यूक्रेन को यूरोपीय सुरक्षा की गारंटी के संदर्भ में हाल ही में पेरिस में हुई बैठक अत्यंत महत्वपूर्ण रही है, जिसमें यूरोप के 26 देशों ने मिलकर यूक्रेन के भविष्य हेतु सुरक्षा गारंटी प्रदान करने का संकल्प लिया है। इस बैठक ने बदलती वैश्विक राजनीति और सुरक्षा ढांचे में पश्चिमी देशों की भूमिका को नए तरीके से रेखांकित किया है।
पिछले कुछ वर्षों में यूक्रेन पर रूस के निरंतर आक्रामकता और युद्ध ने पूरी यूरोप को सुरक्षा के नए दौर में खड़ा कर दिया है। पेरिस में “Coalition of the Willing” की बैठक इसी चुनौती का उत्तर देने के प्रयास के रूप में हुई। इस बैठक में फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, इटली समेत यूरोप के 26 देशों ने घोषणा की कि वे यूक्रेन के युद्ध पश्चात सुरक्षा की गारंटी देंगे। ऐसी सुरक्षा गारंटी सैन्य, तकनीकी, प्रशिक्षण तथा आपूर्ति इत्यादि के रूप में हो सकती है, किन्तु इसका अंतिम स्वरूप सहयोगी देशों के बीच आगामी वार्ता पर निर्भर करेगा। समग्र रूप से इनमें यूक्रेन में सैन्य दलों की तैनाती, हथियारों व रक्षा तकनीक की आपूर्ति, सैनिक प्रशिक्षण और लॉजिस्टिक समर्थन शामिल हैं। यह निर्णय पेरिस समिट का केंद्रबिंदु रहा और यूरोपीय नेतृत्व ने स्पष्ट रूप से कहा कि युद्ध के पश्चात शांतिपूर्ण यूक्रेन को मजबूत सुरक्षा ढांचा उपलब्ध कराना सभी की प्राथमिकता है।
इस घोषणा के साथ ही एक बड़ा सवाल यह उठा कि इसमें अमेरिका की भूमिका किस सीमा तक होगी। वर्तमान अमेरिकी प्रशासन और पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप ने इस पहल का समर्थन तो किया है, लेकिन अमेरिका की सक्रियता सैन्य परामर्श, खुफिया सहायता एवं रक्षा सप्लाई तक सीमित बनी हुई है। अमेरिका ने स्पष्ट कर दिया है कि उसकी प्राथमिक जिम्मेदारी यूरोप को नेतृत्व और सामूहिक निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करना है, जबकि कार्यान्वयन की ज़िम्मेदारी यूरोपीय संघ और संबद्ध देशों पर ही रहेगी। यह रुख ऐसे समय में आया है जब नाटो की भूमिकाओं और दायित्वों पर भी बहस हो रही है। अमेरिका की तरफ़ से स्पष्ट किया गया है कि यूक्रेन की सुरक्षा गारंटी देने की ज़िम्मेदारी मुख्यतः यूरोपीय देशों की है, जबकि अमेरिका केवल रणनीतिक और तकनीकी समर्थन देने को तैयार है।
यूरोपीय सुरक्षा की यह गारंटी नाटो के सुरक्षा प्रतिज्ञाओं से एक विशेष भिन्नता प्रस्तुत करती है। यद्यपि नाटो भी एक सामूहिक रक्षा संगठन है, परंतु नाटो की धारा-5 के अंतर्गत सदस्य देशों के विरुद्ध किसी भी हमले को सभी देशों पर हमला माना जाता है। यहाँ जो नई अवधारणा सामने आई है, उसमें सदस्यता के बजाए साझेदारी और गारंटी देने वाले देशों की प्रतिबद्धता पर बल है। अर्थात, नाटो की सदस्यता नहीं दी जा रही, बल्कि विशिष्ट सुरक्षा प्रबंधन की बात हो रही है। इसके अतिरिक्त, नाटो की निर्णय प्रक्रिया अपने आप में जटिल और बहुपक्षीय है, वहीं यूरोपीय सुरक्षा गारंटी की इस योजना में सहयोगी देश अपनी-अपनी क्षमता और इच्छा के अनुसार सहायता और संसाधन उपलब्ध कराएंगे। इससे एक लचीलापन और विविधता आती है जो नाटो के कठोरता से भिन्न है।
रूस की प्रतिक्रिया अपेक्षाकृत आक्रामक और विरोधपूर्ण रही है। रूसी सरकार ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि यूक्रेन में विदेशी सैनिकों की तैनाती या किसी तरह की सैन्य सहायता को वह अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानेगी और इन सैनिकों को “वैध लक्ष्य” करार देगी। यही कारण है कि रूस ने इस पहल का विरोध करते हुए पश्चिमी देशों को सतर्क करते हुए कहा है कि इससे युद्ध का स्वरूप बदल सकता है और वार्ता के लिए कठिनाई पैदा हो सकती है। रूस का तर्क रहा है कि किसी भी प्रकार की सुरक्षा गारंटी केवल राजनयिक स्तर पर ही संभव है, सैन्य तैनाती से शांति की संभावना कम हो जाती है। यह स्थिति अंतर्राष्ट्रीय कानून और सुरक्षा की बहस को एक नई दिशा देती है।
यूरोपीय सुरक्षा गारंटी की अवधारणा के आलोचनात्मक मूल्यांकन की आवश्यकता भी है। सबसे पहली चुनौती है,क्या सहयोगी देशों द्वारा दी गई सुरक्षा गारंटी व्यावहारिक स्तर पर लागू हो पाएगी? विभिन्न देशों की राजनीतिक इच्छाशक्ति, संसाधन की उपलब्धता, आंतरिक राजनीतिक दबाव और वैश्विक समीकरण इस पहल की सफलता को प्रभावित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ देश सिर्फ वित्तीय सहायता देना चाहते हैं जबकि कुछ इच्छुक हैं सैनिक भेजने या प्रशिक्षण मुहैया कराने के लिए। इस विविधता के कारण सुरक्षा गारंटी की विश्वसनीयता और प्रभावशीलता पर प्रश्नचिह्न बने रह सकते हैं। दूसरा मुद्दा है— क्या यह पहल नाटो जैसी पारंपरिक सुरक्षा संधियों की आवश्यकता को कम कर देगी या उनमें संवर्द्धन करेगी? आलोचक यह भी सवाल उठा रहे हैं कि क्या यूरोपीय देशों के पास पर्याप्त सैन्य ताकत और राजनीतिक इच्छाशक्ति है जो रूस जैसी महाशक्ति के सामने टिक सके। तीसरा प्रश्न है— इस प्रणाली से यूक्रेन की जमीनी सुरक्षा कितनी सुनिश्चित हो सकेगी क्योंकि रूस की सीधी प्रतिक्रिया को नजरन्दाज नहीं किया जा सकता।
इस पहल की दूसरी बड़ी आलोचना इसकी दीर्घकालिकता से जुड़ी है— क्या यह सिर्फ वर्तमान युद्ध के संदर्भ तक सीमित है या युद्ध की समाप्ति के बाद भी लंबे समय तक यह सुरक्षा गारंटी चलती रहेगी? यूरोपीय देश आर्थिक संकट, घरेलू राजनीति और अन्य अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण कहीं इस गारंटी से पीछे न हट जाएं, इसका भी खतरा बना रहता है। ग्राह्य यह भी रहेगा कि यूक्रेन स्वयं कितनी हद तक इस गारंटी को लागू करने योग्य बना पाएगा— यथा राजनीतिक स्थिरता, सुरक्षा ढांचे का निर्माण, भ्रष्टाचार नियंत्रण आदि।
आगे की राह चुनौतियों से भरी हुई है। पेरिस शिखर बैठक के बाद यह जरूरी होगा कि सहयोगी देशों के बीच स्पष्ट समझौता-पत्र बनें, जिसमें किस देश की भूमिका, समयावधि और संसाधन का वितरण सुनिश्चित किया जाए। यूक्रेन को अपनी राजनीतिक और सैन्य क्षमता को सशक्त करना पड़ेगा ताकि वह दी गई सुरक्षा की गारंटी का प्रभावी क्रियान्वयन कर सके। पश्चिमी देशों को राजनयिक स्तर पर रूस से बातचीत के चैनल खुले रखने होंगे ताकि संभावित संघर्ष की जमीन को घटाया जा सके। लंबी अवधि के लिए यह भी आवश्यक होगा कि यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र जैसे संस्थान इस पूरे सुरक्षा ढांचे के निगरानीकर्ता रहें और पारदर्शिता, जवाबदेही एवं धीरे-धीरे स्थानीय सुरक्षा संस्थानों को सक्षम बनाएं। यह सब केवल वचनों और घोषणाओं तक सीमित न रहे, इसके लिए सार्वभौमिक कार्य-योजना बननी चाहिए जिसमें सभी भागीदार देशों का स्पष्ट दायित्व हो।
आखिर में, यूरोपीय सुरक्षा गारंटी की मौज़ूदा योजना यूक्रेन को सुरक्षा देने का एक विश्वासपूर्ण कदम है, लेकिन इसकी सफलता तब ही संभव है जब सभी सहयोगी देश अपने वचनों को क्रियान्वित करने की क्षमता और इच्छाशक्ति रखते हों, यूक्रेन आंतरिक और बाह्य सुरक्षा ढांचा विकसित करे, रूस के साथ राजनयिक संवाद जारी रहे तथा वैश्विक संस्थानों की निगरानी और संयुक्त प्रयास से इस व्यवस्था को पारदर्शी और मजबूत बनाया जाए। जलवायु, ऊर्जा, आर्थिक संकट और तकनीकी सुरक्षा जैसी अन्य समकालीन चुनौतियाँ भी इस पूरे परिदृश्य को प्रभावित करेंगी। ऐसे में यह पहल केवल यूक्रेन की सुरक्षा नहीं, बल्कि यूरोप और विश्व के स्थायित्व एवं संतुलित संबंधों की नींव रख सकती है— बशर्ते इसका क्रियान्वयन निष्पक्ष, जवाबदेह और दीर्घकालिक सोच के साथ हो।
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