प्रस्तावना
• सांस्कृतिक विविधता (Cultural Diversity) आज की दुनिया की हकीकत है। हर समाज में अलग-अलग जाति, धर्म, भाषा और संस्कृति के लोग रहते हैं। ऐसे में सवाल उठता है
• कि क्या यह विविधता लोगों को जोड़ती है या तोड़ती है? क्या ज्यादा विविध समाजों में लोग एक-दूसरे से अधिक सहयोग करते हैं या फिर अलगाव महसूस करते हैं? इसी मुद्दे पर रॉबर्ट पुटनम ने अपने प्रसिद्ध अध्ययन में गहराई से शोध किया।
• उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की कि बहुसांस्कृतिक समाज (Multicultural Society) में नागरिक सहभागिता, सामाजिक पूँजी और सामुदायिक जीवन किस तरह बदलते हैं।
नागरिक सहभागिता की परिभाषा
नागरिक सहभागिता (Civic Engagement) का मतलब है कि कोई व्यक्ति अपने समुदाय और समाज की गतिविधियों में सक्रिय भूमिका निभाए। इसमें शामिल हैं:
• मतदान करना
• सामुदायिक परियोजनाओं में भाग लेना
• स्वयंसेवा करना
• पड़ोस की समस्याओं को मिलकर सुलझाना
• राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर चर्चा करना
पुटनम मानते हैं कि जहाँ नागरिक सहभागिता ज्यादा होती है, वहाँ समाज अधिक स्वस्थ, मजबूत और लोकतांत्रिक होता है।
सलाद बाउल बनाम मेल्टिंग पॉट मॉडल
पुटनम ने अमेरिका जैसे बहुसांस्कृतिक समाजों के लिए दो मॉडल बताए
1. मेल्टिंग पॉट मॉडल (Melting Pot Model):
o यह मॉडल कहता है कि अलग-अलग संस्कृतियाँ मिलकर एक साझा संस्कृति बना लेती हैं।
o जैसे अलग-अलग धातुएँ पिघलकर एक धातु बना दें।
o यहाँ विविधता का जश्न नहीं मनाया जाता, बल्कि एकसमान पहचान बनाई जाती है।
2. सलाद बाउल मॉडल (Salad Bowl Model):
o इसमें हर संस्कृति अपनी विशिष्टता को बनाए रखती है।
o जैसे सलाद में अलग-अलग सब्ज़ियाँ अपनी-अपनी पहचान के साथ मौजूद रहती हैं, लेकिन मिलकर एक स्वादिष्ट डिश बनाती हैं।
o इसमें विविधता को ताकत और सुंदरता के रूप में देखा जाता है।
पुटनम ने कहा कि आधुनिक समय में समाज “सलाद बाउल” मॉडल की ओर बढ़ रहा है, जहाँ विविधता बनी रहती है, लेकिन साथ ही एक साझा पहचान भी बन सकती है।
पुटनम की मुख्य विचार
1. मतदाता और स्वयंसेवा पर असर
पुटनम ने पाया कि जहाँ सांस्कृतिक विविधता ज्यादा होती है, वहाँ लोगों की मतदान करने और सामुदायिक गतिविधियों में भाग लेने की प्रवृत्ति कम हो सकती है।
• लोग अजनबीपन महसूस करते हैं।
• अलग-अलग समूह एक-दूसरे पर कम भरोसा करते हैं।
• सामूहिक कामों में भागीदारी घट जाती है।
2. नागरिक सहभागिता पर नकारात्मक प्रभाव
शोध में यह भी सामने आया कि बहुसांस्कृतिक समाजों में लोग सामाजिक कार्यक्रमों या पड़ोस की गतिविधियों में भी कम जुड़ते हैं।
• वे अपने परिवार या नज़दीकी समूह तक सीमित रहते हैं।
• अजनबियों के साथ मिलकर काम करने में संकोच करते हैं।
• “Trust Deficit” यानी भरोसे की कमी पैदा हो जाती है।
3. सामाजिक पूँजी के लिए चुनौतियाँ
सामाजिक पूँजी (Social Capital) का मतलब है समाज में बने रिश्ते, विश्वास और सहयोग की ताकत।
पुटनम का कहना है कि सांस्कृतिक विविधता कई बार सामाजिक पूँजी को कमजोर कर देती है।
• पड़ोसियों पर भरोसा घट जाता है।
• लोग सामुदायिक संगठनों से दूर रहते हैं।
• सामूहिक गतिविधियों की जगह व्यक्तिगत जीवन को प्राथमिकता देने लगते हैं।
4. सकारात्मक संभावना
हालाँकि पुटनम ने यह भी कहा कि यह स्थिति स्थायी नहीं है।
• अगर समाज में सही नीतियाँ बनें,
• और विभिन्न समुदायों को समान अवसर और सम्मान मिले,
तो समय के साथ विविधता से समाज मजबूत भी हो सकता है।
इसका मतलब है कि शुरू में विविधता लोगों को अलग कर सकती है, लेकिन धीरे-धीरे यह लोकतंत्र और नागरिक जुड़ाव को भी समृद्ध बना सकती है।
नकारात्मक प्रभावों को दूर करने के उपाय
1. शिक्षा और संवाद:
o अलग-अलग समूहों के बीच संवाद और समझ बढ़ानी होगी।
o शिक्षा व्यवस्था में विविधता को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत करना होगा।
2. समान अवसर:
o रोजगार, राजनीति और समाज में सभी को बराबरी का अवसर देना होगा।
o भेदभाव कम होगा तो सहयोग बढ़ेगा।
3. संयुक्त गतिविधियाँ:
o अलग-अलग समुदायों को मिलाकर सामूहिक कार्यक्रम आयोजित किए जाएँ।
o जैसे खेल, सांस्कृतिक उत्सव और सामाजिक सेवाएँ।
4. नीति निर्माण:
o सरकार को ऐसी नीतियाँ बनानी होंगी जो विविधता को बोझ नहीं बल्कि ताकत बनाएँ।
o “समावेशी लोकतंत्र” की दिशा में काम करना होगा।
आलोचनाएँ
पुटनम के अध्ययन की आलोचना भी हुई। आलोचकों के अनुसार
• उन्होंने विविधता के नकारात्मक पहलुओं को ज़्यादा बढ़ा-चढ़ाकर बताया।
• हर समाज में परिणाम अलग हो सकते हैं, इसलिए एक ही निष्कर्ष सभी जगह लागू नहीं किया जा सकता।
• समय के साथ समाज विविधता को स्वीकार कर लेता है, इसलिए शुरुआती कठिनाइयों को ही अंतिम परिणाम मानना ठीक नहीं है।
निष्कर्ष
रॉबर्ट पुटनम का अध्ययन हमें यह सिखाता है कि सांस्कृतिक विविधता एक चुनौती भी है और अवसर भी।
• चुनौती इसलिए क्योंकि यह लोगों के बीच भरोसा और सहयोग को घटा सकती है।
• अवसर इसलिए क्योंकि समय और सही नीतियों के साथ यही विविधता समाज को ज्यादा रचनात्मक, लोकतांत्रिक और समावेशी बना सकती है।
इसलिए जरूरत है कि हम विविधता को खतरे के रूप में नहीं, बल्कि ताकत के रूप में देखें। लोकतंत्र की असली शक्ति भी यही है कि वह अलग-अलग पहचान वाले लोगों को एक साझा मंच पर ला सके।