मुद्दा क्या है?
तमिलनाडु में हाल ही में एक विवाद उठा है जिसमें मंदिरों के फंड का उपयोग कॉलेज बनाने के लिए किया जा रहा है। यह विवाद केवल राजनीति का विषय नहीं है, बल्कि यह दक्षिण भारत में धार्मिक संस्थानों से जुड़े धर्मनिरपेक्ष कार्यों को संचालित करने की एक विशेष सामाजिक न्याय की परंपरा को भी उजागर करता है। यह परंपरा लगभग 200 साल पुरानी है, जो ब्रिटिश शासन के मद्रास प्रेसीडेंसी के समय से चली आ रही है।
धार्मिक दान और उसका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारत में धार्मिक संस्थाओं का नियमन एक जटिल और ऐतिहासिक रूप से विकसित प्रक्रिया है, जो धार्मिक स्वतंत्रता और राज्य के नियंत्रण के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करती है। इस विषय को बेहतर ढंग से समझने के लिए हम इसे तीन प्रमुख कालखंडों में बाँट सकते हैं: औपनिवेशिक युग, संविधानिक प्रावधान, और न्यायिक दृष्टिकोण व वैधानिक कानून।
औपनिवेशिक युग में धार्मिक संस्थाओं का नियंत्रण
1817 का धार्मिक दान विनियमन अधिनियम
- ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1817 में यह कानून पारित किया था, जिससे मंदिरों और अन्य धार्मिक संस्थाओं की धनराशि व संपत्ति के प्रबंधन पर नियंत्रण की शुरुआत हुई।
- इसका उद्देश्य धार्मिक संस्थानों द्वारा प्राप्त दान और संपत्ति की पारदर्शिता बनाए रखना था, परंतु यह धार्मिक गतिविधियों में राज्य की दखल की नींव बन गया।
1858 की महारानी विक्टोरिया की उद्घोषणा
- 1857 की क्रांति के बाद जब सत्ता सीधे ब्रिटिश क्राउन के अधीन आ गई, तो धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का वादा किया गया।
- लेकिन व्यवहार में, ब्रिटिश शासन ने मंदिरों के दान और आय को राजस्व स्रोत के रूप में देखा और प्रशासनिक नियंत्रण बनाए रखा।
भारतीय संविधान में धार्मिक संस्थाओं का नियमन
अनुच्छेद 25(2)(a): धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों का नियमन
- यह अनुच्छेद कहता है कि राज्य सामाजिक कल्याण और सुधार के लिए किसी भी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या धर्मनिरपेक्ष गतिविधि को विनियमित या प्रतिबंधित कर सकता है।
- उदाहरण: मंदिरों की आय का उपयोग स्कूल, अस्पताल या सार्वजनिक सेवाओं में किया जा सकता है।
अनुच्छेद 26: धार्मिक संप्रदायों के अधिकार
- धार्मिक संप्रदायों को अपने धार्मिक मामलों का संचालन करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है।
- परंतु, यह अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन है।
- इसका अर्थ है कि अगर कोई धार्मिक गतिविधि सार्वजनिक हित में बाधा पहुँचाए, तो राज्य उसे सीमित कर सकता है।
न्यायिक दृष्टिकोण और वैधानिक कानून
शिरुर मठ केस (1954)
- इस ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि
धार्मिक प्रथाएँ और धर्मनिरपेक्ष प्रशासनिक गतिविधियाँ अलग हैं। - धार्मिक प्रथाओं में राज्य हस्तक्षेप नहीं कर सकता, लेकिन प्रबंधन, दान, भूमि आदि के मामलों में राज्य का हस्तक्षेप वैध हो सकता है।
एचआर एंड सीई (Hindu Religious and Charitable Endowments) अधिनियम
- यह अधिनियम तमिलनाडु, कर्नाटक, और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में लागू है।
- इसके तहत सरकार मंदिरों की संपत्ति और प्रशासन की निगरानी करती है, ट्रस्टियों की नियुक्ति करती है, और मंदिर आय के उपयोग पर नजर रखती है।
- आलोचक इसे धार्मिक स्वतन्त्रता पर अंकुश मानते हैं, जबकि समर्थक इसे धार्मिक संस्थाओं में पारदर्शिता और जवाबदेही का माध्यम मानते हैं।
भारत का संविधान धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है, लेकिन साथ ही सामाजिक सुधारों और सार्वजनिक हित की दृष्टि से राज्य को विनियमन करने की शक्ति भी देता है। न्यायपालिका ने हमेशा संतुलन बनाए रखने की कोशिश की है कि राज्य धर्म में हस्तक्षेप न करे, परंतु जब बात प्रबंधन, संपत्ति, और सार्वजनिक हितों की होती है, तो विनियमन को वैध माना गया है।
दक्षिण भारत में मंदिरों की ऐतिहासिक भूमिका
- चोल साम्राज्य (970 ई.) के समय से मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं थे, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्र भी थे।
- सेम्बियन महादेवी जैसी रानियों ने मंदिरों को भूमि और धन का दान देकर उन्हें समाजसेवा और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बनाया।
- विजयनगर साम्राज्य के दौरान मंदिर शिक्षा, संस्कृति और कल्याण के केंद्र बने।
- मंदिरों की बनावट, जैसे विशाल मंडप, इस बात की गवाही देते हैं कि वहां सांस्कृतिक और शैक्षणिक कार्यक्रम होते थे।
इस इतिहास को देखते हुए, आज के समय में मंदिरों के फंड का उपयोग कॉलेज बनाने जैसे उद्देश्यों के लिए करना, उसी परंपरा की निरंतरता मानी जाती है।
मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण, सामाजिक न्याय और सुधार की बहस
मंदिरों पर राज्य नियंत्रण की बहस
- यह बहस केवल कानून की नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय की ऐतिहासिक विरासत से जुड़ी है।
- पहले मंदिरों का उपयोग राजा-प्रजा कल्याण के लिए होता था।
- ब्रिटिश और फिर भारतीय सरकार ने मंदिर प्रशासन को संभाल कर समाजहित में उसका प्रयोग किया।
सामाजिक न्याय और सुधार
- पेरियार ई.वी. रामासामी के नेतृत्व में इस आंदोलन ने वंशानुगत पुरोहिताई और मंदिर प्रशासन में ब्राह्मणों के प्रभुत्व पर सवाल उठाया तथा अनुष्ठान और प्रबंधकीय दोनों भूमिकाओं में गैर-ब्राह्मणों को शामिल करने पर जोर दिया।
- इसने एचआर एंड सीई अधिनियम जैसे कानूनों के माध्यम से मंदिरों के सरकारी विनियमन के लिए वैचारिक आधार तैयार किया , जिससे पारदर्शिता , सामाजिक समानता और सार्वजनिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए मंदिरों को राज्य नियंत्रण में लाया गया ।
- आंदोलन ने इस बात पर जोर दिया कि मंदिर की संपत्ति को सार्वजनिक भलाई के लिए काम करना चाहिए , जैसे कि शिक्षा , स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक कल्याण , विशेष रूप से उत्पीड़ित जातियों के लिए, मंदिरों को सामाजिक सुधार के साधन में बदलना।
- आत्म-सम्मान आंदोलन (Self-Respect Movement) ने मंदिरों को सुधार का माध्यम बनाया ताकि जाति-व्यवस्था को तोड़ा गया।
- 1936 और 1947 के मंदिर प्रवेश अधिनियम जैसे सुधारों से पिछड़ी जातियों को मंदिरों में प्रवेश मिला।
- आधुनिक युग में, तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में पिछड़ी जातियों से पुजारियों की नियुक्ति संभव हुई, यह सब सरकारी नियंत्रण से ही संभव हो पाया।
क्या धार्मिक संस्थाओं को राज्य नियंत्रण से स्वायत्त होना चाहिए?
पक्ष में तर्क:
धार्मिक स्वतंत्रता का संरक्षण: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 26 धार्मिक संप्रदायों को अपने मामलों का प्रबंधन स्वयं करने का अधिकार देता है। स्वायत्तता भारत के बहुलवादी लोकाचार का सम्मान करती है और आध्यात्मिक मामलों में राज्य के हस्तक्षेप से बचाती है।
सांस्कृतिक और पारंपरिक अखंडता: कई धार्मिक संस्थाओं में सदियों पुरानी रीति-रिवाज़ और प्रबंधन प्रणालियाँ हैं । स्वायत्तता, बदलते राजनीतिक या प्रशासनिक हितों के हस्तक्षेप के बिना इन स्वदेशी प्रथाओं को संरक्षित करने में मदद करती है।
विपक्ष में तर्क:
जवाबदेही और पारदर्शिता: राज्य की निगरानी के बिना, वित्तीय कुप्रबंधन , भ्रष्टाचार या श्रद्धालुओं के शोषण का ख़तरा ज़्यादा होता है । राज्य विनियमन मंदिर के धन और परिसंपत्तियों का उचित लेखा-परीक्षण और प्रशासन सुनिश्चित करता है।
जनहित और कल्याण: धार्मिक संस्थाओं के पास अक्सर महत्वपूर्ण धन और प्रभाव होता है। राज्य नियंत्रण अधिशेष संसाधनों को सामाजिक कल्याण , शिक्षा और बुनियादी ढाँचे की ओर निर्देशित कर सकता है, जिससे धार्मिक समुदाय से परे समावेशी विकास को बढ़ावा मिलता है।
यदि मंदिरों पर से सरकार का नियंत्रण हटा दिया जाए, तो यह सामाजिक सुधारों को पीछे ले जाने जैसा होगा। सरकारी निगरानी से ही यह सुनिश्चित होता है कि मंदिरों के फंड का उपयोग समानता और शिक्षा जैसे उद्देश्यों के लिए हो।
निष्कर्ष
- मंदिरों के फंड से कॉलेज बनाना केवल कानूनी नहीं, बल्कि ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से न्यायसंगत है।
- दक्षिण भारत के मंदिर सदियों से शिक्षा और समाजसेवा का केंद्र रहे हैं।
- HR&CE अधिनियम इस परंपरा को संरक्षित करता है।
- मंदिर फंड का उपयोग सामाजिक न्याय मॉडल का हिस्सा है, जिसने दक्षिण भारतीय समाज में समानता और प्रगति को बढ़ावा दिया है।