मणिपुर में राष्ट्रपति शासन की अवधि बढ़ाए जाने से भारतीय संघीय ढांचे में अनुच्छेद 356 के प्रयोग को लेकर एक बार फिर से बहस तेज हो गई है। इसका प्रभाव केवल राज्य के लोकतांत्रिक ढांचे के निलंबन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह केंद्र और राज्य के बीच शक्ति-संतुलन को भी प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है।
मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के कारण: लगातार जातीय संघर्ष, प्रशासनिक मशीनरी की विफलता, तथा मुख्यमंत्री के इस्तीफे के पश्चात केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 356 का सहारा लेते हुए राज्य विधानसभा को भंग कर राष्ट्रपति शासन लागू किया था।
मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लगाने का उद्देश्य क्या था?
- लगातार हो रही जातीय हिंसा और प्रशासन की विफलता को देखते हुए शांति एवं स्थिरता लाना।
- स्थानीय सरकार पर पक्षपात के आरोपों को दूर कर तटस्थ केंद्रीय नियंत्रण स्थापित करना।
- मुख्यमंत्री के इस्तीफे और सत्तारूढ़ दल के भीतर खींचतान से उत्पन्न शून्य को भरना।
- हिंसा से प्रभावित समुदायों—विशेषकर कुकी-ज़ो-मार और मैतेई—को समान सुरक्षा प्रदान करना।
- 60,000 से अधिक विस्थापित लोगों को राहत शिविरों से सुरक्षित पुनर्वास की दिशा में कदम उठाना।
- राज्य में स्थिर वातावरण बनाकर भविष्य में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों का मार्ग प्रशस्त करना।
राष्ट्रपति शासन (President’s Rule)
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के अंतर्गत लागू होने वाले राष्ट्रपति शासन का आशय उस स्थिति से है जब किसी राज्य की सरकार संविधान के अनुसार कार्य करने में विफल रहती है। इस स्थिति में राज्य की विधायिका निलंबित अथवा भंग कर दी जाती है और राज्य प्रत्यक्ष रूप से केंद्र सरकार के नियंत्रण में आ जाता है। इसे प्रायः राज्य आपातकाल अथवा संवैधानिक आपातकाल भी कहा जाता है।
संवैधानिक आधार
- अनुच्छेद 355 – यह केंद्र को यह दायित्व देता है कि वह सुनिश्चित करे कि प्रत्येक राज्य संविधान के अनुसार शासन करे।
- अनुच्छेद 356 – यदि राज्यपाल की रिपोर्ट या अन्य सूचना के आधार पर राष्ट्रपति को यह संतोष हो जाए कि राज्य की सरकार संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार कार्य नहीं कर पा रही है, तो राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है।
- अनुच्छेद 365 – यदि कोई राज्य केंद्र के निर्देशों का पालन करने में असफल रहता है, तो यह माना जाएगा कि राज्य संवैधानिक रूप से कार्य करने में विफल है।
राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा के आधार
- राज्यपाल की रिपोर्ट (सबसे सामान्य आधार)
- राष्ट्रपति को उपलब्ध अन्य स्रोतों से प्राप्त सूचना
- राज्य सरकार का केंद्र के निर्देशों का पालन न करना
- गंभीर कानून-व्यवस्था संकट, जातीय या सांप्रदायिक हिंसा, या चुनाव कराने में असमर्थता
संसदीय अनुमोदन प्रक्रिया
- राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा को दो महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों से अनुमोदित करना आवश्यक है।
- अनुमोदन हेतु साधारण बहुमत (present and voting) पर्याप्त है।
- यदि लोकसभा भंग हो, तो राज्यसभा की स्वीकृति से यह तब तक लागू रहेगा जब तक नयी लोकसभा 30 दिन के भीतर अनुमोदन न दे।
राष्ट्रपति शासन की अवधि
- प्रारंभिक अवधि: 6 महीने
- अधिकतम विस्तार: 3 वर्ष (हर छह माह में संसदीय स्वीकृति आवश्यक)
- 44वाँ संशोधन (1978): एक वर्ष से अधिक का विस्तार तभी संभव है,
- जब राष्ट्रीय आपातकाल लागू हो, या
- निर्वाचन आयोग प्रमाणित करे कि चुनाव कराना संभव नहीं है।
- तीन वर्ष से अधिक विस्तार: संविधान संशोधन आवश्यक (जैसे पंजाब में उग्रवाद काल के दौरान 67वाँ और 68वाँ संशोधन)।
राष्ट्रपति शासन का निरसन
राष्ट्रपति शासन किसी भी समय राष्ट्रपति द्वारा वापस लिया जा सकता है, भले ही संसद की अवधि समाप्त न हुई हो।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य एवं दुरुपयोग
संविधान निर्माताओं ने इसे एक ‘असाधारण उपाय’ के रूप में परिकल्पित किया था, किंतु व्यवहार में इसका अनेक बार दुरुपयोग हुआ है।
- अब तक (2023 तक) भारत में अनुच्छेद 356 का लगभग 125 से अधिक बार उपयोग किया जा चुका है।
- प्रारंभिक दशकों में इसका प्रयोग प्रायः केंद्र में सत्तारूढ़ दल द्वारा राज्यों में विपक्षी दल की सरकार को गिराने हेतु किया जाता रहा।
- इंदिरा गांधी काल (1966–77) और जनता पार्टी काल (1977–79) में इस प्रावधान का बार-बार राजनीतिक दुरुपयोग हुआ।
भारत में राष्ट्रपति शासन के संबंध में न्यायिक घोषणाएँ
- S. R. बोम्मई मामला (1994): सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला किया कि अनुच्छेद 356 न्यायिक समीक्षा के अधीन है और किसी राज्य सरकार को पदच्युत करने का निर्णय केवल राज्यपाल की राय पर आधारित नहीं होना चाहिये, बल्कि इसके लिये फ्लोर टेस्ट किया जाना आवश्यक है।
- सरबनंदा सोनोवाल मामला (2005): सर्वोच्च न्यायालय ने यह पुष्टि की कि केंद्र की ज़िम्मेदारी (अनुच्छेद 355 के तहत) राज्यों को बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति से बचाने की है।
- रमेश्वर प्रसाद मामला (2006): सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार विधानसभा के बिना फ्लोर टेस्ट के विघटन की निंदा की तथा अनुच्छेद 356 के राजनीतिक दुरुपयोग की आलोचना की, यह कहते हुए कि इसे भ्रष्टाचार या अपवादों जैसे सामाजिक बुराइयों से निपटने के लिये उपयोग नहीं किया जा सकता।
राष्ट्रपति शासन के प्रभाव
कार्यकारी शक्तियाँ: राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्य की कार्यकारी शक्ति सीधे राष्ट्रपति के हाथों में आ जाती है।
- राज्यपाल, राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं और प्रशासन का संचालन करते हैं।
- मुख्य सचिव और अन्य नियुक्त सलाहकार राज्यपाल को प्रशासन चलाने में सहयोग करते हैं।
विधायी शक्तियाँ: राज्य विधानमंडल को या तो निलंबित कर दिया जाता है अथवा भंग कर दिया जाता है।
- इस स्थिति में संसद को राज्य के लिए कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है (अनुच्छेद 357)।
- संसद चाहे तो यह विधायी शक्ति राष्ट्रपति अथवा किसी निर्दिष्ट प्राधिकरण को सौंप सकती है।
- राष्ट्रपति शासन के दौरान बनाए गए कानून तब तक प्रभावी रहते हैं जब तक कि भविष्य में राज्य विधानमंडल उन्हें निरस्त न कर दे।
वित्तीय नियंत्रण: राष्ट्रपति, संसद की स्वीकृति प्राप्त होने तक राज्य की संचित निधि (Consolidated Fund of the State) से व्यय को अधिकृत कर सकते हैं।
- इस प्रकार राज्य का वित्तीय प्रबंधन भी अस्थायी रूप से केंद्र के अधीन हो जाता है।
मौलिक अधिकारों पर प्रभाव: राष्ट्रपति शासन के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित नहीं होते।
- यह इसे राष्ट्रीय आपातकाल से अलग करता है, क्योंकि राष्ट्रीय आपातकाल में अनुच्छेद 19 के तहत स्वतंत्रताओं को निलंबित किया जा सकता है और अन्य अधिकारों (20 और 21 को छोड़कर) को सीमित किया जा सकता है।
अंत: राष्ट्रपति शासन का अर्थ है कि राज्य की कार्यपालिका, विधायिका और वित्तीय अधिकार अस्थायी रूप से केंद्र सरकार के अधीन चले जाते हैं, लेकिन नागरिकों के मौलिक अधिकार सुरक्षित रहते हैं।
भारत में राष्ट्रपति शासन से जुड़ी प्रमुख चिंताएँ
संघीय ढाँचे पर प्रभाव: राष्ट्रपति शासन का अर्थ है राज्य का प्रत्यक्ष रूप से केंद्र के नियंत्रण में आ जाना।
- बार-बार इसका प्रयोग करने से संविधान में निहित सहकारी संघवाद (cooperative federalism) की भावना कमजोर होती है।
- इससे निर्वाचित राज्य सरकारें अस्थायी रूप से निष्क्रिय हो जाती हैं और केंद्र कार्यपालिका व विधानपालिका दोनों पर नियंत्रण स्थापित कर लेता है।
राजनीतिक दुरुपयोग की संभावना: इतिहास बताता है कि कई बार अनुच्छेद 356 का प्रयोग वास्तविक संवैधानिक संकट के बजाय राजनीतिक लाभ उठाने के लिए किया गया है।
- सत्ता संघर्ष या विपक्षी दल की सरकार को अस्थिर करने के लिए इसका उपयोग संघीय संतुलन को कमजोर करता है।
- यह प्रवृत्ति क्षेत्रीय दलों और संस्थाओं को कमजोर कर केंद्र की शक्ति को असामान्य रूप से बढ़ा देती है।
शासन-प्रशासन में गतिरोध: राष्ट्रपति शासन लागू होने पर राज्य प्रशासन सीधे केंद्र को जवाबदेह हो जाता है।
- इससे निर्णय लेने की प्रक्रिया धीमी होती है और नीति-कार्यान्वयन में देरी आती है।
- केंद्र के अधिकारी अक्सर राज्य की स्थानीय सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों को गहराई से नहीं समझ पाते, जिसके कारण योजनाएँ जमीनी आवश्यकताओं से मेल नहीं खातीं।
राज्यपाल की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह: राष्ट्रपति शासन की सिफारिश मुख्यतः राज्यपाल की रिपोर्ट पर आधारित होती है।
- कई मामलों में राज्यपाल पर पक्षपात के आरोप लगे हैं, जैसे अरुणाचल प्रदेश (2016) का उदाहरण।
- पुंछी आयोग ने सिफारिश की थी कि राज्यपाल को ‘केंद्र के एजेंट’ के बजाय स्वतंत्र और निष्पक्ष संवैधानिक पदाधिकारी के रूप में कार्य करना चाहिए।
भारत के संघीय ढाँचे में राष्ट्रपति शासन के क्या सकारात्मक कार्य हैं?
- संवैधानिक तंत्र की बहाली: जब कोई राज्य सरकार कानून और व्यवस्था के पतन या शासन की विफलता के कारण संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार कार्य करने में विफल हो जाती है तो राष्ट्रपति शासन प्रशासन की निरंतरता सुनिश्चित करता है।
- यह एक संवैधानिक सुरक्षा वाल्व के रूप में कार्य करता है, अराजकता को रोकता है और बड़े संघीय ढाँचे की सुरक्षा करता है।
- उदाहरण: सांप्रदायिक दंगों या गंभीर राजनीतिक संकट के दौरान राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने से शासन के पूर्ण पतन को रोकने में सहायता मिलती है।
- राष्ट्रीय अखंडता और सुरक्षा की रक्षा: अलगाववादी आंदोलनों, उग्रवाद या बाह्य खतरों की स्थिति में, राष्ट्रपति शासन संघ को सीधे हस्तक्षेप करने और संप्रभुता बनाए रखने की अनुमति देता है।
- व्यापक संसाधनों (सेना, केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल, खुफिया एजेंसियाँ) के साथ केंद्र सरकार निर्णायक रूप से कार्य कर सकती है, जिसे राज्य सरकारें प्रभावी ढंग से प्रबंधित नहीं कर सकती हैं।
- उदाहरण: 1980 के दशक के दौरान पंजाब में राष्ट्रपति शासन के प्रयोग से उग्रवाद से निपटने और स्थिरता बहाल करने में सहायता मिली।
- राजनीतिक गतिरोध के दौरान तटस्थ प्रशासन: त्रिशंकु विधानसभाओं या बड़े पैमाने पर दलबदल जैसी परिस्थितियों में, जहाँ कोई पार्टी बहुमत साबित नहीं कर सकती, राष्ट्रपति शासन अस्थिर गठबंधनों और राजनीतिक सौदेबाज़ी को रोकता है।
- यह नई चुनावी मंज़ूरी के लिये जगह बनाता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि शासन राजनीतिक अवसरवाद के शिकार न बनें।
- राष्ट्रीय नीतियों के समानांतर कार्यान्वयन को सुनिश्चित करना: प्राकृतिक आपदाओं, महामारियों या आर्थिक संकट जैसी आपात स्थितियों में राष्ट्रपति शासन केंद्र और राज्यों के बीच सहज समन्वय को सक्षम बनाता है।
- केंद्र द्वारा नियंत्रण संसाधनों के कुशल आवंटन और तेज़ी से निर्णय लेने को सुनिश्चित करता है, स्थानीय राजनीतिक विवादों को दरकिनार करते हुए।
- भ्रष्टाचार और कुप्रशासन के खिलाफ सुरक्षा: राष्ट्रपति शासन राज्यों में भ्रष्टाचार, शक्ति के दुरुपयोग और अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करता है।
- यह कानून के शासन को बनाए रखता है, जवाबदेही सुनिश्चित करता है तथा शक्ति के दुरुपयोग के खिलाफ जाँच और संतुलन दिखाकर संविधान में जनता के विश्वास को मज़बूत करता है।
भारत में राष्ट्रपति शासन के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने हेतु कौन–से सुधार आवश्यक हैं?
- अनुच्छेद 356 का सीमित प्रयोग: सरकारिया आयोग (1983) ने सिफारिश की थी, अनुच्छेद 356 का उपयोग राज्य के संवैधानिक विघटन को हल करने के लिये सभी विकल्पों को समाप्त करने के बाद केवल अंतिम उपाय के रूप में किया जाना चाहिये।
- दुरुपयोग को रोकने के लिये ‘संवैधानिक तंत्र की विफलता’ की परिभाषा को सटीक रूप से परिभाषित किया जाना चाहिये।
- स्थानीयकृत आपातकालीन प्रावधान: पुंछी आयोग (2010) ने अनुच्छेद 355 और 356 के तहत आपातकालीन प्रावधानों को स्थानीयकृत करने का सुझाव दिया है, जिससे राष्ट्रपति शासन की बजाय किसी विशेष क्षेत्र (जैसे ज़िले) में तीन माह तक राज्यपाल का शासन लागू किया जा सके।
- राज्यपाल की विस्तृत रिपोर्ट: अंतर–राज्यीय परिषद ने सुझाव दिया कि राज्यपाल की रिपोर्ट विस्तृत और स्पष्ट होनी चाहिये तथा राष्ट्रपति शासन लागू करने से पहले राज्य को चेतावनी दी जानी चाहिये।
- इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति शासन लागू करने से पहले अनिवार्य फ्लोर टेस्ट कराना चाहिये, ताकि बहुमत खोने की स्थिति साबित हो सके। इससे लोकतांत्रिक जवाबदेही बनी रहती है और राजनीतिक उद्देश्यों के लिये दुरुपयोग रोका जा सकता है।
- अनुसमर्थन के लिये विशेष बहुमत: राष्ट्रपति शासन लागू करने के प्रस्ताव को अनुसमर्थित करने के लिये संसद में विशेष बहुमत की आवश्यकता होनी चाहिये, जिससे व्यापक राजनीतिक सहमति सुनिश्चित हो सके।
- न्यायिक जाँच को मज़बूत करना: राष्ट्रपति शासन की समीक्षा में न्यायपालिका की भूमिका को मज़बूत किया जाना चाहिये। एक अनिवार्य न्यायिक समीक्षा तंत्र यह सुनिश्चित करे कि राष्ट्रपति शासन केवल तभी लागू किया जाए, जब आवश्यक हो और वास्तविक संवैधानिक विफलता पर आधारित हो।
- विकेंद्रीकृत प्रशासन को प्रोत्साहित करना: राष्ट्रपति शासन के दौरान केंद्रीय हस्तक्षेप और राज्य स्वायत्तता के बीच संतुलन सुनिश्चित करने के लिये स्थानीय शासन तंत्र को मज़बूत किया जाना चाहिये।
- समय पर चुनाव और जवाबदेही: लोकतांत्रिक शासन को बहाल करने और लोगों के जनादेश को पुनः स्थापित करने के लिये राष्ट्रपति शासन के तुरंत बाद चुनाव कराए जाने चाहिये।
- लंबे समय तक राष्ट्रपति शासन से बचना चाहिये, जब तक कि राष्ट्रीय सुरक्षा या आपदा जैसी वास्तविक परिस्थितियाँ समय पर चुनाव कराने में बाधा न डालें।
आलोचना
- दुरुपयोग की प्रवृत्ति – केंद्र सरकार द्वारा विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को बर्खास्त करने का इतिहास।
- संघीय ढांचे पर आघात – संविधान की मूल भावना ‘संघीयता’ कमजोर होती है।
- अस्पष्ट परिभाषा – ‘संवैधानिक तंत्र की विफलता’ की स्पष्ट व्याख्या संविधान में न होने से मनमानी व्याख्या की संभावना।
निष्कर्ष
राष्ट्रपति शासन एक आवश्यक संवैधानिक सुरक्षा प्रावधान है, लेकिन इसका इतिहास दर्शाता है कि यह राजनीतिक दुरुपयोग के लिये समान रूप से संवेदनशील है। असली चुनौती केंद्र के हस्तक्षेप और राज्य की स्वायत्तता के सम्मान के बीच संतुलन बनाने में निहित है। न्यायिक समीक्षा को मज़बूत करना, फ्लोर टेस्ट को अनिवार्य बनाना और समय पर चुनाव सुनिश्चित करना भारत की संघीय भावना की रक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण है।
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