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राजनीति का क्षेत्रीयकरण/(Regionalization of Politics)

क्षेत्रीयकरण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, भारतीय संघवाद और क्षेत्रीय पहचान

भारत जैसे विशाल, विविधतापूर्ण और बहुभाषी देश में राजनीति का चरित्र सदैव बहुआयामी रहा है। भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशेषता इसकी विविधता में एकता (Unity in Diversity) है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय राजनीति का प्रारंभिक दौर राष्ट्रीय मुद्दों स्वाधीनता, संविधान निर्माण, राष्ट्रनिर्माण और आर्थिक विकास पर केंद्रित था। किंतु समय के साथ-साथ, विशेष रूप से 1960 के दशक के बाद, भारत की राजनीति में क्षेत्रीयता (Regionalism) एक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति के रूप में उभरकर सामने आई।

क्षेत्रीयता से आशय है: किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र, भाषा, संस्कृति, या आर्थिक हितों से जुड़ी राजनीतिक चेतना, जो केंद्र या अन्य राज्यों से अलग पहचान की मांग करती है। इस प्रकार, भारतीय राजनीति का क्षेत्रीयकरण उस प्रक्रिया को व्यक्त करता है जिसके अंतर्गत क्षेत्रीय हित, पहचान और स्थानीय नेतृत्व राष्ट्रीय राजनीति के समानांतर सशक्त होकर उभरे।

क्षेत्रीयकरण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

  • भारत के राजनीतिक क्षेत्रीयकरण की जड़ें औपनिवेशिक काल तक फैली हुई हैं। ब्रिटिश शासन ने प्रशासनिक सुविधा के लिए भारत को प्रांतों में बाँट दिया, जिनकी सीमाएँ भाषाई या सांस्कृतिक आधार पर नहीं, बल्कि राजनीतिक और आर्थिक हितों पर आधारित थीं।
  • स्वतंत्रता के बाद, जब संविधान निर्माताओं ने भारतीय संघ की रचना की, तब उन्होंने एक संघीय ढाँचा (Federal Structure) अपनाया जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन किया गया। फिर भी, प्रारंभिक वर्षों में कांग्रेस पार्टी की सर्वव्यापकता और केंद्र की मजबूत भूमिका के कारण क्षेत्रीय राजनीति को सीमित स्थान मिला।
  • 1950 और 1960 के दशकों में जब राज्य पुनर्गठन आयोग (States Reorganization Commission, 1955) के सुझावों के आधार पर भाषाई राज्यों का गठन हुआ, तब क्षेत्रीय पहचानों को वैधानिक मान्यता मिली। यह क्षेत्रीय चेतना के राजनीतिकरण की दिशा में पहला निर्णायक कदम था।

राज्य पुनर्गठन और क्षेत्रीय आंदोलनों का उदय

राज्य पुनर्गठन के बाद कई क्षेत्रों में नई क्षेत्रीय अस्मिताओं ने जन्म लिया। 1956 में आंध्र प्रदेश का गठन भाषाई आधार पर हुआ, जिससे तेलुगु भाषा बोलने वालों को एक अलग पहचान मिली। इस घटना ने तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, असम और पंजाब जैसे राज्यों में भी क्षेत्रीय आंदोलनों को प्रेरित किया।

  • महाराष्ट्र-गुजरात विभाजन (1960)
  • पंजाब में पंजाबी-सुभा आंदोलन (1966)
  • असम आंदोलन (1979-85)
  • झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ के लिए आंदोलन (1990 के दशक में)
    इन सभी आंदोलनों का मूल कारण था क्षेत्रीय असमानता, सांस्कृतिक पहचान, भाषा और स्थानीय संसाधनों पर नियंत्रण की मांग।

आयोग और समितियाँ

  • राज्य पुनर्गठन आयोग (1953-55) ने यह स्वीकार किया कि भारत की विविधता को एकता के साथ जोड़ने का सर्वोत्तम तरीका यही है कि राज्यों का गठन भाषाई और सांस्कृतिक समानता के आधार पर हो।
  • बाद में श्रीकृष्ण आयोग (2010) ने तेलंगाना राज्य के गठन पर विचार करते हुए यह कहा कि भारत में क्षेत्रीय असंतोष को लोकतांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से सुलझाना चाहिए।
  • इसी प्रकार, सरकारिया आयोग (1983) और पंची आयोग (2007) ने केंद्र-राज्य संबंधों में संतुलन बनाए रखने और क्षेत्रीय आकांक्षाओं को समायोजित करने की आवश्यकता पर बल दिया।

क्षेत्रवाद के प्रकार और कारण

भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद को कई रूपों में देखा गया है:

  1. भाषाई क्षेत्रवाद – जैसे मराठी, गुजराती, तेलुगु, तमिल और पंजाबी पहचान पर आधारित आंदोलन।
  2. सांस्कृतिक क्षेत्रवाद – जैसे उत्तर-पूर्व भारत में जनजातीय संस्कृति और पहचान की रक्षा के लिए आंदोलन।
  3. आर्थिक क्षेत्रवाद – जैसे झारखंड, विदर्भ, और बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों में विकास की असमानता के कारण आंदोलन।
  4. राजनीतिक क्षेत्रवाद – जहाँ स्थानीय नेतृत्व केंद्र के विरुद्ध अपनी राजनीतिक शक्ति स्थापित करना चाहता है।

मुख्य कारण:

  • असमान आर्थिक विकास
  • राजनीतिक सत्ता का केंद्रीकरण
  • भाषा और संस्कृति की उपेक्षा
  • स्थानीय संसाधनों पर बाहरी नियंत्रण
  • क्षेत्रीय असंतुलन और बेरोजगारी

भारतीय संघवाद और क्षेत्रीय पहचान

भारतीय संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयास किया गया है। अनुच्छेद 1 के अनुसार ‘भारत राज्यों का संघ होगा।’

  • फिर भी व्यावहारिक रूप में केंद्र की शक्तियाँ अधिक रही हैं, आपातकालीन प्रावधान (अनुच्छेद 352–360) और अनुच्छेद 356 जैसे उपाय केंद्र को राज्यों पर नियंत्रण का अधिकार देते हैं।

इसी असंतुलन के कारण क्षेत्रीय नेतृत्व को अपनी आवाज़ बुलंद करने की आवश्यकता महसूस हुई।
1950 के दशक के बाद अनेक क्षेत्रीय दल उभरे:-

  • द्रविड़ मुनेत्र कषगम (DMK) – तमिलनाडु
  • शिवसेना – महाराष्ट्र
  • तेलुगु देशम पार्टी (TDP) – आंध्र प्रदेश
  • असम गण परिषद (AGP) – असम
  • अकाली दल – पंजाब
  • त्रिणमूल कांग्रेस – पश्चिम बंगाल

इन दलों ने केंद्र की नीतियों को चुनौती देते हुए अपने-अपने क्षेत्रों के हितों को राष्ट्रीय एजेंडा का हिस्सा बनाया।

क्षेत्रीय असमानताएँ और नए राज्यों की माँग

भारत में क्षेत्रीय असमानताओं का प्रश्न राजनीतिक विमर्श का केंद्र बना रहा है।

  • उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच विकास की असमानताएँ
  • औद्योगिक और कृषि क्षेत्रों के बीच असंतुलन
  • पूर्वोत्तर राज्यों की सीमांत स्थिति और अलगाव
    इन्हीं असमानताओं के परिणामस्वरूप झारखंड (2000), उत्तराखंड (2000), छत्तीसगढ़ (2000) और तेलंगाना (2014) जैसे नए राज्यों का गठन हुआ।
    इन राज्यों का निर्माण संघीय ढाँचे को और अधिक लचीला बनाने की दिशा में एक कदम था।

राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से राज्यों की भूमिका

भारतीय राज्यों ने लोकतंत्र के विकास में विशिष्ट भूमिका निभाई है। राज्य सरकारें न केवल क्षेत्रीय विकास योजनाएँ बनाती हैं, बल्कि राष्ट्रीय नीतियों के क्रियान्वयन में भी सहयोग देती हैं।

  • वित्त आयोग, निति आयोग और अनुदान प्रणाली (Grant-in-aid) के माध्यम से केंद्र-राज्य सहयोग की भावना को बल मिला है।
  • आर्थिक उदारीकरण (1991) के बाद राज्यों को विदेशी निवेश आकर्षित करने और अपनी नीतियाँ बनाने की अधिक स्वतंत्रता मिली। इससे प्रतिस्पर्धी संघवाद (Competitive Federalism) की अवधारणा उभरी, जहाँ राज्य विकास की गति बढ़ाने में परस्पर प्रतिस्पर्धा करते हैं।

समकालीन चुनौतियाँ और क्षेत्रीयकरण

21वीं सदी में क्षेत्रीयकरण का स्वरूप अधिक जटिल और बहुआयामी हो गया है।
आज क्षेत्रीय राजनीति केवल भाषा या संस्कृति पर आधारित नहीं रही, बल्कि विकास, पर्यावरण, संसाधन-साझेदारी, रोजगार, और पहचान की राजनीति से भी जुड़ गई है।

  • महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण आंदोलन
  • पश्चिम बंगाल में गोर्खालैंड की माँग
  • असम में बांग्लादेशी प्रवासियों का प्रश्न
  • जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति (अनुच्छेद 370 का हटना, 2019)
    इन सभी घटनाओं ने यह दिखाया कि क्षेत्रीयता अब केवल अलगाव की भावना नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक सहभागिता का माध्यम भी बन गई है।

क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय राजनीति में प्रभाव

1989 के बाद भारत में गठबंधन युग (Era of Coalition Politics) की शुरुआत हुई।
क्षेत्रीय दल अब केवल अपने राज्यों तक सीमित नहीं रहे, बल्कि केंद्र की सरकार के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाने लगे।
जैसे:-

  • जनता दल (संयुक्त), शिवसेना, तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल, द्रमुक, अन्नाद्रमुक आदि ने कई बार केंद्रीय सरकारों का हिस्सा बनकर नीतिगत निर्णयों को प्रभावित किया।
    इस प्रकार, क्षेत्रीय दलों ने भारतीय राजनीति में बहु-दलीय लोकतंत्र को मजबूत किया और शासन में सहभागिता का नया मॉडल प्रस्तुत किया।

क्षेत्रीयकरण और राष्ट्रीय एकता

क्षेत्रीयकरण को अनेक बार राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा माना गया, किंतु वस्तुतः यह भारतीय लोकतंत्र की जीवंतता का संकेत है।

  • संविधान के संघीय ढाँचे ने क्षेत्रीय असंतोष को हिंसक रूप लेने से रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • राज्य पुनर्गठन, पंचायती राज, स्थानीय स्वशासन, वित्तीय विकेंद्रीकरण और सांस्कृतिक स्वायत्तता जैसे उपायों ने क्षेत्रीय आकांक्षाओं को संस्थागत रूप दिया।
    इससे यह सुनिश्चित हुआ कि क्षेत्रीय पहचानें राष्ट्र की एकता के विपरीत न जाकर उसके भीतर समाहित रहें।

निष्कर्ष

भारत की राजनीति का क्षेत्रीयकरण एक स्वाभाविक ऐतिहासिक और सामाजिक प्रक्रिया है। यह विविधता के भीतर लोकतंत्र की मजबूती को दर्शाता है। क्षेत्रीय दलों और आंदोलनों ने जहाँ एक ओर केंद्र के एकाधिकार को चुनौती दी, वहीं दूसरी ओर उन्होंने लोकतांत्रिक बहुलतावाद (Pluralism) को सशक्त किया।
आज भारत में क्षेत्रीयकरण राष्ट्रीय एकता का पूरक बन चुका है, न कि विरोधी तत्व। राज्यीय अस्मिता, स्थानीय विकास और जनसरोकारों की अभिव्यक्ति के रूप में यह भारतीय राजनीति को अधिक उत्तरदायी, सहभागितामूलक और संवेदनशील बना रहा है।

 


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