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राष्ट्रवाद एक सवाल: आलोचनात्मक परिक्षण

राष्ट्रवाद का इतिहास और वर्तमान आलोचनात्मक परिक्षण

हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटित चेनाब रेलवे ब्रिज भारत के नए बुनियादी ढांचे की राजनीति का प्रतीक है। यह दुनिया का सबसे ऊँचा रेलवे पुल है, जो जम्मू-कश्मीर में एक खाई के ऊपर फैला है। इसकी भव्यता को स्वतंत्रता दिवस के निमंत्रण पत्र पर प्रदर्शित किया गया।

एक ऐसा समाज जो असमानता और विकास की कमी से जूझ रहा है, वहाँ राष्ट्रवाद का उत्सव इंजीनियरिंग की उपलब्धियों के रूप में मनाया जा रहा है जिसमे यह प्रदर्शित किया जा रहा है कि दुनिया का सबसे ऊँचा पुल, सबसे लंबा रेलवे पुल, सबसे चौड़ा एक्सप्रेसवे भारत में ही है।

लेकिन सवाल यह है कि जब यह भव्यता समावेशन के बजाय बहिष्कार का प्रतीक बन जाए, तब क्या होता है?

यह परियोजनाएँ क्या संदेश देती है?
किसी भी देश में परियोजना का आकार ही संदेश होता है। जैसे, स्टैच्यू ऑफ यूनिटी केवल एक स्मारक नहीं, बल्कि एक राजनीतिक बयान था, जिसमें एक खास बहुसख्यक-राष्ट्र कथा को बढ़ावा मिला और स्थानीय आदिवासी समुदाय विस्थापित हुए।

  • यह परियोजनाएँ अक्सर औपनिवेशिक प्रतीकों को हटाकर, नए निर्माण करके होती हैं, जो मौजूदा उद्देश्य को दर्शाते हैं।

राष्ट्र में कौन शामिल है?

आज की भारत सरकार इन परियोजनाओं को अभूतपूर्व पैमाने और गति से आगे बढ़ा रही है। यह सिर्फ तकनीकी उपलब्धि नहीं, बल्कि यह तय करने का एक तरीका भी है कि ‘कौन इस राष्ट्र में शामिल है और कौन नहीं’।

  • इंजीनियरिंग भाषा, सटीकता, नाप-तौल, स्टील-ग्लास राजनीतिक ताकत और नियंत्रण का संकेत बन जाती है। लेकिन इन परियोजनाओं के साथ ही विस्थापन, पर्यावरणीय नुकसान और स्थानीय समुदायों की उपेक्षा भी होती है।

बड़ी परियोजनाएँ जनता की भागीदारी के बिना तेज़ी से पूरी की जाती हैं, और सार्वजनिक परामर्श औपचारिकता भर रह जाता है।

यह राष्ट्रवाद का एक ऐसा रूप है जो भव्यता, अनुशासन और एकरूपता के जरिए लोकतांत्रिक विविधता को कमजोर करता है।

अंत: विशाल इंजीनियरिंग परियोजनाओं का मकसद सिर्फ सुविधा देना नहीं है, बल्कि एक राजनीतिक संदेश देना है। (source the hindu)

भारत में राष्ट्रवाद की जड़े

इरफ़ान हबीब बताते हैं कि ‘राष्ट्र’ केवल एक भूभाग नहीं, बल्कि राजनीतिक एकता और स्वतंत्रता की साझा आकांक्षा वाला समुदाय है। औपनिवेशिक शासन ने पुराने समय की विजयों से अलग तरीके से उपनिवेशों का लगातार आर्थिक शोषण किया, जिससे भारत में राष्ट्रवाद का जन्म हुआ।

  • प्रारंभिक आर्थिक राष्ट्रवादी (जैसे दादाभाई नौरोजी, आर.सी. दत्त) ने ब्रिटिश शोषण का विश्लेषण किया, लेकिन सामाजिक एकता के लिए जातीय असमानताओं और अस्पृश्यता को भी चुनौती देनी पड़ी।
  • केशवचंद्र सेन और बाद में गांधीजी ने किसानों व मज़दूरों को आंदोलन से जोड़कर राष्ट्रवाद को व्यापक जनाधार दिया।
  • 1947 से पहले राष्ट्रवाद की कसौटी ब्रिटिश शासन का विरोध थी; हिंदू महासभा, आरएसएस और मुस्लिम लीग इस कसौटी पर असफल रहे क्योंकि उन्होंने साम्प्रदायिक विभाजन को बढ़ावा दिया। गांधी, नेहरू और पटेल ने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा पर अडिग रहते हुए सभी धर्मों की एकता का समर्थन किया।
  • स्वतंत्रता के बाद कल्याणकारी राज्य के वादे (1931 कराची अधिवेशन) अधूरे रह गए, और 1991 के उदारीकरण के बाद हालात और बिगड़े। हबीब कहते हैं कि सच्चा राष्ट्रवाद केवल नारेबाज़ी और हिंसा में नहीं, बल्कि लोगों के कल्याण, न्याय और बुनियादी मूल्यों की रक्षा में है।

वे अंतरराष्ट्रीयतावाद पर भी जोर देते हैं; यानी अपने पड़ोसी और अन्य उत्पीड़ित देशों के साथ एकजुटता। असली राष्ट्रवाद देश की खामियों को दूर करने, पड़ोस में शांति बनाए रखने और आलोचना को दबाने के बजाय उसे सुनने में है।

इरफ़ान हबीब के अनुसार अतीत और वर्तमान के राष्ट्रवाद में मुख्य अंतर:

  1. अतीत का राष्ट्रवाद (Past Nationalism)
  • संदर्भ: औपनिवेशिक शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष।
  • कसौटी: ब्रिटिश शासन का विरोध ही राष्ट्रभक्ति का प्रमाण था।
  • स्वरूप: साझा आर्थिक शोषण, राजनीतिक दमन और स्वतंत्रता की आकांक्षा के आधार पर एकजुटता।
  • नेतृत्व: गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष बोस, भगत सिंह, कम्युनिस्ट व समाजवादी नेता।
  • विशेषता: किसानों, मज़दूरों और सभी धर्मों को शामिल करने वाला धर्मनिरपेक्ष और समावेशी दृष्टिकोण।
  • लक्ष्य: स्वतंत्रता प्राप्ति और सामाजिक-आर्थिक सुधार (जैसे जमीन जोते को, महिला अधिकार, जाति-भेद समाप्ति)।
  1. वर्तमान का राष्ट्रवाद (Present Nationalism)
  • संदर्भ: स्वतंत्रता के बाद का दौर, खासकर 1991 के बाद का समय।
  • कसौटी: अक्सर नारेबाज़ी, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और राजनीतिक लाभ के लिए राष्ट्रवाद का इस्तेमाल।
  • स्वरूप: धर्म और पहचान की राजनीति पर आधारित संकीर्ण राष्ट्रवाद; आलोचना और असहमति को दबाना।
  • नेतृत्व: सत्ता में बैठे दलों के साम्प्रदायिक और कॉर्पोरेट-समर्थक एजेंडे को बढ़ावा देने वाले।
  • विशेषता: कल्याणकारी राज्य के अधूरे वादे, आर्थिक असमानता, पड़ोसी देशों के साथ तनाव।
  • लक्ष्य: कई बार सत्ता-लाभ और कॉर्पोरेट हित, न कि आम जनता के जीवन-स्तर में सुधार।

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