कैथरीन मैकिनॉन का कथन “State is male in the feminist sense” नारीवादी राजनीति और राज्य के अध्ययन में एक गहन और चुनौतीपूर्ण अवधारणा है। इस कथन के माध्यम से मैकिनॉन यह स्पष्ट करना चाहती हैं कि राज्य केवल सत्ता की एक तटस्थ और कार्यकारी संस्था नहीं है, बल्कि उसकी संरचना, उसके निर्णयों और उसके सत्तात्मक संबंधों में पुरुषप्रधानता गहरे तक समाई हुई है। यह कथन राज्य के लैंगिक पक्ष को उजागर करता है, जिसमें राज्य की नीतियां, कानून, प्रशासनिक व्यवस्थाएं और न्यायिक प्रक्रियाएं पुरुषों के हितों, अनुभवों और दृष्टिकोण को प्राथमिकता देती हैं और महिलाओं के अनुभवों और समस्याओं को कमतर आंकती हैं।
कैथरीन मैकिनॉन का यह मत है कि राज्य का हर वह कार्य जो सामाजिक नियंत्रण और शक्ति प्रबंधन से जुड़ा है, वह पुरुषों के द्वारा संबंधित पितृसत्तात्मक सांस्कृतिक संदर्भ में संचालित होता है। इसका अर्थ यह नहीं कि राज्य में केवल पुरुष ही सत्ता में हैं, बल्कि इसका तात्पर्य है कि राज्य की पूरी संरचना पुरुषवादी धारणाओं और मान्यताओं पर टिकी हुई है। इस नजरिए से, कानूनी नियम और व्यवस्था भी स्त्रियों और पुरुषों के बीच भेदभाव को अहमियत देकर बनाए और लागू किए जाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि सामाजिक तौर पर पुरुषों के अनुभव और इच्छाएं ही सामान्य और वैध मानी जाती हैं, जबकि महिलाओं की वास्तविकताएं अक्सर नजरंदाज कर दी जाती हैं।
राज्य की पुरुषप्रधान संरचना की यह स्थिति विभिन्न उदाहरणों से स्पष्ट होती है। जैसे कि न्यायिक मामलों में बलात्कार या यौन उत्पीड़न की घटनाओं में न्याय व्यवस्था का रवैया अक्सर पुरुषों के मानकों और सोच के आधार पर तय होता है। सहमति और अंतरंगता जैसे विषयों पर निर्णय इस संदर्भ में दिए जाते हैं, जो महिलाओं की पीड़ा और अनुभव को न्यायसंगत तरीके से परखने में असमर्थ हो सकते हैं। इसके अलावा, संसद, पुलिस, सैन्य, प्रशासनिक सेवाओं और न्यायालयों में महिलाओं की भागीदारी काफी कम होती है, जिससे महिलाओं की समस्याओं का उचित प्रतिनिधित्व और समाधान संभव नहीं हो पाता।
मैकिनॉन का राज्य पुरुषवादी है, इस बात का सार यह है कि राज्य परियोजनाएँ और उसकी क्रियाएँ पितृसत्तात्मक संरचनाओं को बनाए रखने और पुष्ट करने का काम करती हैं। इस पितृसत्ता में पुरुषों का दबदबा अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक रूपों में निहित रहता है, और राज्य इसे संरक्षित करने वाला तंत्र बन जाता है। यही कारण है कि महिलाओं को कानूनों या नीतियों के लिए लड़ना पड़ता है, क्योंकि वे अपने हितों के लिए साथ-साथ सामाजिक ढांचों का भी पराक्रम करना पड़ता है जो लंबे समय से पुरुष केन्द्रित रहे हैं।
यह विचार यह भी बताता है कि ‘न्याय’ का वह मानक जो राज्य निर्धारित करता है, वह तटस्थ और निष्पक्ष नहीं होता बल्कि लैंगिक भेदभाव का एक रूप होता है। मनोवैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण से राज्य की यह व्यवस्था महिलाओं को समता के अवसर देने के बजाय उन्हें सामाजिक और कानूनी रूप से दबाए रखती है। इसलिए, मैकिनॉन ने इस बात पर जोर दिया कि महिलाओं के अधिकारों और अनुभवों को न्यायपालिका, प्रशासन और कानून में प्राथमिकता देनी होगी।
नारीवादी सिद्धांत के विभिन्न वर्गों में इस अवधारणा का स्वागत और आलोचना दोनों हुई है। उदारवादी नारीवादी इस बात का समर्थन करते हैं कि राज्य तटस्थ है और उसे सुधार के जरिए महिलाओं के लिए समान अधिकार देने चाहिए। वे कानूनी सुधार, सकारात्मक भेदभाव और प्रतिनिधित्व के माध्यम से महिलाओं को राज्य की मुख्यधारा में लाने का पक्ष रखते हैं। वहीं, कट्टरपंथी नारीवादी और समाजवादी नारीवादी इस कथन को और भी गंभीर मानते हैं, जहां वे मानते हैं कि राज्य की संरचना ऐसे नैतिक, सामाजिक और आर्थिक तत्वों को मजबूती से जोड़े हुए है जो स्वाभाविक रूप से पितृसत्तात्मक हैं। उनके अनुसार केवल कानूनी बदलाव ही पर्याप्त नहीं, बल्कि राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी व्यापक बदलाव आवश्यक हैं।
भारत के संदर्भ में भी यह कथन अत्यंत प्रासंगिक और सत्य प्रतीत होता है। भारतीय संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अब तक काफी कम रहा है, महिला आरक्षण कानून तो बन गया लेकिन अभी इसे लागू होने में लंबा समय है। न्यायपालिका और प्रशासन में पुरुषों का दबदबा बरकरार है। महिलाएं चाहे सामाजिक सुरक्षा, समान वेतन, घरेलू हिंसा, यौन हिंसा आदि मामलों में अपना अधिकार पाने के लिए संघर्ष कर रही हैं, परन्तु राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था और कानून व्यवस्था अक्सर उनके हितों को पूरी तरह से संरक्षण नहीं दे पाती। यह सब दर्शाता है कि भारतीय राज्य व्यवस्था अभी भी पुरुषप्रधान स्थिति से मुक्त नहीं हुई है।
इसके अतिरिक्त, भारतीय समाज की गहराई में फैली सामाजिक संरचनाएं, धर्म, जाति, परिवार और सांस्कृतिक रूढ़ियां भी इस पुरुषप्रधानता को बनाए रखने में सहायक हैं। राज्य की भूमिका इस संदर्भ में इसलिए जटिल हो जाती है क्योंकि उसे केवल कानून की भाषा में ही नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवहार और संस्कृति में बदलाव लाना पड़ता है। इसमें महिलाओं की सक्रिय भागीदारी और उनकी आवाज़ को शक्ति देना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
कैथरीन मैकिनॉन के इस कथन की क्रांतिकारी भूमिका इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह न केवल एक आलोचना प्रस्तुत करता है, बल्कि एक बदलती हुई सामाजिक वास्तविकता की चेतना भी जगाता है, जिसे लेकर समाज और राज्य को अपने गंभीर परिवर्तन की आवश्यकता को समझना होगा। महिलाओं की राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी समानता तभी संभव है जब राज्य की मूलभूत संरचना में लैंगिक संवेदनशीलता समाहित हो और वह पुरुषप्रधानता के निरंतर प्रभाव से मुक्त हो।
इस बदलाव की शुरुआत संवाद, शिक्षा, संवैधानिक संशोधन और सामाजिक जागरूकता से हो सकती है। महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को मजबूत करना, न्यायिक प्रणाली में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ाना, महिलाओं के अधिकारों के प्रति संवेदनशील नीतियाँ बनाना और उनका प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित करना अभी की मांग है। इस तरह से समाज एक न्यायसंगत, समावेशी और समान स्तर पर विकसित हो सकता है जहां राज्य का अर्थ केवल सत्ता का केंद्र न होकर सभी नागरिकों के लिए अधिकारों का संरक्षक बन जाए।
अतः कैथरीन मैकिनॉन का “State is male in the feminist sense” यह बताता है कि राज्य और उसकी संस्थाएं पुरुष प्रधान समाज की परंपराओं और सोच का हिस्सा हैं। यह न केवल महिलाओं के लिए एक चुनौती है बल्कि समग्र सामाजिक न्याय और समता के लिए भी एक आह्वान है, जो राज्य के हर स्तर पर लैंगिक न्यायसंगतता की स्थापना के लिए जरूरी है।