#MeToo और HeToo आंदोलन हाल के वर्षों में लिंग आधारित न्याय और सामाजिक उत्तरदायित्व के संदर्भ में प्रमुख विमर्श के केंद्र में रहे हैं। जहाँ #MeToo ने यौन उत्पीड़न और लैंगिक असमानता के खिलाफ महिलाओं की आवाज़ को बल दिया, वहीं HeToo ने उन पुरुषों की पीड़ा को उजागर किया जो झूठे आरोपों या एकतरफा कानूनों के कारण पीड़ित हुए हैं। इन आंदोलनों ने भारत की न्याय व्यवस्था, सामाजिक संरचना और कानूनी प्रावधानों को चुनौती दी है।
#MeToo आंदोलन – उत्पत्ति और भारतीय संदर्भ
#MeToo आंदोलन की शुरुआत 2006 में अमेरिका की तराना बर्के द्वारा की गई थी, लेकिन यह 2017 में वायरल हुआ जब अभिनेत्री एलिसा मिलानो ने सोशल मीडिया पर इसके तहत अपने अनुभव साझा किए। भारत में यह 2018 में अभिनेत्री तनुश्री दत्ता द्वारा नाना पाटेकर पर लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोप के बाद उभरा। इसके बाद कई पत्रकारों, लेखकों और राजनेताओं पर आरोप लगे जैसे – एमजे अकबर, आलोक नाथ, विकास बहल। यह आंदोलन मुख्यतः शहरी, पढ़ी-लिखी महिलाओं द्वारा सोशल मीडिया के माध्यम से चलाया गया।
HeToo आंदोलन – प्रतिक्रिया और महत्व
HeToo आंदोलन #MeToo की प्रतिक्रिया में उभरा, जिसमें कई पुरुषों ने यह कहा कि उन पर झूठे यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए जा रहे हैं, जिससे उनके आत्म-सम्मान, करियर, मानसिक स्वास्थ्य और कभी-कभी जीवन पर गंभीर प्रभाव पड़ा। भारत में कई धारा 498A (दहेज कानून), POSH या IPC 354 के दुरुपयोग के मामले सामने आए हैं। यह आंदोलन अभी एक व्यापक सामाजिक आंदोलन के रूप में विकसित नहीं हुआ है, लेकिन यह न्यायिक और कानूनी सुधारों की मांग के साथ महत्वपूर्ण हो गया है।
कानूनी परिप्रेक्ष्य
भारत में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न (निवारण, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 (POSH Act) #MeToo की कानूनी नींव है। साथ ही, IPC की धारा 354, 509, और विशाखा गाइडलाइंस (1997) जैसे निर्णयों ने महिलाओं को कानूनी सुरक्षा प्रदान की है। HeToo आंदोलन की ओर से मांग की जाती है कि इन कानूनों को लिंग-निरपेक्ष बनाया जाए, और झूठे आरोपों की स्थिति में सख्त दंड दिए जाएँ। इसके अलावा, पुरुषों के लिए mental health helplines और काउंसलिंग की भी आवश्यकता महसूस की जा रही है।
सामाजिक प्रभाव और बहसें
#MeToo आंदोलन ने समाज में महिलाओं के प्रति व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच, शक्ति-संबंध, और चुप्पी की संस्कृति को चुनौती दी। लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह आंदोलन मुख्यतः शहरी, उच्च-वर्गीय महिलाओं तक सीमित रहा, जबकि ग्रामीण, दलित, और आदिवासी महिलाओं की आवाज़ इसमें शामिल नहीं हो सकी। HeToo आंदोलन ने सवाल उठाया कि क्या लैंगिक न्याय केवल महिलाओं के लिए है, या पुरुषों के अधिकार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। यह बहस सामाजिक रूप से अत्यंत संवेदनशील हो गई है।
मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका
इन दोनों आंदोलनों की सफलता में सोशल मीडिया की भूमिका बहुत अहम रही। Twitter, Facebook जैसे प्लेटफार्म ने पीड़ितों को बिना मध्यस्थता के अपनी बात रखने का अवसर दिया। हालाँकि, इससे एक खतरा भी उत्पन्न हुआ – सोशल मीडिया ट्रायल, जिसमें आरोपी को कानूनी प्रक्रिया से पहले ही दोषी मान लिया जाता है। इससे न्याय का सिद्धांत – innocent until proven guilty – खतरे में पड़ सकता है।
राजनीतिक और संस्थागत प्रतिक्रियाएँ
#MeToo आंदोलन के बाद कई राजनीतिक दलों, कॉर्पोरेट संस्थाओं और मीडिया हाउस ने इंटरनल कमिटी (ICC) गठित की, POSH एक्ट के अनुपालन को लेकर सजग हुए। केंद्रीय मंत्री एमजे अकबर को इस्तीफा देना पड़ा। हालांकि, HeToo पर सरकार या संस्थाओं की प्रतिक्रिया अपेक्षाकृत धीमी रही है, जिससे इस आंदोलन के समर्थक राजनीतिक उदासीनता का आरोप लगाते हैं।
संविधानिक दृष्टिकोण
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (लिंग के आधार पर भेदभाव का निषेध), और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार), इन दोनों आंदोलनों की मूल भावना को प्रतिबिंबित करता है। जहां #MeToo अनुच्छेद 15 और 21 के तहत महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करता है, वहीं HeToo अनुच्छेद 14 के आधार पर समान संरक्षण की मांग करता है।
चुनौतियाँ
आंदोलनों की सबसे बड़ी चुनौती है संतुलन बनाना – न तो पीड़ित की चुप्पी को नज़रअंदाज़ करना, और न ही किसी निर्दोष व्यक्ति को गलत तरीके से दंडित करना। भारत को एक ऐसे लिंग-न्यायपूर्ण समाज की ओर बढ़ना होगा जहाँ कानून, समाज, राजनीति और मीडिया सभी पक्ष संतुलन, पारदर्शिता और संवेदनशीलता के साथ काम करें।
#MeToo और HeToo दोनों आंदोलन समाज के दो पहलुओं को सामने लाते हैं — उत्पीड़न और अन्याय। जहाँ एक ओर #MeToo ने वर्षों से दबाए गए दर्द को उजागर किया, वहीं HeToo ने झूठे आरोपों के दुष्परिणामों को उजागर किया। इन दोनों आंदोलनों का लक्ष्य है — समानता, न्याय और गरिमा की स्थापना। एक संवेदनशील, न्यायपूर्ण और लिंग-निरपेक्ष दृष्टिकोण ही इन दोनों के बीच उचित संतुलन बना सकता है।
MeToo vs HeToo: एक तुलनात्मक सारणी
| पैरामीटर | #MeToo आंदोलन | HeToo आंदोलन |
|---|---|---|
| उत्पत्ति | 2006 (USA), भारत में 2018 | प्रतिक्रिया स्वरूप, भारत में अनौपचारिक रूप से उभरा |
| मुख्य उद्देश्य | यौन उत्पीड़न के खिलाफ महिलाओं की आवाज़ | झूठे आरोपों और पुरुषों के अधिकारों की सुरक्षा |
| प्रेरक घटना (भारत) | तनुश्री दत्ता – नाना पाटेकर विवाद | #MeToo के दौरान सामने आए झूठे आरोपों के आरोप |
| प्रमुख आरोपी (भारत) | एमजे अकबर, आलोक नाथ, विकास बहल आदि | कई सामान्य नागरिक, कुछ आत्महत्याओं के मामले सामने आए |
| मुख्य माध्यम | सोशल मीडिया (Twitter, Facebook, Instagram) | सोशल मीडिया (YouTube, Twitter), ब्लॉग्स |
| कानूनी फोकस | POSH Act, IPC Sections 354, 509 | IPC की धारा 498A, झूठे आरोपों से संबंधित कानून |
| प्रमुख मांगें | न्याय, सुरक्षा, संस्थागत सुधार, यौन उत्पीड़न का निवारण | लिंग-निरपेक्ष कानून, झूठे आरोपों पर दंड |
| सामाजिक प्रभाव | महिलाओं की साहसिकता बढ़ी, संस्थानों में ICC का निर्माण | पुरुषों की मानसिक पीड़ा की पहचान शुरू हुई |
| आलोचनाएँ | शहरी महिलाओं तक सीमित, सोशल मीडिया ट्रायल | संगठित नहीं, असंवेदनशीलता का खतरा |
| संवैधानिक आधार | अनुच्छेद 15, 21 | अनुच्छेद 14, 21 |
| समाजशास्त्रीय आयाम | पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष, शक्ति-संबंधों की पुनर्व्याख्या | पुरुषत्व की पारंपरिक परिभाषाओं की पुनरावृत्ति |
| राजनीतिक/प्रशासनिक प्रतिक्रिया | कुछ मंत्रियों के इस्तीफे, ICC का गठन | सीमित प्रतिक्रिया, कोई विशेष संस्थागत ढांचा नहीं |
| मुद्दा | #MeToo दृष्टिकोण | HeToo दृष्टिकोण |
|---|---|---|
| उत्पीड़न की व्याख्या | शक्ति-संबंधों द्वारा शोषण | झूठे आरोपों और कानूनी असंतुलन के माध्यम से शोषण |
| पीड़ित की पहचान | मुख्यतः महिलाएं | मुख्यतः पुरुष |
| सुधार की दिशा | महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना | झूठे मामलों से निर्दोषों की रक्षा करना |
| कानून की स्थिति | महिलाओं के पक्ष में झुका हुआ | अधिक संतुलन की आवश्यकता |
प्रभाव क्षेत्र के आधार पर तुलना
| प्रभाव क्षेत्र | #MeToo | HeToo |
|---|---|---|
| न्यायिक प्रक्रिया पर प्रभाव | POSH कानून के कार्यान्वयन में तेजी | न्यायपालिका में झूठे मामलों पर बहस तेज़ |
| कार्यस्थल पर प्रभाव | ICC अनिवार्य हुई, रिपोर्टिंग में वृद्धि | पुरुषों में डर की भावना, रिपोर्टिंग में गिरावट |
| मीडिया कवरेज | व्यापक, विशेष रूप से मुख्यधारा मीडिया में | सीमित, स्वतंत्र मंचों तक सीमित |
| सामाजिक संरचना पर प्रभाव | महिलाओं को बोलने का मंच | पुरुषों की मनोदशा और आत्मसम्मान पर प्रभाव |
Discover more from Politics by RK: Ultimate Polity Guide for UPSC and Civil Services
Subscribe to get the latest posts sent to your email.


