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भारत में श्रमिक आन्दोलन

सामाजिक आंदोलन

भारत में श्रमिक आंदोलन (Labour Movement) का विकास सामाजिक आन्दोलन के रूप में हुआ। इन आन्दोलनों का उद्भव और विकास सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलावों से गहराई से जुड़ा हुआ है। ये आंदोलन मज़दूरों के अधिकार, बेहतर कामकाजी परिस्थितियों, और न्यायपूर्ण वेतन की मांगों को लेकर उभरे। इन आंदोलनों ने भारत की औद्योगिक संरचना, राजनीति, और श्रम कानूनों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सामाजिक आंदोलन क्या होते हैं?

सामाजिक आंदोलन (Social Movements) ऐसे संगठित प्रयास होते हैं जो किसी समाज में परिवर्तन लाने या किसी परिवर्तन का विरोध करने के लिए किए जाते हैं। ये आंदोलन किसी नीति, व्यवस्था, परंपरा, कानून या सामाजिक बुराई के खिलाफ लोगों के सामूहिक विरोध या समर्थन के रूप में सामने आते हैं।

मुख्य उद्देश्य

  • समानता और न्याय प्राप्त करना
  • नए अधिकारों की माँग करना
  • पुरानी सामाजिक बुराइयों को हटाना
  • पर्यावरण, महिला, आदिवासी जैसे समूहों के हक के लिए लड़ना
  • जनता को जागरूक बनाना और सरकार पर दबाव डालना

भारत में सामाजिक आन्दोलन

  • स्वतंत्रता के बाद भारत ने भले ही एक उदार लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाया हो, लेकिन सामाजिक पहचान और सामूहिकता की शक्ति बनी रही।
  • बीतेल का कहना है कि भारतीय राज्य ने व्यक्ति और समुदाय दोनों को अधिकारों के वाहक के रूप में स्वीकार किया। इससे विभिन्न समुदायों को वैधता और पहचान की मांग करने का आधार मिला।
  • राज्य ने संस्थागत ढांचे बनाकर लोगों की पहचान को परिभाषित किया और फिर उसे मान्यता दी। इस प्रकार भारत में भाषा, धर्म, जाति और जनजातीय पहचान पर आधारित अनेक प्रकार के आन्दोलन उभरे और अपनी समस्यायों के संरक्षण तथा नेत्रित्व हेतु इन समूहों ने अपने अपने सगठन बनाये।

“सामाजिक आंदोलन वह सामूहिक क्रिया है जो सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए नागरिकों द्वारा संगठित रूप में की जाती है, जिसमें नेतृत्व, विचारधारा और उद्देश्य स्पष्ट रूप से परिभाषित होते हैं।”

(Finer, “The History of Government”)

 

भारत में श्रमिक आंदोलन का विकास: पाँच चरण

प्रारंभिक चरण (औपनिवेशिक काल)

  • 1860 के दशक में भारत में उद्योगों की शुरुआत हुई – विशेषकर बंबई (मुंबई), कलकत्ता (कोलकाता) और मद्रास (चेन्नई) जैसे शहरों में।
  • मज़दूरी बहुत कम थी और काम के घंटे अधिक थे। मज़दूरों को न्यूनतम सुरक्षा भी नहीं मिलती थी।
  • औपनिवेशिक सरकार ने श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए कोई कानून नहीं बनाए।

दूसरा चरण श्रमिक आंदोलनों की शुरुआत

  • मज़दूरों ने स्वतंत्र रूप से विरोध करना शुरू किया।
  • पहले ये आंदोलन असंगठित और स्वतःस्फूर्त होते थे।
  • 1917–18 में कई कपड़ा मिलों में हड़तालें हुईं, विशेषकर बंबई और अहमदाबाद में।

तीसरा चरण संगठित मज़दूर संघों की स्थापना

  • 1918: बी.पी. वाडिया ने मज़दूर संगठनों की स्थापना की।
  • 1920: बंबई में A.I.T.U.C. (All India Trade Union Congress) की स्थापना – यह पहला अखिल भारतीय मजदूर संगठन था।
  • मुख्य नेता: एस. ए. डांगे, एम. एन. रॉय, लाला लाजपत राय।
  • यह आंदोलन समाजवादी और राष्ट्रवादी विचारधाराओं से प्रेरित था।

चतुर्थ चरणप्रमुख घटनाएं

  • 1920–40: मज़दूर संघ और आंदोलनों ने ज़ोर पकड़ा।
  • 1974: रेलवे मज़दूरों की ऐतिहासिक हड़ताल, जो सबसे बड़ी मानी जाती है।
  • 1981–82: बंबई की कपड़ा मिलों की बड़ी हड़ताल हुई, जो कई महीनों तक चली।

पांचवा चरण विभाजन और क्षेत्रीयता का प्रभाव

  • 1947 के बाद, श्रमिक आंदोलन में राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप बढ़ा।
  • 1960 के बाद, कई मजदूर संगठन राजनीतिक विचारधाराओं के अनुसार विभाजित हो गए।
  • क्षेत्रीय और उद्योग-विशेष संघ भी बनने लगे।

 

प्रभावी श्रमिक आन्दोलन और उनके उद्देश्य

बॉम्बे मिल एंड मिलहैंड्स एसोसिएशन (1884)

  • स्थापना वर्ष: 1884
  • नेतृत्व: नारायण मेघाजी लोखंडे
  • प्रमुख समय: 1880 के दशक
  • उद्देश्य: मिल मजदूरों के लिए काम के घंटे कम कराना, वेतन सुधार, कार्य स्थितियाँ बेहतर बनाना।

वर्किंग मेन क्लब और भारत श्रमजीवी‘ (1870)

  • स्थापना वर्ष: 1870
  • नेतृत्व: शशिपद बनर्जी
  • प्रमुख कार्य: वर्किंगमेन क्लब की स्थापना, श्रमिकों के लिए समाचार पत्र (भारत श्रमजीवी) शुरू किया।
  • उद्देश्य: श्रमिकों में शिक्षा, संगठन और जागरूकता फैलाना।

ग्रेट इंडियन पेनिनसुलर रेलवे हड़ताल (1899)

  • साल: 1899
  • समर्थन: तिलक के समाचार पत्र Kesari और Mahratta
  • उद्देश्य: रेलवे श्रमिकों की वेतन वृद्धि और कार्य स्थितियों का सुधार।

स्वदेशी आंदोलन के दौरान श्रमिक हड़तालें (1905-1911)

  • समय: 1905-1911
  • नेतृत्व: अश्विनी कुमार बनर्जी, चिदंबरम पिल्लै, प्रह्लाद रॉय, अपूर्व घोष आदि
  • उद्देश्य: श्रमिकों को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ना, ब्रिटिश शासन के विरोध में एकजुटता दिखाना।

मद्रास श्रमिक संघ

  • समय: 1918
  • नेतृत्व: वी. कल्याणसुंदरम मुदालियर और बोमनजी पेस्तोंजी वाडिया
  • उद्देश्य: कपड़ा उद्योग में शोषण के शिकार श्रमिकों के लिए बेहतर कार्य परिस्थितियां और उचित वेतन सुनिश्चित करना।

ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) – 1920

  • स्थापना: 31 अक्टूबर, 1920
  • नेतृत्व: लाला लाजपत राय (अध्यक्ष), दीवान चमनलाल (महासचिव)
  • उद्देश्य: एक राष्ट्रीय श्रमिक संगठन बनाना, मजदूरों के हक और प्रतिनिधित्व की रक्षा करना।

बॉम्बे टेक्सटाइल मिल्स हड़ताल (1928)

  • नेतृत्व: एस.ए. डांगे
  • अवधि: छह महीने
  • उद्देश्य: मजदूरी, कार्य घंटे और श्रमिक सुरक्षा में सुधार। आंदोलन में कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रभाव।

ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन फेडरेशन (AITUF) – 1931

  • स्थापना: 1931
  • नेतृत्व: एन.एम. जोशी
  • उद्देश्य: AITUC से अलग होकर एक नया श्रमिक संघ बनाना, श्रमिकों के मुद्दों को स्वतंत्र रूप से उठाना।

भारतीय मजदूर संघ (BMS – Bharatiya Mazdoor Sangh)

  • स्थापना: 23 जुलाई 1955
  • नेतृत्व: दत्तोपंत ठेंगड़ी (Dattopant Thengadi)
  • स्थापना का स्थान: भोपाल, मध्य प्रदेश
  • उद्देश्य: स्वदेशी, आत्मनिर्भरता, सामाजिक न्याय और मजदूर हितों की रक्षा को लेकर प्रतिबद्ध है। इसकी स्थापना 1955 में हुई थी और यह आज भारत के सबसे प्रभावशाली श्रमिक संगठनों में से एक है।
  • यह भारत का सबसे बड़ा श्रमिक संगठन माना जाता है (सदस्यों की संख्या के अनुसार)।
  • राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की विचारधारा से प्रेरित

हिंदू मज़दूर सभा (HMS)

  • स्थापना: 1948
  • स्थान: भारत (राष्ट्रीय स्तर पर)
  • संगठन का प्रारंभ: भारतीय स्वतंत्रता के तुरंत बाद
  • WFTU (World Federation of Trade Unions) से जुड़ी है
  • नेतृत्व: अच्युत पटवर्धन, एन.जी. गोरे, जी.जी.

भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र (CITU)

  • स्थापना: 30 मई 1970
  • स्थान: कोलकाता, पश्चिम बंगाल
  • यह संगठन AITUC से अलग होकर बनाया गया था।
  • उद्देश्य: यह संगठन साम्यवादी विचारधारा (Marxist ideology) से प्रेरित है और देश भर में श्रमिक अधिकारों की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाता है।

यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस (UTUC)

  • स्थापना: 1949
  • स्थान: भारत (राष्ट्रीय स्तर पर)
  • यह ट्रेड यूनियन कांग्रेस वामपंथी विचारधारा से प्रभावित संगठनों में से एक है।
  • उद्देश्य: श्रमिक अधिकार, सामाजिक न्याय और राजनीतिक सशक्तिकरण।

 

ट्रेड यूनियन एवं राजनीतिक पार्टियों से सहसंबंध

संगठनस्थापनाविचारधाराराजनीतिक संबंध
UTUC1949समाजवादी/वामपंथीRSP
CITU1970मार्क्सवादीCPI(M)
AITUC1920साम्यवादीCPI
INTUC1947कांग्रेसवादीकांग्रेस
BMS1955राष्ट्रवादीRSS

श्रमिक आंदोलनों में आए नए रुझान

1.  संगठित क्षेत्र से असंगठित क्षेत्र की ओर झुकाव

  • 1991 के बाद नौकरियों का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में चला गया।

  • ट्रेड यूनियनों का असर घटने लगा क्योंकि असंगठित मजदूरों को संगठित करना कठिन होता है।

2. ट्रेड यूनियनों की शक्ति में गिरावट

  • निजीकरण और कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम ने स्थायी नौकरी और यूनियन सदस्यता को प्रभावित किया।

  • यूनियनों का राजनीतिकरण और विभाजन भी प्रभाव को कम करता है।

3.  गिग इकॉनॉमी और डिजिटल श्रम

  • ज़ोमैटो, स्विगी, उबर, ओला जैसे ऐप आधारित काम ने एक नई “गिग वर्कफोर्स” को जन्म दिया।

  • ये श्रमिक न तो पारंपरिक कर्मचारी होते हैं और न ही पूरी तरह से स्वरोज़गार वाले – इनके अधिकारों की स्थिति अस्पष्ट है।

  • अब इन प्लेटफॉर्म वर्कर्स ने भी आंदोलन और हड़तालें शुरू की हैं (जैसे कि Zomato delivery boy protest 2020)।

4.  नए श्रम कानून (Labour Codes, 2020)

  • सरकार ने 29 पुराने श्रम कानूनों को मिलाकर 4 संहिताएँ लागू कीं:

    • वेतन संहिता

    • औद्योगिक संबंध संहिता

    • सामाजिक सुरक्षा संहिता

    • व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा संहिता

  • यूनियनों ने इनका विरोध किया क्योंकि इससे हड़ताल के अधिकार, सुरक्षा, और सामूहिक सौदेबाज़ी को सीमित किया गया।

5.  राष्ट्रीय स्तर पर समन्वित हड़तालें

  • सभी प्रमुख ट्रेड यूनियनें (INTUC, AITUC, CITU, HMS, BMS को छोड़कर) मिलकर All India General Strikes कर रही हैं:

    • उदाहरण: 2020 और 2021 की देशव्यापी हड़तालें, जिनमें करोड़ों मजदूरों ने हिस्सा लिया।

6. नई प्रकार की मांगें

  • पारंपरिक माँगों (वेतन, बोनस) के अलावा अब आंदोलन में शामिल हैं:

    • सामाजिक सुरक्षा (ESI, PF)

    • हेल्थ इंश्योरेंस

    • गिग वर्कर्स के लिए स्थायी नीति

    • महिलाओं के लिए सुरक्षित कार्यस्थल

7.  सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग

  • अब श्रमिक संगठन सोशल मीडिया, व्हाट्सऐप, फेसबुक और यूट्यूब के ज़रिए अपनी बातें फैला रहे हैं।

  • डिजिटल एक्टिविज़्म का नया युग शुरू हो गया है।

याद रखने योग्य तथ्य

  1. भारत का पहला श्रमिक संगठन बॉम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन था (1890)।

  2. नारायण मेघाजी लोखंडे को भारतीय श्रमिक आंदोलन का जनक कहा जाता है।

  3. AITUC की स्थापना 1920 में हुई – यह भारत की पहली राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन है।

  4. AITUC के पहले अध्यक्ष लाला लाजपत राय थे।

  5. INTUC की स्थापना 1947 में हुई – यह कांग्रेस से जुड़ी यूनियन है।

  6. CITU का गठन 1970 में हुआ – यह CPM से जुड़ी यूनियन है।

  7. 1974 की रेलवे हड़ताल भारत की अब तक की सबसे बड़ी औद्योगिक हड़ताल थी।

  8. 1982 की मुंबई टेक्सटाइल हड़ताल में 2.5 लाख से अधिक श्रमिक शामिल हुए थे।

  9. औद्योगिक विवाद अधिनियम (1947) श्रमिकों और नियोक्ताओं के बीच विवादों को नियंत्रित करता है।

  10. कारखाना अधिनियम (1948) श्रमिकों की सुरक्षा और स्वास्थ्य को सुनिश्चित करता है।

  11. 2020 में 4 श्रम संहिताएँ (Labour Codes) लाकर पुराने 29 श्रम कानूनों को समाहित किया गया।

  12. भारत के लगभग 90% श्रमिक असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं।

  13. गिग वर्कर्स जैसे स्विगी, उबर, ज़ोमैटो के श्रमिक अब संगठित होकर आंदोलन कर रहे हैं।

  14. डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया अब श्रमिक आंदोलनों का नया मंच बन चुका है।

  15. ट्रेड यूनियनों की ताकत प्राइवेट और कॉर्पोरेट सेक्टर में काफी कम हो गई है।

  16. श्रमिक आंदोलन अब डेटा सुरक्षा, इंश्योरेंस और स्थायीत्व जैसी नई माँगें भी उठा रहे हैं।

  17. 2020–21 में राष्ट्रव्यापी हड़तालें श्रम संहिताओं और निजीकरण के विरोध में हुईं।

  18. BMS (भारतीय मजदूर संघ) RSS से जुड़ी सबसे बड़ी यूनियन है।

  19. श्रमिक आंदोलन ने भारत में श्रम कानूनों और सामाजिक सुरक्षा के विकास में योगदान दिया है।

  20. आज के श्रमिक आंदोलन का फोकस सुरक्षा, सम्मान और पहचान की माँग पर केंद्रित है।


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राजनीतिक समाजीकरण/Political socialization