विश्व राजनीति और वैश्विक अर्थव्यवस्था के युग में गरीबी केवल एक आर्थिक समस्या नहीं रह गई है, बल्कि यह सीधे-सीधे मानवाधिकार का प्रश्न बन चुकी है। थॉमस पोगे, जो येल विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध दार्शनिक और राजनीतिक चिंतक हैं, अपने लेख ‘World Poverty and Human Rights’ में तर्क देते हैं कि आज की दुनिया में मानवाधिकारों की सबसे बड़ी असफलता गहरी और व्यापक गरीबी है। वे मानते हैं कि मानवाधिकार केवल तभी सार्थक हैं जब हर व्यक्ति को भोजन, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा और गरिमा पूर्ण जीवन की गारंटी मिले।
गरीबी और मानवाधिकार का परस्पर संबंध
पोगे के अनुसार गरीबी और मानवाधिकार के बीच गहरा संबंध है।
- प्रत्यक्ष प्रभाव: जब लोगों के पास भोजन, कपड़े, घर और स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं होतीं, तो उनके सामाजिक और आर्थिक अधिकार सीधे तौर पर प्रभावित होते हैं।
- अप्रत्यक्ष प्रभाव: अत्यधिक गरीबी में जी रहे लोग राजनीतिक रूप से भी कमजोर हो जाते हैं। वे अशिक्षित, कुपोषित और रोज़मर्रा की आजीविका की चिंता में इतने उलझे होते हैं कि शासकों से जवाबदेही की मांग नहीं कर पाते। यही कारण है कि ऐसे शासक प्रायः विदेशी कंपनियों और अमीर राष्ट्रों के हित साधने लगते हैं।
इस तरह गरीबी केवल पेट भरने का सवाल नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र, स्वतंत्रता और न्याय की नींव को भी कमजोर करती है।
गरीबी की भयावह वास्तविकता
थॉमस पोगे ने कई अंतर्राष्ट्रीय आँकड़ों का सहारा लेते हुए दिखाया कि वैश्विक स्तर पर गरीबी कितनी गंभीर समस्या है:
- 83 करोड़ लोग लगातार भूख से पीड़ित हैं।
- 110 करोड़ लोगों को साफ पानी उपलब्ध नहीं है।
- 260 करोड़ लोगों के पास शौचालय या स्वच्छता की सुविधा नहीं है।
- 200 करोड़ लोग आवश्यक दवाइयों से वंचित हैं।
- 100 करोड़ लोगों के पास रहने के लिए पर्याप्त मकान नहीं है।
- 20 करोड़ बच्चे मजदूरी करने को मजबूर हैं, जिनमें से कई बेहद खतरनाक और अमानवीय परिस्थितियों में काम करते हैं।
- हर साल गरीबी-जनित कारणों से 1.8 करोड़ मौतें होती हैं, जिनमें से लगभग 60% पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की होती हैं।
ये आँकड़े बताते हैं कि गरीबी मानवाधिकारों की सबसे बड़ी असफलता है, और यह युद्धों या प्राकृतिक आपदाओं से कहीं अधिक जानें ले रही है।
अमीर और गरीब के बीच खाई
पोगे का एक बड़ा तर्क है कि आज अमीर और गरीब के बीच असमानता इतिहास में पहले कभी इतनी नहीं रही।
- अमीर देशों की जनसंख्या मात्र 15.7% है लेकिन वे 79% वैश्विक संसाधनों पर नियंत्रण रखते हैं।
- गरीब देशों की 42% जनसंख्या को केवल 1% वैश्विक उत्पादन मिलता है।
- विश्व बैंक के अनुसार अमीर और गरीब के बीच आय का अंतर लगभग 200 गुना है।
पोगे कहते हैं कि वैश्विक गरीबी मिटाना आर्थिक रूप से असंभव नहीं है। यदि अमीर देशों की राष्ट्रीय आय का मात्र 1% हिस्सा गरीबों को उपलब्ध करा दिया जाए, तो करोड़ों लोगों को गरीबी से बाहर निकाला जा सकता है।
वैश्विक व्यवस्था और संस्थागत जिम्मेदारी
पोगे के अनुसार गरीबी केवल गरीब देशों की ‘आंतरिक विफलता’ नहीं है, बल्कि यह वर्तमान वैश्विक आर्थिक व्यवस्था की देन भी है।
- व्यापार नीतियाँ: विश्व व्यापार संगठन (WTO) जैसे ढांचे अमीर देशों को विशेषाधिकार देते हैं। वे गरीब देशों पर टैरिफ, कोटा और एंटी-डंपिंग शुल्क लगाकर उनके बाजार को कमजोर करते हैं।
- बौद्धिक संपदा अधिकार: गरीब देशों को महँगी दवाइयाँ और बीज खरीदने पड़ते हैं क्योंकि अमीर देश पेटेंट अधिकारों का कड़ा पालन करवाते हैं। इससे सस्ती दवाइयों तक गरीबों की पहुँच सीमित हो जाती है।
- भ्रष्ट शासन को बढ़ावा: अमीर देश ऐसे तानाशाहों और भ्रष्ट नेताओं को मान्यता देते हैं जो विदेशी हितों की सेवा करते हैं। बदले में वे संसाधन बेचते हैं, कर्ज लेते हैं और अपने देश की जनता को और गरीबी में धकेलते हैं।
इस प्रकार वैश्विक व्यवस्था खुद ही गरीबी और असमानता को बढ़ावा देती है।
धनी देशों की प्रतिक्रिया : खोखले वादे
थॉमस पोगे का मानना है कि धनी देश गरीबी उन्मूलन की दिशा में केवल भाषण और वादे करते हैं:
- आधिकारिक विकास सहायता (ODA): यह केवल 0.33% है, जबकि लक्ष्य 0.7% तय किया गया था।
- 1996 के रोम खाद्य सम्मेलन और 2000 के संयुक्त राष्ट्र Millennium Development Goals जैसे कार्यक्रमों में वादे किए गए लेकिन असल में बहुत कम प्रगति हुई।
- अमीर देशों की सरकारें गरीबी को ‘मानवाधिकार का प्रश्न’ मानने से बचती हैं। वे इसे केवल ‘दान’ या ‘मानवीयता’ का मुद्दा बताती हैं।
नैतिक और ऐतिहासिक जिम्मेदारी
पोगे का सबसे महत्वपूर्ण तर्क यह है कि गरीबी उन्मूलन अमीर देशों का नैतिक कर्तव्य है।
- अमीर देश उपनिवेशवाद, दासता और वैश्विक शोषण के इतिहास से समृद्ध हुए हैं।
- यदि वे अपने पूर्वजों के पापों की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते, तो वे उनके फल (धन और शक्ति) का आनंद लेने का नैतिक अधिकार भी नहीं रखते।
- अमीर देशों की समृद्धि आज भी गरीब देशों की पीड़ा और शोषण पर आधारित है।
इसलिए गरीबी निवारण केवल ‘मानवता का काम’ नहीं है, बल्कि यह न्याय और मानवाधिकार का अनिवार्य कर्तव्य है।
निष्कर्ष
थॉमस पोगे का लेख हमें यह समझाता है कि गरीबी केवल घरेलू नीतियों की विफलता नहीं है, बल्कि यह वैश्विक असमानताओं और अन्यायपूर्ण संस्थागत व्यवस्थाओं का परिणाम है। यदि दुनिया के अमीर देश वास्तव में मानवाधिकारों की रक्षा करना चाहते हैं, तो उन्हें केवल भाषणों और घोषणाओं से आगे बढ़कर ठोस कदम उठाने होंगे।
गरीबी का उन्मूलन संभव है, लेकिन इसके लिए आवश्यक है:
- संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण,
- अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का सुधार,
- और अमीर देशों की राजनीतिक इच्छाशक्ति।
इस तरह थॉमस पोगे गरीबी को मानवाधिकार के उल्लंघन के रूप में प्रस्तुत करते हैं और वैश्विक न्याय की एक नई परिभाषा देने की कोशिश करते हैं।
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