को दल-बदल विरोधी कानून के तहत अयोग्य घोषित किया जा सकता है। पार्टी के ‘चीफ व्हिप’ की भूमिका यहाँ अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो सदन में पार्टी लाइन पर अनुशासन बनाए रखते हैं, सदस्यों को ठोस मुद्दों पर मतदान के निर्देश देते हैं, और पार्टी नेतृत्व को सदस्यों के फैसलों से अवगत कराते हैं।

यह व्यवस्था संसद में पार्टी अनुशासन और सरकार की स्थिरता के लिए आवश्यक मानी जाती है। मसलन, महत्वपूर्ण विधेयकों तथा विश्वासमत/अविश्वासमत जैसी प्रक्रियाओं में जब सरकार को अपना बहुमत साबित करना होता है, तो व्हिप सदस्यों को पार्टी लाइन के अनुसार मतदान के लिए बाध्य कर देती है। यदि विपक्षी सदस्य या सत्तापक्ष के असंतुष्ट सदस्य व्हिप का उल्लंघन करते हैं, तो सरकार का तख्ता पलट सकता है। इसी कारण दल-बदल विरोधी कानून में कठोर प्रावधान जोड़े गए–विशेषकर तीन लाइन व्हिप के उल्लंघन पर सदस्यता समाप्त करने तक की सजा दी जाती है।

हालांकि, यह प्रणाली लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए गंभीर प्रश्न खड़ी करती है। भारत के संविधान में विधायकों को स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार प्राप्त है, लेकिन पार्टी व्हिप के चलते वे पार्टी लाइन से हटकर वोट नहीं कर सकते, न ही अपनी स्वायत्त राय खुलकर रखते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भले ही पार्टी अनुशासन के लिए व्हिप सिस्टम को उचित ठहराया हो, लेकिन यह भी तथ्य है कि संसद के भीतर स्वतंत्र बहस और संवाद की संस्कृति कम होती जा रही है। कई विशेषज्ञ इसे “debate stifling” अर्थात संसदीय संवाद और तर्क-वितर्क की हत्या मानते हैं, क्योंकि सदस्यों को विवेकानुसार मतदान नहीं करने दिया जाता।

पश्चिमी लोकतंत्रों में, जैसे इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया व कनाडा में, व्हिप का पालन प्रायः अनिवार्य नहीं होता। वहां अधिकतर पार्टी के डिसिप्लिन उल्लंघन पर सदस्य को केवल फटकार या आपत्ति झेलनी पड़ती है, लेकिन सदस्यता समाप्ति जैसी सख्त सजा नहीं होती। इससे सांसद पार्टी अनुशासन के दायरे में रहते हुए भी स्वतंत्र विचार और आलोचनात्मक वोटिंग कर सकते हैं। पश्चिमी देशों में संसदीय व्यवस्था अपने नागरिकों के प्रति अधिक उत्तरदायी मानी जाती है, जबकि भारतीय लोकतंत्र में व्हिप और दल-बदल विरोधी कानून ने सांसदों को पार्टी नेताओं का “button-pressing mouthpiece” बना दिया है, जिसकी वजह से कई बार संसद की बहस बेजान और एकरंगी दिखाई देती है।

राज्यसभा, जिसे संविधान में “house of reason and revision” अर्थात पुनर्विचार और तर्क का मंच मानकर गठित किया गया था, वहां भी व्हिप की बाध्यता है। संविधान निर्माताओं का उद्देश्य था कि राज्यसभा लोकसभा की तात्कालिक राजनीतिक दबाव से दूर रहकर विधि निर्माण में गंभीरता और विवेक लाए। लेकिन व्हिप के कठोर प्रावधान ने राज्यसभा को भी लोकसभा सरीखा बना दिया है। उदाहरण के लिए, न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया या अन्य अपॉलिटिकल मामलों में, जहां सरकार की स्थिरता दांव पर नहीं है, वहां व्हिप लागू करना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है, क्योंकि यह सदस्यों की स्वायत्तता को समाप्त कर देता है। इससे उच्च सदन का स्वरूप भी बदलता जा रहा है।

भारतीय जनप्रतिनिधि जनता के प्रतिनिधि हैं, लेकिन व्हिप की कठोरता के कारण पार्टी के प्रति उनकी जवाबदेही प्राथमिक हो जाती है। इस व्यवस्था के समर्थन में तर्क दिया जाता है कि सांसद या विधायक जब पार्टी टिकट पर चुनकर आते हैं, तो पार्टी विचारधारा और लोकतांत्रिक अनुशासन का पालन उनका कर्तव्य है। पार्टी मंचों पर वे असहमत हो सकते हैं, लेकिन अंतिम निर्णय का अनुपालन आवश्यक है–अन्यथा पार्टी अनुशासन और राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक स्थिरता खतरे में पड़ सकती है। यह तर्क संसद की कार्यशैली सुव्यवस्थित रखने के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन इसमें स्वतंत्र अभिव्यक्ति और विवेक के अधिकार का दमन नकारा नहीं जा सकता। लोकतंत्र केवल बहुमत तक सीमित नहीं है, वह बहस, संवाद और तर्क-वितर्क का संगम भी है, जिसकी गुणवत्ता तब बनी रहती है जब जनप्रतिनिधि बिना डर और दबाव के अपनी बात कह सकें।

समसामयिक संदर्भ में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ जैसे शीर्ष नेता ने सार्वजनिक मंच से यह मुद्दा उठाया कि संसद में व्हिप व्यवस्था अभिव्यक्ति की आज़ादी और स्वतंत्र भावना की बाधा है। उन्होंने विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए कहा कि सदस्यों को पार्टी लाइन के अनुसार वोट देने पर मजबूर करना “servility” अर्थात गुलामी का रूप है, जो लोकतांत्रिक आदर्शों का विरोध है। इसी प्रकार, भारत की संसद में पिछले तीन दशकों में कई बार यह देखा गया कि सांसद कोई विधेयक पढ़े बिना, सिर्फ बटन दबाने का आदेश मानते हुए वोट डालते हैं, जिससे संस्थागत संवाद और पारदर्शिता की संस्कृति कमजोर होती है।

समकालीन घटनाओं में, जब राज्यसभा में न्यायाधीश हटाने की प्रक्रिया चली और यह चर्चा होने लगी कि क्या ऐसे नॉन-पॉलिटिकल मामलों में पार्टी व्हिप लागू होना चाहिए, तो स्पष्ट हुआ कि आज लोकतंत्र के लिए व्यापक मंथन और पुनर्विचार की जरूरत है। संसद की गतिविधियों में दल-बदल विरोधी कानून और व्हिप प्रणाली ने एक ओर राजनीतिक अस्थिरता को रोका, लेकिन बहस, तर्क और स्वतंत्र मतदान की गुणवत्ता में गिरावट आई। आज भारत जब लोकतंत्र की वैश्विक मिसाल बनने की राह में है, तब यह आवश्यक है कि संसद के भीतर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संवाद को पुनर्जीवित किया जाए।

बहस का अंतिम निष्कर्ष यही है कि व्हिप प्रणाली लोकतंत्र और राजनीतिक स्थिरता के लिए कुछ हद तक जरूरी हो सकती है, लेकिन इसकी कठोरता जब निष्पक्ष विचार और अभिव्यक्ति के अधिकार को दबा दे, तो यह लोकतंत्र के आदर्श मूल्य और जनप्रतिनिधित्व के सार को बेमानी कर देती है। विश्व के कई लोकतंत्रों में, व्हिप व्यवस्था अधिक उदार है और सदन के भीतर स्वतंत्र सोच को महत्व दिया जाता है। भारतीय संसद को भी अपनी प्रणाली में इतना लचीलापन लाना चाहिए कि पार्टी अनुशासन के साथ सांसदों को स्वायत्तता और विवेक का अधिकार मिले। ऐसा होने पर ही भारत में संसद की बहसें जीवंत होंगी, संवाद मजबूत होगा और लोकतंत्र अपना असली रूप पा सकेगा।

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व्हिसलब्लोअर संरक्षण अधिनियम, 2014