in , ,

महर्षि अरबिंदो का राजनीतिक विचार

महर्षि अरबिंदो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, आध्यात्मिक पुनर्जागरण और आधुनिक राजनीतिक चिंतन के प्रमुख स्तंभ रहे हैं। उनके चिंतन में भारतीय राष्ट्रवाद, आध्यात्मिकता, मानव एकता, निष्क्रिय प्रतिरोध सैद्धांतिक ढांचा, स्वराज की संकल्पना और वैश्विक राज्य जैसी अवधारणाएँ समाहित हैं। उनका विचार राष्ट्रवाद के पारंपरिक राजनीतिक एवं आध्यात्मिक रूपों का समन्वय प्रस्तुत करता है।

महर्षि अरबिंदो का राजनीतिक दर्शन: पृष्ठभूमि

महर्षि अरबिंदो का जीवन बंगाल के जागरण की पृष्भूमि में विकसित हुआ, जहाँ वे क्रांतिकारी विचारक, पत्रकार, साहित्यकार व योग साधक बने। वे इंग्लैंड से लौटने के बाद भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के अग्रणी बने और ‘बंदे मातरम्’ पत्रिका के संपादक के रूप में अपनी राजनीतिक दृष्टि को प्रसारित किया। उनकी सोच का आधार राष्ट्रीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण था, जिसमें भारत की ऐतिहासिक विशेषता और आध्यात्मिक विरासत केंद्र में रही।

आध्यात्मिक राष्ट्रवाद और मातृभूमि की दिव्यता

महर्षि अरबिंदो के राजनीतिक दर्शन की बुनियाद आध्यात्मिक राष्ट्रवाद है। वे राष्ट्र को केवल राजनैतिक इकाई नहीं मानते, बल्कि उसे एक जीवंत, संस्कारशील एवं दैवी सत्ता के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार, भारतीय राष्ट्र का अस्तित्व ईश्वर के कारण है और उसका उद्देश्य मानव कल्याण में निहित है। राष्ट्रवाद, उनके लिए, धर्म और आत्मा की चेतना से संचालित है, जिसमें देश की मुक्ति और मानवता का उत्थान साथ-साथ चलते हैं। वे राष्ट्र को ‘माँ’ के रूप में पूजते हैं और मातृभूमि की आराधना को राजनीति की उच्चतम साधना मानते हैं।

स्वराज: स्वतंत्रता की बहुआयामी अवधारणा

महर्षि अरबिंदो के अनुसार स्वराज केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं है, बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक मुक्ति भी है। उनका मानना है कि बिना राजनीतिक स्वतंत्रता समाज का कोई वास्तविक सुधार, शिक्षा का विकास या आर्थिक प्रगति संभव नहीं है। वे स्पष्ट कहते हैं: “Political freedom is the life-breath of a nation” — राष्ट्र का जीवन-श्वास राजनीतिक स्वाधीनता है। स्वराज की प्राप्ति से ही भारत अपनी आध्यात्मिक भूमिका विश्व के लिए निभा सकता है।

महर्षि अरबिंदो के विचार में स्वराज का मॉडल पश्चिमी उदारवाद या समाजवाद से भिन्न है। वे मानते हैं कि भारत का स्वराज धर्म-आधारित हो — जिसमें सामाजिक न्याय, समरसता, और सभ्यताओं का सहयोग हो। वे वैयक्तिक और सामूहिक विकास को जोड़ते हैं, जिससे भारतीय समाज न केवल स्वतंत्र बने बल्कि आत्मिक रूप से विकसित भी हो।

निष्क्रिय प्रतिरोध और बॉयकॉट की रणनीति

महर्षि अरबिंदो निष्क्रिय प्रतिरोध को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संगठित असहयोग की नीति के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिसका उद्देश्य अंग्रेजी प्रशासन को असंभव बना देना है। वे बॉयकॉट आंदोलन—शैक्षिक, आर्थिक, न्यायिक, और सरकारी संस्थाओं—को व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर लागू करने की वकालत करते हैं। उनका मत था कि जब शासक दमन की नीति अपनाए, तब अहिंसा-अनहिंसा का प्रश्न व्यावहारिकता के अनुसार निर्धारित होना चाहिए। उनका Passive Resistance गांधी की Non-Violence से अलग है, जिसकी सीमाएँ वे स्पष्ट करते हैं।

स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा

महर्षि अरबिंदो ‘स्वदेशी’ वस्तुओं के उपयोग, विदेशी सामानों के बहिष्कार और भारतीय शिक्षा प्रणाली की स्थापना को स्वतंत्रता के संघर्ष का आवश्यक हिस्सा मानते हैं। वे मानते हैं कि राष्ट्रीयता की चेतना शिक्षा से प्रारंभ होती है और समाज के सभी वर्गों को समाविष्ट करती है।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर दृष्टिकोण

महर्षि अरबिंदो ने कांग्रेस के पुनर्जागरणकारी एवं सुधारवादी दृष्टिकोण की आलोचना की। वे मानते थे कि मौजूदा नेतृत्व में राजनीतिक मुक्ति का अभाव है, और राष्ट्रीय आंदोलन को अधिक आक्रामक, सशक्त और आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित होना चाहिए। उनकी मांग थी कि कांग्रेस केवल सामाजिक सुधार तक सीमित न रहे, बल्कि राजनीतिक स्वतंत्रता को पहली प्राथमिकता बनाए।

वैश्विक राज्य और मानव एकता का आदर्श

महर्षि अरबिंदो वैश्विक एकता में विश्वास रखते थे। वे मानते थे कि समूची मानवता एक आत्मा से जुड़ी है, जिसकी अभिव्यक्ति राजनीतिक और सामाजिक रूप से भी होनी चाहिए। उनका ‘इंटीग्रल ह्यूमैनिज्म’ गहरे रूप से आध्यात्मिक है, जहां मानव जाति की अंतिम एकता परमात्मा में है। वे भविष्य की ‘Supra-national society’ की बात करते हैं, जिसमें राष्ट्रीय स्वार्थों के पार एक वैश्विक जगत की कल्पना होती है।

महर्षि अरबिंदो के अनुसार, सच्ची एकता आध्यात्मिक है; राजनीतिक और आर्थिक प्रक्रियाएँ क्षणिक समाधान देती हैं। वे मानते हैं कि पश्चिमी राष्ट्रवाद और समाजवाद में भौतिक विकास है, लेकिन आध्यात्मिक विकास की कमी है। उनका समाधान है — आध्यात्मिक योग, जिसकी सहायता से मनुष्य परम चेतना प्राप्त कर के मानवीय एकता को स्थापित कर सकता है।

राजनीति और योग: आध्यात्मिक पुनरुत्थान का सूत्र

महर्षि अरबिंदो के दृष्टिकोण में योग और राजनीति का गहरा संबंध है। वे कर्मयोग की अवधारणा को राजनीति में लागू करते हैं — जिसमें मनुष्य निःस्वार्थ रूप से राष्ट्र और मानवता की सेवा करे। उनका मानना था कि राष्ट्र का निर्माण आत्मिक उच्चता और संस्कार से ही संभव है, न कि केवल भौतिक साधनों से। उनके अनुसार, भारत का हर कार्य ईश्वर की सेवा है, और राजनीति भी साधना का अंग है।

समकालीन संदर्भ: अरबिंदो की प्रासंगिकता

आज के युग में श्री महर्षि अरबिंदो की विचारधारा अत्यंत प्रासंगिक है। उनका आध्यात्मिक राष्ट्रवाद सांस्कृतिक पुनर्जागरण, वैश्विक एकता के आदर्श, और राजनीति की नैतिकता को प्रेरित करता है। वे आधुनिकता के साथ आध्यात्मिकता के संतुलन की बात करते हैं, जिससे भारत वैश्विक स्तर पर एक सकारात्मक भूमिका निभा सके। भारतीय संविधान, लोकनीति और विदेश नीति में उनके विचारों की छाया स्पष्ट रूप में देखी जा सकती है।

निष्कर्ष

महर्षि अरबिंदो घोष के राजनीतिक विचार एक जटिल समन्वय हैं — राष्ट्रवाद, स्वराज, निष्क्रिय प्रतिरोध, वैश्विक एकता, योग साधना और आध्यात्मिक पुनर्जागरण का। वे भारतीय राजनीति को महज सत्ता संघर्ष नहीं, बल्कि समाज के नैतिक और आध्यात्मिक उत्थान का माध्यम मानते हैं। उनके सिद्धांत UPSC की राजनीतिक विज्ञान की पढ़ाई और आधुनिक भारत की राजनीति के लिए मार्गदर्शन देते हैं, जो भारत को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की ओर ले जाते हैं।


Discover more from Politics by RK: Ultimate Polity Guide for UPSC and Civil Services

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

What do you think?

मतदान का अधिकार और मतदान की स्वतंत्रता

भारत-भूटान संबंधों की विवेचना