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लद्दाख की छठी अनुसूची के दर्जे की मांग: कितनी जायज

लद्दाख भारत का एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील क्षेत्र है, जो अपनी विशिष्ट भौगोलिक, सांस्कृतिक और जनजातीय पहचान के लिए जाना जाता है। पिछले कुछ वर्षों में, विशेषतः 2019 में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन के बाद, लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिल गया। हालांकि, स्थानीय समुदायों में एक गहरी बेचैनी महसूस की जाने लगी है कि उनकी ऐतिहासिक और सामाजिक पहचान, संसाधनों का नियंत्रण, और रोजगार के अधिकार का उचित संरक्षण नहीं हो पा रहा। यही पृष्ठभूमि लद्दाख में छठी अनुसूची के तहत विशेष दर्जे की मांग को जन्म देती है, जो आज एक भीषण सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन का रूप ले चुकी है। हाल के महीनों में हुए उग्र प्रदर्शन, नेताओं की गिरफ़्तारी और कई मौकों पर हिंसा से यह स्पष्ट हो गया है कि लद्दाखी समाज के भीतर यह मुद्दा केवल राजनीतिक नहीं रह गया, बल्कि जनजातीय अस्तित्व और स्वायत्तता की गूंज बन चुका है।

छठी अनुसूची स्टेटस की मांग:

लद्दाख की छठी अनुसूची स्टेटस की मांग के मूल में जनजातीय आबादी की अस्मिता और भविष्य की सुरक्षा निहित है। संविधान की छठी अनुसूची पूर्वोत्तर भारत के चार राज्यों—असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम—को पारंपरिक, सामाजिक-आर्थिक अधिकार देता है। यह अनुसूची स्वायत्त जिला परिषदें स्थापित करती है, जो भूमि, वन, संसाधनों और रोजगार के मामले में जनजातीय समुदायों को संरक्षण व नियंत्रण का अधिकार देती हैं। छठी अनुसूची की सबसे बड़ी शक्ति इसी आत्मनिर्णय और अधिकार-प्रदान की व्यवस्था में है, जिसमें केंद्र और राज्य की अपेक्षा स्थानीय जनजातीय नेतृत्व को अधिक महत्व दिया जाता है। लद्दाख में जनसंख्या का बहुलांश जनजातीय है, जैसे बौद्ध, बोट, शिया मुसलमान इत्यादि, जिनकी विशिष्ट संस्कृति, परंपरा और आजीविका उन्हीं की भूमि और संसाधनों से जुड़ी हुई है। राज्य से केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद, स्थानीय लोगों में भय गहराया कि बाहरी लोगों का प्रवाह, अंधाधुंध भूमि अधिग्रहण, रोजगार में पिछड़ना, और सांस्कृतिक रूपांतरण उनकी पहचान और जीविका के लिए खतरा बन सकता है। यहीं से छठी अनुसूची की मांग राजनीतिक मंच से जन आंदोलनों तक फैली।

पिछले एक वर्ष में लद्दाख में छठी अनुसूची की मांग को लेकर अभूतपूर्व प्रदर्शन, अनशन और हिंसक आंदोलन सामने आए हैं। प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक की अगुवाई में सैकड़ों लोग खुले आकाश के नीचे धरना दे रहे हैं, प्रशासनिक उदासीनता और केंद्र सरकार की चुप्पी के विरोध में बड़ी संख्या में महिलाएं, युवक व समाज के विभिन्न वर्ग सड़कों पर उतर आए हैं। आलोचना इसी संदर्भ में हुई जब पुलिस द्वारा कर्फ्यू लागू किए गए और हिंसा में कई लोगों की मृत्यु हो गई। आंदोलनकारियों का सबसे बड़ा तर्क यही है कि लद्दाख की अधिकांश जनसंख्या जनजातीय है, और संविधान की छठी अनुसूची उन समुदायों की अस्मिता के लिए एकमात्र बड़ा कानूनी कवच है। हालांकि, प्रशासन के स्तर पर अनेक बार भरोसा दिलाया गया कि संवैधानिक संरक्षा दी जाएगी, पर ठोस कदम अब तक नज़र नहीं आए, जिससे आंदोलन और तेज हो गया है।

छठी अनुसूची और इसकी प्रक्रिया:

छठी अनुसूची से अभिप्राय विशुद्ध रूप से जनजातीय स्वायत्तता से है। अनुच्छेद 244(2) और 275 के तहत छठी अनुसूची में स्वायत्त जिला परिषदों का गठन किया जाता है, जिनके पास भूमि के स्वामित्व, वन अधिकार, स्थानीय रोजगार, संस्कृति और शैक्षिक नीति का नियंत्रण होता है। इसका उद्देश्य केंद्र और राज्य की शासकीय अधिपत्य के बजाय स्थानीय पारंपरिक स्वशासन की व्यवस्था को लागू करना है। छठी अनुसूची में शामिल किए जाने की प्रक्रिया जटिल है—संसद के अधिनियम द्वारा ही किसी क्षेत्र को इस अनुसूची में शामिल किया जा सकता है, जिसमें राज्य या केंद्र सरकार की अनुशंसा आवश्यक है। कई संसदीय समितियों ने लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करने के पक्ष में अपने विचार रखे हैं, लेकिन केंद्र सरकार की ओर से कोई ठोस घोषणा नहीं हुई।

लद्दाख के लिए यह दर्जा क्यों जरूरी?

लद्दाख का मामला इसलिए और भी जटिल है क्योंकि केंद्र शासित प्रदेश के रूप में इसका कोई विधायी सभा नहीं है, जिससे स्थानीय जनप्रतिनिधित्व और नीतिगत विमर्श सीमित हो जाता है। छठी अनुसूची में शामिल होने के पक्षधर तर्क देते हैं कि लद्दाख की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विशिष्टता को संविधान के इसी प्रावधान से सुरक्षित किया जा सकता है। लद्दाख में भूमि का अधिकतर हिस्सा जनजातीय समुदायों के नियंत्रण में है, और इसका दोहन बाहरी निवेश व सरकारी परियोजनाओं के तहत बढ़ता जा रहा है। स्थानीय लोगों को डर है कि अगर छठी अनुसूची लागू नहीं हुई, तो उनका भूमि अधिकार, रोजगार का हक और सांस्कृतिक विरासत खतरे में आ जाएगी। उदाहरणस्वरूप, पूर्वोत्तर राज्यों में स्वायत्त परिषदों के जरिए जनजातीय पहचान के संरक्षण के सकारात्मक उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं, जिनमें संसाधनों पर नियंत्रण से लेकर शिक्षा और नेतृत्व में स्थानीय भागीदारी सुनिश्चित होती है। लद्दाख के लोगों का दावा है कि ऐतिहासिक रूप से उनका सामाजिक ताना-बाना छठी अनुसूची के दायरे में आने के योग्य है, और उन्हें राजनीतिक संरक्षण के बिना बाहरी हस्तक्षेप और पहचान संकट का सामना करना पड़ेगा।

यह मांग कितनी जायज?

आलोचनात्मक विश्लेषण में यह देखने योग्य है कि लद्दाख की छठी अनुसूची की मांग पूरी तरह से न्यायसंगत है या नहीं। संविधान विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि किसी भी क्षेत्र को छठी अनुसूची में शामिल करने की कानूनी शर्तों की पूर्ति आवश्यक है—जैसे वहां की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा जनजातीय हो, विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान हो, और स्थानीय स्वायत्तता की आवश्यकता स्पष्ट हो। लद्दाख में उपरोक्त सभी शर्तें काफी हद तक लागू होती हैं, फिर भी राजनीतिक स्तर पर अनेक देरी और टकराव इस प्रक्रिया को लंबा कर देते हैं। आलोचक कहते हैं कि छठी अनुसूची का विस्तार करने से प्रशासनिक जटिलताएं और क्षेत्रीय असंतुलन पैदा हो सकता है, ख़ासकर जब केंद्र शासित प्रदेश में विधायी व्यवस्था सीमित है। साथ ही, सवाल उठते हैं कि क्या केंद्र सरकार वहां स्वायत्त परिषदों को इतनी शक्तियां देने के लिए तैयार है, जिससे भूमि और संसाधन प्रबंधन का पूरा नियंत्रण समुदाय विशेष के पास चला जाएगा।

राजनीतिक दृष्टि से यह मुद्दा केवल स्थानीय अस्मिता तक सीमित नहीं है, बल्क‍ि राष्ट्रीय सुरक्षा, सीमा सुरक्षा, और संसाधनों के प्रबंधन के संदर्भ में भी विचारणीय है। लद्दाख की अंतरराष्ट्रीय सीमा चीन-पाकिस्तान के करीब है, जहां क्षेत्रीय असंतुलन और बाहरी हस्तक्षेप होने की संभावना बनी रहती है। छठी अनुसूची की मांग को इस बिंदु पर केंद्र सरकार की संकोचपूर्ण नीति से भी जोड़कर देखा जा रहा है, जिससे केंद्र संसाधनों और सुरक्षा के मामले में कोई समझौता नहीं करना चाहता। मगर समकालीन दृष्टि से देखें तो जनजातीय समुदायों को आत्मनिर्णय और स्वायत्तता देना लोकतांत्रिक अधिकार के तहत बिल्कुल जायज है।

लद्दाख में लगातार हो रहे प्रदर्शन, धरना, और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इसका कवरेज यही दर्शाता है कि संविधान की छठी अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग केवल राजनीतिक दबाव नहीं है, बल्क‍ि सामाजिक और सांस्कृतिक भविष्य से जुड़ी बेहतरी की आशा है। वहाँ के लोगों को भय है कि बाहरी बैठकों में उनकी पहचान और अधिकारों की चर्चा जरूर होती है, पर ठोस संस्थागत संरक्षा न होने से वे अपने हक से वंचित रह सकते हैं। सोनम वांगचुक और अन्य स्थानीय संगठनों की पहल ने इस मांग को देशव्यापी सुनवाई दिलाई है। जनजातीय संसद और संगठनों का तर्क है कि लद्दाख की पहचान, पारंपरिक ताने-बाने, भूमि और संसाधनों की पु‍श्तैनी सुरक्षा और सामाजिक नेतृत्व को केवल छठी अनुसूची के विशेष दर्जे से ही संरक्षित रखा जा सकता है।

निष्कर्ष:

इसलिए, कानूनी दृष्टिकोण, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, प्रशासनिक व्यवधान, सामुदायिक भय, और संसाधनों के संरक्षण के आधार पर लद्दाख की छठी अनुसूची के दर्जे की मांग काफी हद तक न्यायसंगत है। यद्यपि व्यावहारिक बाधाएँ और केंद्र सरकार की संवेदनहीनता इस मांग को पूर्णता नहीं दे पातीं, पर जन आकांक्षा, संविधान की भावना और पूर्वोत्तर राज्यों के उदाहरण देखते हुए लद्दाख को इस दर्जे के लिए उपयुक्त माना जा सकता है। छठी अनुसूची में शामिल होने पर ही वहाँ के जनजातीय समुदायों को अपने अधिकारों, संस्कृति, पहचान और भविष्य का सही संरक्षण मिलेगा—यही लद्दाख के आंदोलनों की असली प्रेरणा है। समकालीन घटनाओं, जनप्रतिनिधियों के तर्क, प्रशासनिक प्रतिक्रियाओं और कानूनी विमर्शों के आलोक में कहा जा सकता है कि लद्दाख संविधान की छठी अनुसूची के अधिकारात्मक कवच के लिए जितना जागरूक है, उतना ही इसकी संवैधानिक मांग भी तर्कसंगत और औचित्यपूर्ण है।

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