in ,

राष्ट्रपति के 14 सवाल और सुप्रीम कोर्ट की सीमाएं: अनुच्छेद 143 पर संवैधानिक टकराव?

कार्यपालिका V/S न्यायपालिका

इस लेख में क्या है?

  • मुद्दा क्या है?
    • सुप्रीम कोर्ट के 2 कमेंट
    • सुप्रीम कोर्ट के 2 निर्देश
  • ऐतिहासिक स्रोत
  • महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मामले
  • राष्ट्रपति के सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल
  • अनुच्छेद 143 क्या है?
  • अनुच्छेद 143 के तहत संदर्भित प्रश्नों के प्रकार
  • अनुच्छेद 143(2): पूर्व-संवैधानिक दस्तावेजों से जुड़े विवाद
  • अनुच्छेद 143 के तहत सलाह की प्रकृति
  • राष्ट्रपति के अनुच्छेद 143 के अधिकार एवं संवैधानिक प्रावधान
  • राष्ट्रपति संदर्भ की सीमाएँ: न्यायिक निर्णयों को पलटने का साधन नहीं
  • सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्णयों की पुनर्समीक्षा पर प्रतिबंध
  • सरकार के लिए वैकल्पिक संवैधानिक उपाय
  • राष्ट्रपति का संदर्भ 8 अप्रैल के फैसले से आगे चला गया
  • विधेयक पर राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियाँ?
  • पक्ष और विपक्ष में तर्क

मुद्दा क्या है?

राष्‍ट्रपति और राज्‍यपालों को विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने की समय-सीमा तय करने के निर्णय पर राष्ट्रपति ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 143 का प्रयोग करते हुए 14 संवैधानिक प्रश्नों को परामर्शात्मक राय हेतु  सर्वोच्च न्यायालय को भेजा है। राष्‍ट्रपति ने इस फैसले को संवैधानिक मूल्‍यों और व्‍यवस्‍थाओं के विपरीत होने के साथ-साथ संवैधानिक सीमाओं का ‘अतिक्रमण’ कहा है। राष्‍ट्रपति मुर्मू ने अब संविधान के अनुच्‍छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 संवैधानिक प्रश्‍नों पर सुप्रीम कोर्ट  की राय मांगी है।

  • यह मामला तब बढ़ा जब सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को एक ऐतिहासिक फैसले में राज्यपालों के अधिकार की ‘सीमा’ तय कर दी थी। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने तमिलनाडु के मामले में फैसला सुनाते हुए कहा, ‘राज्यपाल के पास कोई वीटो पॉवर नहीं है। 

सुप्रीम कोर्ट के 2 कमेंट

  1. जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने कहा कि राज्यपाल द्वारा इन 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजना अवैध और मनमाना है। यह कार्रवाई रद्द की जाती है। राज्यपाल की यह सभी कार्रवाई अमान्य है।
  2. इन बिलों को उसी दिन से मंजूर माना जाएगा, जिस दिन विधानसभा ने बिलों को पास करके दोबारा राज्यपाल को भेजा गया था।

सुप्रीम कोर्ट के 2 निर्देश

  1. सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल को निर्देश दिया कि उन्हें अपने विकल्पों का इस्तेमाल तय समय-सीमा में करना होगा, वरना उनके उठाए गए कदमों की कानूनी समीक्षा की जाएगी।
  2. कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल बिल रोकें या राष्ट्रपति के पास भेजें, उन्हें यह काम मंत्रिपरिषद की सलाह से एक महीने के अंदर करना होगा। विधानसभा बिल को दोबारा पास कर भेजती है, तो राज्यपाल को एक महीने के अंदर मंजूरी देनी होगी।

कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि वह राज्यपाल की शक्तियों को कमजोर नहीं कर रहा, लेकिन राज्यपाल की सारी कार्रवाई संसदीय लोकतंत्र के सिद्धांतों के अनुसार होनी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट, “राज्यपाल को एक दोस्त, दार्शनिक और राह दिखाने वाले की तरह होना चाहिए। आप संविधान की शपथ लेते हैं। आपको किसी राजनीतिक दल की तरफ से संचालित नहीं होना चाहिए। आपको उत्प्रेरक बनना चाहिए, अवरोधक नहीं। राज्यपाल को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कोई बाधा पैदा न हो”।

ऐतिहासिक स्रोत

  • राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट से सवाल पूछने का प्रावधान भारत सरकार अधिनियम, 1935 से प्रेरित है, जहाँ गवर्नर जनरल को इसी प्रकार संघीय न्यायालय से राय लेने की शक्ति दी गई थी।
  • कनाडा में, सुप्रीम कोर्ट को ऐसी राय देने की संवैधानिक अनुमति है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट सख्त शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के तहत ऐसी सलाह नहीं देता, वहाँ केवल वास्तविक विवादों पर ही निर्णय दिए जाते हैं।

महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मामले

अब तक राष्ट्रपति द्वारा लगभग 15 संदर्भ सुप्रीम कोर्ट को भेजे जा चुके हैं।

वर्ष

मामला

विषय

1951दिल्ली विधि अधिनियमप्रत्यायोजित विधान की वैधता
1958केरल शिक्षा विधेयकमौलिक अधिकार बनाम निर्देशक सिद्धांत
1960बेरुबारी मामलाक्षेत्रीय हस्तांतरण हेतु संशोधन की आवश्यकता
1965केशव सिंह मामलाविधायी विशेषाधिकारों की व्याख्या
1974राष्ट्रपति चुनावरिक्त विधानसभाओं में चुनाव की वैधता
1998तीसरा न्यायाधीश मामलाकॉलेजियम प्रणाली की वैधानिकता
  • वर्तमान में अनुच्छेद 200 और 201 के अंतर्गत यह बहस चल रही है कि क्या सुप्रीम कोर्ट राज्यपालों या राष्ट्रपति पर समयसीमा लागू कर सकता है, जो संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेखित नहीं है।
  • जिसके साथ ही यह सवाल भी उठता है कि क्या अनुच्छेद 142 (पूर्ण न्याय) के तहत सुप्रीम कोर्ट की शक्तियाँ सीमित या असीमित हैं।
  • कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण (1991) में स्पष्ट किया गया कि अनुच्छेद 143 का प्रयोग पूर्व निर्णयों की समीक्षा या उलटने के लिए नहीं किया जा सकता।
  • फिर भी, सरकार के पास किसी निर्णय के विरुद्ध समीक्षा याचिका या उपचारात्मक याचिका दायर करने का विकल्प खुला होता है (जैसे तमिलनाडु राज्य बनाम राज्यपाल, 2023 में देखा गया)।
  • 13 मई को केंद्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी। यह राय अनुच्छेद 200 के तहत, राज्यपाल की विधेयकों पर भूमिका से सम्बंधित है।
  • कुल 14 सवाल पूछे गये जो राज्यपाल की भूमिका, विवेकाधिकार की सीमाएं, और विधेयकों को रोके जाने की वैधता को स्पष्ट करेगा।

राष्ट्रपति के सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल  

  1. जब राज्यपाल को भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है, तो उनके सामने संवैधानिक विकल्प क्या हैं?
  2. क्या राज्यपाल भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत किसी विधेयक को प्रस्तुत किए जाने पर अपने पास उपलब्ध सभी विकल्पों का प्रयोग करते समय मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सहायता और सलाह से बाध्य है?
  3. क्या राज्यपाल द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत संवैधानिक विवेक का प्रयोग न्यायोचित है?
  4. क्या भारत के संविधान का अनुच्छेद 361 भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के कार्यों के संबंध में न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है?
  5. संवैधानिक रूप से निर्धारित समय सीमा और राज्यपाल द्वारा शक्तियों के प्रयोग के तरीके के अभाव में, क्या राज्यपाल द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत सभी शक्तियों के प्रयोग के लिए न्यायिक आदेशों के माध्यम से समयसीमाएं लगाई जा सकती हैं और प्रयोग के तरीके को निर्धारित किया जा सकता है?
  6. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक विवेक का प्रयोग न्यायोचित है?
  7. संवैधानिक रूप से निर्धारित समय-सीमा और राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों के प्रयोग के तरीके के अभाव में, क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा विवेक के प्रयोग के लिए न्यायिक आदेशों के माध्यम से समय-सीमाएँ लगाई जा सकती हैं और प्रयोग के तरीके को निर्धारित किया जा सकता है?
  8. राष्ट्रपति की शक्तियों को नियंत्रित करने वाली संवैधानिक योजना के प्रकाश में, क्या राष्ट्रपति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत संदर्भ के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय की सलाह लेने और राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति की सहमति के लिए विधेयक को सुरक्षित रखने या अन्यथा सर्वोच्च न्यायालय की राय लेने की आवश्यकता है?
  9. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के अंतर्गत राज्यपाल और राष्ट्रपति के निर्णय, कानून के लागू होने से पहले के चरण में न्यायोचित हैं? क्या न्यायालयों के लिए किसी विधेयक के कानून बनने से पहले उसकी विषय-वस्तु पर न्यायिक निर्णय लेना स्वीकार्य है?
  10. क्या संवैधानिक शक्तियों के प्रयोग और राष्ट्रपति/राज्यपाल के आदेशों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत किसी भी तरह से प्रतिस्थापित किया जा सकता है? .
  11. क्या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाया गया कानून भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल की सहमति के बिना लागू कानून है?
  12. भारत के संविधान के अनुच्छेद 145(3) के प्रावधान के मद्देनजर, क्या इस माननीय न्यायालय की किसी भी पीठ के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वह पहले यह तय करे कि उसके समक्ष कार्यवाही में शामिल प्रश्न ऐसी प्रकृति का है जिसमें संविधान की व्याख्या के रूप में कानून के महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल हैं और इसे कम से कम पांच न्यायाधीशों की पीठ को संदर्भित करे?
  13. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट की शक्तियां प्रक्रियात्मक कानून के मामलों तक सीमित हैं या भारत के संविधान का अनुच्छेद 142 ऐसे निर्देश जारी करने/आदेश पारित करने तक विस्तारित है जो संविधान या लागू कानून के मौजूदा मूल या प्रक्रियात्मक प्रावधानों के विपरीत या असंगत हैं?
  14. क्या संविधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 131 के तहत मुकदमे के माध्यम से छोड़कर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच विवादों को हल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के किसी अन्य अधिकार क्षेत्र को रोकता है?

सुप्रीम कोर्ट 18 अप्रैल को अपने फैसले में कहा था कि यदि कोई विधेयक लंबे समय तक राज्‍यपाल के पास लंबित है, तो उसे ‘मंजूरी प्राप्‍त’ माना जाए। राष्‍ट्रपति ने इस पर आपत्ति जताते हुए पूछा है कि जब देश का संविधान राष्‍ट्रपति को किसी विधेयक पर फैसले लेने का विवेकाधिकार देता है, तो फिर सुप्रीम कोर्ट इस प्रक्रिया में हस्‍तक्षेप कैसे कर सकता है।

अनुच्छेद 143 क्या है

  • अनुच्छेद 143 भारतीय संविधान में राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वह किसी ऐसे कानूनी या तथ्यात्मक प्रश्न पर, जो सार्वजनिक महत्व का हो और जिसके उठने की संभावना हो या जो पहले ही उठ चुका हो, भारत के सर्वोच्च न्यायालय से सलाह ले सकें।
    यह प्रावधान सुप्रीम कोर्ट के विशेष सलाहकार क्षेत्राधिकार को परिभाषित करता है, जो केवल राष्ट्रपति के संदर्भ में लागू होता है।

अनुच्छेद 143 के तहत संदर्भित प्रश्नों के प्रकार

अनुच्छेद 143(1): सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर राय

  • राष्ट्रपति ऐसे किसी विधिक या तथ्यात्मक प्रश्न को सर्वोच्च न्यायालय को भेज सकते हैं जो सार्वजनिक महत्व का हो और जिसकी उठने की संभावना हो या जो पहले ही उठ चुका हो।
  • इस स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय अपनी राय देने के लिए स्वतंत्र है, वह चाहे तो राय दे या मना कर सकता है।
  • उदाहरण: 1993 में, राम जन्मभूमि विवाद के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति को राय देने से इनकार कर दिया था।

अनुच्छेद 143(2): पूर्वसंवैधानिक दस्तावेजों से जुड़े विवाद

  • राष्ट्रपति को अधिकार है कि वे किसी पूर्व-संवैधानिक संधि, समझौते, वचन, सनद या अन्य दस्तावेज़ से उत्पन्न विवाद को सुप्रीम कोर्ट के पास राय हेतु भेजें।
  • इस खंड के अंतर्गत, सुप्रीम कोर्ट को राय देना आवश्यक होता है, यानी मना नहीं कर सकता।

अनुच्छेद 143 के तहत सलाह की प्रकृति

  • दोनों ही मामलों में, सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई राय केवल परामर्शात्मक (Advisory) होती है, यह न्यायिक आदेश नहीं होती।
  • इसलिए, राष्ट्रपति चाहे तो इस राय का पालन कर सकते हैं या नहीं भी कर सकते हैं।
  • फिर भी, यह व्यवस्था सरकार को किसी संवेदनशील या जटिल मामले में आधिकारिक कानूनी सलाह लेने का एक संवैधानिक मार्ग प्रदान करती है।

राष्ट्रपति के अनुच्छेद 143 के अधिकार एवं संवैधानिक प्रावधान

  • अनुच्छेद 143 राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वे केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह पर किसी कानून या तथ्य के सार्वजनिक महत्व के प्रश्न को सर्वोच्च न्यायालय की राय के लिए भेज सकते हैं।
  • यह सुप्रीम कोर्ट के सलाहकार क्षेत्राधिकार (Advisory Jurisdiction) को स्थापित करता है, जो विशेष रूप से राष्ट्रपति के लिए आरक्षित है।
  • अनुच्छेद 145(3) के अनुसार, ऐसे किसी भी संदर्भ पर विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की कम-से-कम पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ की आवश्यकता होती है।

राष्ट्रपति संदर्भ की सीमाएँ: न्यायिक निर्णयों को पलटने का साधन नहीं

  1. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्णयों की पुनर्समीक्षा पर प्रतिबंध
  • कावेरी जल विवाद (1991) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 143 का उद्देश्य पहले से दिए गए न्यायिक निर्णयों की समीक्षा या उन्हें उलटना नहीं है।
  • एक बार सुप्रीम कोर्ट किसी कानूनी मुद्दे पर निर्णय दे देता है, तो उसपर राष्ट्रपति संदर्भ के ज़रिए पुनर्विचार संभव नहीं होता।
  1. सलाहकार क्षेत्राधिकारअपील अधिकार
  • अनुच्छेद 143 के तहत दी गई सलाह परामर्शात्मक होती है, न्यायिक निर्णय नहीं।
  • इस सलाह को न अपीलीय प्रक्रिया माना जा सकता है और न ही यह न्यायिक निर्णय के विरुद्ध उपाय है।
  • न्यायालय ने दो टूक कहा है कि स्वयं के निर्णय के विरुद्ध सलाह लेना असंवैधानिक अपील के समतुल्य होगा।

सरकार के लिए वैकल्पिक संवैधानिक उपाय

  • सरकार यदि सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल 2023 के निर्णय से असहमत है, तो उसे मिलते हैं ये दो उपाय:
    1. समीक्षा याचिका (Review Petition) – निर्णय में स्पष्ट त्रुटियों को इंगित कर पुनर्विचार की माँग।
    2. उपचारात्मक याचिका (Curative Petition) – यदि न्याय की घोर विफलता सिद्ध हो, तो अंतिम उपाय।
  • ये प्रक्रिया अनुच्छेद 137 के अंतर्गत न्यायिक स्वायत्तता के अनुरूप हैं, न कि सलाहकार अधिकार के।

राष्ट्रपति का संदर्भ 8 अप्रैल के फैसले से आगे चला गया

8 अप्रैल के फैसले से आगे बढ़ते हुए, राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से जिन 14 कानूनी प्रश्नों पर स्पष्टीकरण मांगा है। इनमें प्रमुख संवैधानिक मुद्दे शामिल हैं:

  1. प्रश्न 12: क्या सुप्रीम कोर्ट को यह तय करना चाहिए कि “महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न” या “संवैधानिक व्याख्या” की ज़रूरत वाले मामलों की सुनवाई केवल बड़ी पीठ द्वारा होनी चाहिए? यह छोटी पीठों की अधिकारिता पर सवाल उठाता है।
  2. प्रश्न 13: अनुच्छेद 142 के अंतर्गत “पूर्ण न्याय” के लिए सुप्रीम कोर्ट की विवेकाधीन शक्तियों की सीमा क्या है?
  3. प्रश्न 14: अनुच्छेद 131 के तहत केंद्र-राज्य विवादों में सुप्रीम कोर्ट की आरंभिक और विशेष अधिकारिता की व्याख्या कितनी व्यापक होनी चाहिए?

यह संदर्भ न केवल पिछले निर्णय से जुड़ा है, बल्कि भारत के संवैधानिक ढांचे की बुनियादी व्याख्या पर भी प्रकाश डालता है।

विधेयक पर राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियाँ?

अनुच्छेद 200: राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने हेतु राज्यपाल के पास महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ हैं। विधेयक प्राप्त होने पर राज्यपाल निम्नलिखित में से कोई एक कार्रवाई कर सकता है:

  1. स्वीकृति प्रदान करना:राज्यपाल विधेयक को स्वीकृति दे सकते हैं, जिससे वह अधिनियम बन जाएगा।
  2. स्वीकृति रोकना:राज्यपाल के पास विधेयक पर स्वीकृति देने से इंकार करने का अधिकार है।
  3. पुनर्विचार हेतु वापसी:राज्यपाल विधेयक को आगे की समीक्षा और पुनर्विचार के लिये राज्य विधानमंडल को वापस भेज सकते हैं।
  4. राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित:कुछ मामलों में, राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिये आरक्षित कर सकते हैं, विशेषकर यदि विधेयक राष्ट्रीय महत्त्व के मामलों से संबंधित हो या वह केंद्रीय विधियों के विपरीत हों।

अनुच्छेद 201: यदि राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखता है, तो उस मामले पर अंतिम निर्णय राष्ट्रपति का होता है। राष्ट्रपति के पास यह विकल्प है:

  • स्वीकृति प्रदान करना:राष्ट्रपति विधेयक को स्वीकृति देकर उसे अधिनियम बना सकते हैं।
  • स्वीकृति रोकना:राष्ट्रपति विधेयक पर स्वीकृति रोकने के विकल्प का चयन कर सकते हैं।
  • गैर-धन विधेयकों के लिये, यदि राष्ट्रपति अपनी स्वीकृति नहीं देते हैं, तो राष्ट्रपतिराज्यपाल को विधेयक को पुनर्विचार के लिये विधानमंडल को वापस भेजने का निर्देश दे सकते हैं।
  • विधानमंडल को छह माह के भीतर कार्रवाई करनी होती है। अगर विधेयक फिर से पारित हो जाता है, तो उसे अंतिम स्वीकृति के लिये राष्ट्रपति के पास फिर से भेजा जाना आवश्यक है।

अनुच्छेद 207: राज्य के राज्यपाल की अनुशंसा के बिना विधानसभा में कोई धन विधेयक पुरःस्थापित नहीं किया जा सकता।

न्यायिक व्याख्या: रामेश्वर प्रसाद केस (2006)

  • सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल की यह शक्ति न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
  • यदि यह पाया जाए कि राज्यपाल ने मनमाने या दुर्भावनापूर्ण तरीके से स्वीकृति रोकी है, तो न्यायालय उस निर्णय को अवैध घोषित कर सकता है।

राज्यपाल से संबंधित प्रमुख समितियाँ और उनकी अनुशंसाएँ क्या हैं

समितिअनुशंसाएँ
सरकारिया आयोग (वर्ष 1988)
  • राज्यपालों को उनकी संवैधानिक भूमिका से असंबद्ध वैधानिक शक्तियाँ नहीं होनी चाहिये।
  • राज्यपालों की नियुक्ति मुख्यमंत्री से परामर्श के बाद की जानी चाहिये।
  • राज्यपालों का हाल ही में किसी राजनीतिक दल से जुड़ाव नहीं होना चाहिये।
  • विश्वविद्यालय प्रशासन में राज्यपालों की भूमिका सीमित होनी चाहिये तथा राज्यों की भूमिका अधिक होनी चाहिये।
पुंछी आयोग (वर्ष 2010)
  • राज्यपालों को विधेयकों पर एक निश्चित समय-सीमा (आरक्षित विधेयकों के लिये छह महीने की सीमा) के भीतर कार्यवाही करनी चाहिये।
  • अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) के दुरुपयोग के विरुद्ध कड़े सुरक्षा उपाय।
वेंकटचलैया आयोग (वर्ष 2002)
  • सुझाव दिया गया कि राज्यपालों की नियुक्ति एक समिति द्वारा की जानी चाहिये जिसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री शामिल हों।

 पक्ष और विपक्ष में तर्क

  • यह विवाद संविधान की व्याख्या, संघीय ढांचे की रक्षा, और न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका के बीच शक्ति संतुलन को लेकर तीव्र हो गया है।
  • राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछना, जिसमे राज्यपालों की सीमित भूमिका और देरी की आलोचना की गई थी। इस पर कुछ नेताओ का कहना है कि यह सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को कमजोर करने की कोशिश है।
  • यह संविधान के मूल ढांचे पर खतरा है।

विपक्ष में तर्क

  • अगर सुप्रीम कोर्ट पहले ही कोई फैसला दे चुका है, तो फिर राष्ट्रपति द्वारा कोर्ट से राय लेना अनुचित है।
  • राज्यपाल केंद्र के इशारों पर राज्य सरकारों के काम में बाधा डालते हैं, बिल पास नहीं करते, नियुक्तियों में हस्तक्षेप करते हैं, आदि।
  • यह मामला सिर्फ तमिलनाडु का नहीं, बल्कि संघीय ढांचे और सभी राज्यों की स्वायत्तता से जुड़ा है।
  • उपराष्ट्रपति धनखड़: कोर्ट को राष्ट्रपति को आदेश देने का अधिकार नहीं होना चाहिए।
  • कपिल सिब्बल: राष्ट्रपति एक नाममात्र का मुखिया होता है; कार्यपालिका निष्क्रिय हो तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ेगा।

पक्ष में तर्क

  • राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से परामर्श लेने का अधिकार है। यह एक संवैधानिक प्रक्रिया है जो जटिल मामलों में न्यायिक स्पष्टता लाने के लिए बनाई गई है।
  • अनुच्छेद 142 व 131 जैसे प्रावधानों की सीमाओं और उपयोग को लेकर भ्रम की स्थिति है। स्पष्ट दिशा-निर्देश न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों के लिए महत्वपूर्ण हैं।

 

What do you think?

ऑपरेशन सिंदूर : भारत की विदेश नीति

पहलगाम आतंकी हमला और सिंधु जल संधि का निलंबन